मुल्ला सद्रा- 3
सदरुद्दीन मुहम्मद क़ेवाम शीराज़ी उर्फ मुल्ला सदरा का जन्म 9 जमादिल ऊला सन 980 हिजरी क़मरी बराबर 1571 ईसवी में ईरान के शीराज़ नगर में हुआ।
उन्होंने आरंभिक शिक्षा अपने घर में निजी शिक्षकों से प्राप्त की उसके बाद अधिक शिक्षा के लिए कज़वीन नगर गये जहां बड़े बड़े शिक्षकों की सेवा में उन्होंने विभिन्न प्रकार के ज्ञान प्राप्त किये और देखते ही देखते अपने दूसरे साथियों की तुलना में बहुत जल्दी, आरंभिक शिक्षा खत्म करके उच्च शिक्षा के चरण में प्रविष्ट हो गये। क़जवीन में उन्हें उस काल के दो महान बुद्धिजीवियों शेख बहाई और मीर दामाद से शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिला और कुछ ही दिनों में उन्होंने अपनी विलक्षण बुद्धि की वजह से उनके शिष्यों में विशेष स्थान प्राप्त कर लिया। सफवी शासन ने जब ईरान की राजधानी , कज़वीन से इस्फहान स्थानान्तरित की तो वह भी अपने शिक्षकों के साथ इस्फहान चले गये और वहां उन्हें मीर फन्दरस्की की क्लास में हिस्सा लेने का अवसर प्राप्त हुआ और कुछ ही दिनों बाद उन्हें शिक्षा देने की अनुमति मिल गयी। उन्होंने उसी समय से दर्शन शास्त्र के नये सिद्धान्तों की शिक्षा देना आरंभ कर दी लेकिन जैसा कि हम ने बताया था कि यह क्रम अधिक दिनों तक नहीं चल पाया और उनके विचारों के विरोधी बुद्धिजीवियों ने उन पर इतना दबाव डाला और उनका इतना विरोध किया कि उन्हें इस्फहान छोड़ने पर विवश होना पड़ा। इस्फहान से वह कुम के पास " कहक" नामक गांव में चले गये जहां से पांच या पंद्रह साल के बाद शीराज़ गये। मुल्ला सदरा की बहुत सी किताबें इसी काल में लिखी गयी हैं। मुल्ला सदरा का सन 1050 हिजरी क़मरी बराबर 1640 ईसवी को 71 वर्ष की आयु में सातवें हज के लिए जाते समय बसरा नगर में देहान्त हो गया। इस महान इस्लामी व ईरानी दार्शनिक की क़ब्र, पहले इमाम हज़रत अली अलैहिस्सलाम के नजफ स्थिति मज़ार के पहले प्रांगण में है।
मुल्ला सदरा के व्यक्तित्व को कई आयामों से परखा जा सकता है क्योंकि उनका जीवन उतार चढ़ाव से भरा रहा है। वह अन्य दार्शनिकों की तरह एक विचारक या साधारण दार्शनिक की भांति नहीं थे। इसी लिए हम उनके व्यक्तित्व को एक दार्शनिक व दर्शन शास्त्र में नये विचारों के संस्थापक के रूप में ही नहीं देख सकते क्योंकि वह अपने काल में प्रचलित अन्य ज्ञानों में भी दक्ष थे। वह दर्शन शास्त्र के साथ ही साथ एक पहुंचे हुए आध्यात्मिक गुरु थे और तपस्या करके वह आध्यात्म के ऊंचे दर्जे तक पहुंच गये थे। मुल्ला सदरा ने अपनी किताबों में इस बिन्दु की ओर संकेत किया है कि वह जब चाहें, अपनी आत्मा को अपने शरीर से निकाल का परा भौतिक चीज़ें देख लें।
मुल्ला सदरा की रचनाओं पर ध्यान देने के बाद जो आज भी उपयोगी हैं, उन्हें केवल एक दार्शनिक कहना , उनके लिए बहुत कम है यहां तक कि अगर हम उन्हें अध्यात्मिकता के साथ एक दार्शनिक कहें कि जिसके अपने विचार हैं तो भी उनके लिए कम है। मुल्ला सदरा बहुआयामी ज्ञानी थे और अपने समय के हर ज्ञान में दक्ष थे। दर्शनशास्त्र के सभी मतों के विशेषज्ञ थे, वाद शास्त्र का ज़बरदस्त ज्ञान रखते थे और आध्यात्मिक विचारों में दक्ष थे। इसके साथ ही वह कुरआने मजीद की समीक्षा करने वाले और पैगम्बरे इस्लाम और उनके परिजनों के कथनों के ज्ञानी थे। इसके साथ ही वह फारसी और अरबी साहित्य भी पढ़ाते थे। गणित की पूरी जानकारी थी , उस काल के चिकित्सा विज्ञान से अवगत थे, खगोल शास्त्री थे, भौतिक शास्त्री थे यहां तक कि उन्हें रहस्यमय ज्ञान से भी अवगत कहा जाता है।
इस प्रकार से विभिन्न क्षेत्रों में उनकी दक्षता, उनके व्यापक ज्ञान का चिन्ह है लेकिन जिस चीज़ ने उन्हें अन्य बुद्धिजीवियों से अलग किया वह उनकी दो विशेषताएं हैं जो अन्य बुद्धिजीवियों में कम ही होती हैं। एक स्पष्ट विशेषता उनकी गहरी जानकारी है वह किसी भी विषय खास तौर पर दर्शन शास्त्र में पढ़ने, पढ़ाने लिखने आदि पर ही संतोष नहीं करते थे बल्कि वह दार्शनिक विषयों पर इतनी चर्चा करते इतना ध्यान देते थे उस विषय का अंतिम रूप उनके सामने आ जाता। उनकी दूसरी विशेषता, उनके ज्ञान की ऊंचाई थी। वह अपनी चर्चा में यह कोशिश करते थे कि दर्शन शास्त्र के क्षेत्र में साधारण विषयों से ऊपर उठ कर जटिल व गूढ़ मुद्दों को उठाएं और उन पर चर्चा करें यही वजह है कि बहुत से विषयों में वह नया और अछूता विचार पेश करने में सफल रहे और इसी के साथ बहुत से क्षेत्रों में उन्होंने बहुत उलट फेर कर दी और नये नये विचार पेश किये। उनके नये विचारों को दर्शन शास्त्र में बहुत ख्याति प्राप्त है। मुल्ला सद्रा भी छठी सदी हिजरी कम़री के विश्व विख्यात दार्शनिक सोहरवर्दी और मिस्र के प्रसिद्ध दार्शनिक, फ्लोटीन की भांति यह मानते थे कि जो अपनी आत्मा को अपने शरीर से निकाल न सके और असाधारण काम करने की क्षमता न रखता हो वह वास्तविक दार्शनिक नहीं हो सकता। कहा जाता है कि उनके दोनों गुरु, शेख बहाई और मीर दामाद भी इसी प्रकार की आध्यात्मिक शक्ति के स्वामी थे।
मुल्ला सदरा ने हांलाकि बड़े बड़े गुरुओं से शिक्षा प्राप्त की थी और उनकी शिक्षा के कारण ही उन्हें इतनी अधिक आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त हुई थी किंतु उनका यह मानना था कि तीस से 35 वर्ष की आयु में उन्होंने कु़म के निकट " कहक " नामक गांव में जो एकांतवाास किया है और उस दौरान जो उपासना और और सांसारिक मोह माया से जो दूर रहे उसने उनके सामने नयी दुनिया का रास्ता खोल दिया। उन्होंने यह सब अपनी विश्व विख्यात किताब अस्फार की प्रस्तावाना में लिखा है। एकांतवास और लोगों से निराशा इस बात का कारण बनी कि उनकी आध्यात्मिक शक्ति फूले फले और इसी लिए उनके मन व मस्तिष्क में ऐसी गहरायी पैदा हो गयी जिसकी वजह से दर्शन शास्त्र की गूढ़ता व जटिलता समझना उनके लिए आसान हो गया और उन्होंने इन वास्तविकता को समझा ही नहीं बल्कि आंखों से देखा भी। यह विशेषता इस बात का कारण बनी कि एक संवेदनशील युवा के बजाए वह ठोस व्यक्तित्व के एक ज्ञानी बनें और विरोधियों के बड़े बड़े हमलों का डट कर मुक़ाबला करें और बिना परेशान हुए उनके सारे सवालों का जवाब दें।
कहक नामक गांव में उनके एकांतवास को उनके जीवन का महत्वपूर्ण मोड़ कहा जाता है और उसके बाद से उनके ज्ञान के विकास की प्रक्रिया में असाधारण रूप से तेज़ी पैदा हो गयी और इस काल ने उन्हें अपने जीवन की धारा के निर्धारण का अवसर प्रदान किया। उनकी जीवनी से पता चलता है कि किशोरावस्था से ही जिस तरह से उन्हें ज्ञान विज्ञान से लगाव था उसी प्रकार वह आध्यात्म में भी बेहद रूचि रखते थे और उन्होंने अपने रास्ता का चयन कर लिया था लेकिन, कहक गांव में उनके एकांतवास और उस दौरान उनके कठिन परिश्रम ने इस प्रक्रिया को बेहतर रूप से आगे बढ़ाने में उनकी मदद की।
पश्चिमी दर्शनशास्त्र में मुल्ला सद्रा जैसी कोई हस्ती नहीं है, न ज्ञान विज्ञान की दृष्टि से और न ही व्यवहार व आचरण के हिसाब से। प्रोफेसर हेनरी कार्विन उनके बारे में कहते हैं यदि याकू बूहमे और स्वेडनबर्ग को एक साथ एकत्रित करना संभव होता और उन्हें थामस एकवीनस के साथ मिला दिया जाता तो उससे मुल्ला सद्रा निकलते । लेकिन हक़ीक़त यह है कि ईरान के इस प्रसिद्ध दार्शनिक की प्रशंसा के लिए यह शब्द काफी नहीं हैं। उनकी जीवनी और उनकी सेवाओं से पता चलता है कि उन्हें पाईथोगोरस या कम से प्लेटो के बराबर समझना चाहिए। उनके दर्शन शास्त्र में भी उसी प्रकार की गहरायी पायी जाती है यही वजह है कि बहुत से बुद्धिजीवी उन्हें, नवपाईथागोरस या नव प्लेटो कहते हैं।
इन सब के अलावा भी वह एक बेहतरीन इन्सान थे। वास्तविक मनुष्य की जो कल्पना है उस पर वह पूरे उतरते थे। उनके व्यक्तित्व में उच्च चरित्र, नैतिकता व ज्ञान का ऐसा मिश्रण व सुन्दर संगम नज़र आता है जिसका उदाहरण कहीं और मुश्किल से मिलता है। उन्होंने एक मत की स्थापना की और उसके साथ ही वह ऐसा केन्द्र भी चलाते थे जहां से बाद में बड़ बड़े ज्ञानी निकले हैं।