इस्लामी संस्कृति और कला- 29
ईरान की एतिहासिक इमारतों और उनकी वास्तुकला का परिचय कराते हुए हम ईरानी मस्जिदों के परिचय तक पहुंचे हैं और पिछले कार्यक्रम में हमनें संक्षेप में मस्जिद की इमारत की ओर संकेत किया था।
सबसे पहले हम कनाडा के लेखक राल्फ बेनी के उस कथन को बयान करते हैं जिसे उन्होंने इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के पावन रौज़े को देखने के बाद अपनी किताब ब्रिज आफ टरक्याइज़ में लिखा है" मशहद में इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के रौज़े में बड़े - बड़े सुन्दर हाल हैं जो ज़रीह के चारों ओर हैं और वे आध्यात्मिक आकर्षण से भरे हुए हैं। वहां हर आदमी शांति का आभास करता है। गुंबद के बीच के स्थान को सुन्दर और रंग- बिरंगी टाइलों से सुसज्जित किया गया है। इंसान आभास करता है कि इस पवित्रतम स्थल में ईश्वरीय चमत्कार होने वाला है और इंसान के सामने स्वर्ग का रास्ता खुला हुआ है। इंसान महान ईश्वर के मुकाबले में स्वयं को तुच्छ पाता और समझता है और ईश्वरीय परिज्ञान का प्रकाश उसके दिल में चमकने लगता है और जो कुछ मैंने इस दर्शनीय स्थल में देखा उसका उल्लेख किसी भी किताब में नहीं किया जा सकता।
ईरान की जो इस्लामी सभ्यता है वह भौतिक और आध्यात्मिक दोनों चीज़ों का मिश्रण है और उनमें सबसे स्पष्ट वास्तुकला है। वास्तुकला एसी चीज़ है जिसे अभूतपूर्व रूप से मस्जिदों में देखा जा सकता है। मस्जिद वह धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक और शिक्षा स्थल है और उसकी विभिन्न उपयोगिता मस्जिद को गिर्जाघर जैसे उपासना स्थलों से अलग करती है।
मस्जिद शब्द अरबी भाषा के सजदा शब्द से बना है और उसका अर्थ सज्दा और उपासना करने की जगह है। पवित्र कुरआन की आयतों में इस बात की ओर संकेत किया गया है कि समस्त चीज़ें महान ईश्वर का गुणगान और उसका सजदा कर रही हैं। सूरये नहल की 48वीं आयत में आया है” क्या उन्होंने ईश्वर की उन रचनाओं व सृष्टियों को नहीं देखा जिनकी छाया उनके दाहिनी और बायीं ओर चलती है और वे पूर्ण विनम्रता के साथ ईश्वर का सजदा कर रही हैं?
सज्दा नमाज़ का अनिवार्य भाग और महान व सर्वसमर्थ ईश्वर के समक्ष नतमस्तक होने का प्रतीक है। इस प्रकार मस्जिद का अर्थ सज्दा करने का स्थान है। इस्लाम में मस्जिद वह स्थान है जहां इंसान अपने पालनहार से सीधा संपर्क करता है। यहां इस बात का उल्लेख आवश्यक है कि जो यह कहा गया कि मस्जिद में इंसान अपने पालनहार से सीधा संपर्क करता है इसका यह मतलब नहीं है मस्जिद में ही इंसान अपने विधाता से संपर्क कर सकता है बल्कि इंसान जहां चाहे अपने रचयिता से संपर्क कर सकता है और कोई एसा स्थान ही नहीं है जहां वह न हो, हां यह अलग बात है कि इसके लिए मस्जिद एक अच्छा स्थान है और वह एकेश्वरवाद के मूल्यों का प्रतिबिंबन स्थल है।
मोहम्मद करीम निया अपनी किताब “ईरान में इस्लामी वास्तकला” में लिखते हैं” मस्जिद दूसरे उपासना स्थलों पर वही श्रेष्ठता रखती है जो श्रेष्ठता इस्लाम दूसरे धर्मों पर रखता है। इस्लामी कला विशेषकर वास्तुकला का आधार जनभावना है और इस्लामी वास्तुकला आत्म निर्भर है। ये वे विशेषताएं हैं जिन्हें मस्जिद में देखा जा सकता है।
मस्जिद वह स्थान है जहां उपासना की जाती है। साथ ही वह एक सांस्कृतिक स्थल है और इस्लाम के आरंभ से अब तक इस्लामी राष्ट्रों के ध्यान का केन्द्र रही है। पैग़म्बरे इस्लाम के काल में मस्जिद में असहाय लोगों और यात्रियों को ठहराया जाता था। उसमें सभायें होती थीं और धार्मिक शिक्षायें दी जाती थीं। बाद में इसी स्थान से ज्ञान की गतिविधियां आरंभ हुईं और उनमें विकास हुआ और वह परवान चढ़ीं परंतु पूरे इतिहास में मस्जिद अपने पालनहार से संपर्क करने का स्थल रही है।
अमेरिकी ईरान विशेषज्ञ आर्थर पोप इस्लामी वास्तुकला की बहस में मस्जिद को जन इमारत कहते हैं जिसने राजाओं- महाराजाओं के भव्य महलों के मुकाबले में अपनी शान बाकी रखी है। नगरों के विस्तृत हो जाने और मुसलमानों की संख्या में वृद्धि हो जाने के कारण मस्जिद की आवश्यकता अधिक हो गयी है और बहुत से स्थानों पर लोगों की वित्तीय क्षमता के दृष्टिगत मस्जिदों का निर्माण कर दिया गया है परंतु बड़ी मस्जिदों का निर्माण प्राय: शासक कराते हैं या जन कल्याण करने वाले लोग कराते हैं इस कारण मस्जिदों और उनकी वास्तुकला को इस प्रकार बांटा जा सकता है।
सुल्तानी मस्जिदें” इन प्रकार की मस्जिदों के नाम से ही ज्ञात है कि इन मस्जिदों का निर्माण अधिकांशः शासक कराते थे।
मसाजिदे आयानीः इन मस्जिदों का निर्माण अधिकांशः जन कल्याण करने वाले लोग कराते थे और उस पर अपना नाम लिखवा देते थे और जिन मस्जिदों का निर्माण लोग मिलकर कराते थे अधिकांशः उनका नाम धार्मिक और इमामों के नाम पर होता था।
मस्जिदों का जो आध्यात्मिक वातावरण होता है उसकी मांग यह है कि मस्जिद का निर्माण विशेष व योग्य ढंग से किया जाये। मिस्री विचारक सैयद कुतुब का मानना है कि इसी आध्यात्मिक वातावरण के कारण मस्जिदों में वास्तुकला के सुन्दरतम आयाम अस्तित्व में आये।
बहुत से शोधकर्ताओं का मानना है कि धार्मिक कला का आधार किसी चीज़ की ओर संकेत होता है विशेषकर इस्लामी कला जिसका स्रोत पवित्र कुरआन है। अतः इस्लामी कला में जिन चीज़ों का प्रयोग किया जाता है वह किसी गहरे अर्थ की सूचक होती हैं।
धार्मिक स्थलों में इस्लामी वास्तुकला का एक नमूना उनके प्रवेश द्वार हैं। बहुत सी मस्जिदों के प्रवेश द्वार बड़े और ऊंचे होते हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि मस्जिदों के दरवाज़ों का बड़ा और ऊंचा होना इस बात का सूचक है कि महान ईश्वर की कृपा विस्तृत और असीमित है। इंसान मस्जिद के बड़े दरवाज़ों को देखकर इस बात का आभास करता है कि जो लोग मस्जिद में प्रवेश कर रहे हैं उन सब पर ईश्वर की कृपा होगी। नमाज़ के समय ईश्वरीय कृपा के द्वार खुल जाते हैं और अज़ान देकर लोगों को मुक्ति व कल्याण की ओर बुलाया जाता है।
मस्जिदों की वास्तुकला में जो प्रवेश भाग होते हैं उनका बहुत महत्व है क्योंकि ईरान की प्राचीन वास्तुकला के महत्वपूर्ण भाग को उसमें देखा जा सकता है। आरंभ में मस्जिदों के इस भाग को दरगाह कहते थे और धीरे- धीरे उसे सात भागों में बांट दिया गया और उन सात भागों के नाम इस प्रकार हैं। जोलोख़ान, पीशताक़, दरगाह, हश्ती, दालान, अइवान और साबात।
समय बीतने के साथ- साथ मस्जिद का जो प्रवेश भाग था वह केवल संपर्क भाग नहीं रहा बल्कि उसका सांस्कृतिक और सामाजिक प्रयोग भी होने लगा। उदाहरण के तौर पर मस्जिद के सामने जोलोख़ान का निर्माण किया जाता था और उसे इस प्रकार बनाया जाता था कि वह सड़क या चौराहे से मिला रहे। यह वातावरण मस्जिद में प्रवेश के लिए अत्याधिक आकर्षण उत्पन्न करता था। तेहरान में मस्जिदे इमाम जैसी कुछ मस्जिदों के सामने जो जोलोख़ान हैं उनमें कुछ दुकानों का निर्माण किया गया और धीरे- धीरे यह वातावरण मस्जिद और सड़क के मध्य संपर्क स्थल में परिवर्तित हो गया। जोलोख़ान में प्रवेश द्वारा नहीं होते थे और उसकी दीवारें सादी होतीं थीं जबकि उसका वातारण एक छोटे आंगन की भांति होता था।
ईरान के इस्फहान नगर की जो मस्जिदे इमाम है उसमें जो जोलोख़ान है उसके अंदर विश्राम के लिए पत्थर के चबूतरे बने हैं और उसके बीच में पानी का एक छोटा हौज़ भी है।
जोलोख़ान के बाद पीशताक़ होता है जिसका आधा भाग दालान की भांति खुला रहता है जबकि आधा भाग ढ़का होता था और उसका निर्माण मस्जिद के प्रवेश द्वार के अंदर किया जाता था। पीशताक़ की ऊंचाई मस्जिद की दीवारों से भी अधिक होती है और वह मस्जिद के महत्व और उसकी स्थिति का सूचक होता है। आम तौर पर जिन मस्जिदों में पीशताक़ हैं उन्हें सुन्दर टाइलों से सुसज्जित किया गया है और उनमें शिलालेख लगाये हैं जिन पर मस्जिद का निर्माण कराने वाले का नाम होता है, मस्जिद के निर्माण की तारीख होती है और इसी तरह उसमें कुछ शिलालेख एसे होते थे जिन पर पवित्र कुरआन की आयतें लिखी होती थीं। कुछ अवसरों पर मस्जिदों के इस भाग में सार्वजनिक आदेशों को लिखा जाता था ताकि सब उन्हें देख व पढ़ लें।
काशान नगर की “मैदान मस्जिद” का निर्माण 868 हिजरी क़मरी में किया गया था और बहुत अधिक शिलालेखों और पीशताक़ की दृष्टि से वह नमूना है। इसमें जो शिलालेख हैं उसमें दस एतिहासिक आदेश हैं और उनका संबंध सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी से है। इन शिलालेखों में जो बातें लिखी गयी हैं वे सार्वजनिक, सामाजिक और आर्थिक हैं। बहुत सी मस्जिदों के प्रवेश द्वार पर जो शिलालेख लगे हैं उनमें विभिन्न विषयों के बारे में लिखा गया है कुछ को नमाज़ के बारे में पवित्र कुरआन की आयतों से सुसज्जित किया गया है जबकि कुछ अन्य में मस्जिद के निर्माण के महत्व और ज्ञान प्राप्त करने जैसे विषयों का उल्लेख किया गया है। इसी प्रकार कुछ शिलालेखों में नमाज़ के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम और हज़रत अली अलैहिस्सलाम के कथनों को लिखा गया है जबकि कुछ दूसरे में ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता और पैगम्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों से प्रेम के महत्व का वर्णन किया गया है।