इस्लाम में बाल अधिकार-18
बच्चों को स्वास्थ्य, समृद्धि और सामाजिक सुरक्षा का पूरा अधिकार है।
यह बच्चों के ऐसे अधिकार हैं जिनको किसी भी स्थिति में अनेदखा नहीं किया जा सकता। बाल अधिकार के 24वें कन्वेंशन में आया है कि संसार के वे देश जो इस कन्वेंशन के सदस्य हैं वे बच्चों की स्वास्थ्य सुविधाओं और उनके पुनर्वास को मान्यता देते हैं। इन देशों को चाहिए कि वे बच्चों को स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए भरसक प्रयास करें।
सर्वेक्षणों से पता चलता है कि संसार में बहुत से बच्चे कुपोषण के कारण मर जाते हैं। बच्चों के कुपोषित होने के कई कारण हैं जैसे अनुचित भोजन, लगातार बीमार रहना, उनके खानपान पर विशेष ध्यान न देना और इसी प्रकार की बहुत सी दूसरी बातें। यदि कोई गर्भवती महिला अपनी गर्भावस्था के दौरान कुपोषण का शिकार हो जाए तो उससे पैदा होने वाली संतान अपने जीवन के आरंभिक दो वर्षों के भीतर कुपोषण का शिकार हो सकती है। इससे बच्चे के विकास पर बुरा प्रभाव पड़ता है। ऐसे बच्चे शारीरिक और मानसिक दोनो प्रकार के विकास में पिछड़ जाते हैं और अपने जीवन के दौरान नाना प्रकार की समस्याओं में घिरे रहते हैं। हर बच्चे का यह अधिकार है कि उसे पौषटिक भोजन दिया जाए और उसके स्वास्थ्य का पूरा ध्यान रखा जाए। यदि बच्चे का शारीरिक विकास सही ढंग से नहीं होगा तो इससे उसका मानसिक विकास भी रुक जाएगा। इसीलिए घरेलू जीवन में बच्चों पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।
बाल अधिकार कन्वेंशन में बच्चों के स्वास्थ्य और उनके विकास जैसे विषय पर विशेष ध्यान केन्द्रित किया गया है। उदाहरण स्वरूप आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों के अन्तर्राष्ट्रीय कन्वेंशन में सरकारों को बाध्य किया गया है कि लोगों के लिए उचित स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराएं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने स्वास्थ्य की विस्तृत परिभाषा करते हुए लिखा है कि किसी प्रकार का शारीरिक और मानसिक कष्ट न होना ही स्वास्थ्य है। स्वास्थ्य वास्तव में मनुष्य का मूल अधिकार है जिसकी पूर्ति उच्च स्तर पर की जानी चाहिए।
सर्वेक्षणों से यह पता चलता है कि प्रतिदिन चालीस हज़ार बच्चे कुपोषण के कारण तरह-तरह की गंभीर बीमारियों में ग्रस्त हो जाते हैं। इन्ही रिपोर्टों में बताया गया है कि बहुत से बच्चों को मादक पदार्थों के सेवन की लत लग जाती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के घोषणापत्र में बच्चों को स्वस्थ्य रखना उनका मूल अधिकार और दूसरों की ज़िम्मेदारी है। आज भी संसार के बहुत से देशों में न जाने कितने बच्चे स्वास्थ्य जैसी मूल आवश्कयता से वंचित होकर मर रहे हैं जबकि उनको मौत से बचाया जा सकता है। इससे पता चलता है कि स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध करवाकर संसार में लाखों बच्चों के जीवन को सुरक्षित किया जा सकता है।
मनुष्य के प्रशिक्षण की सही और उपयोगी शैलियों में से एक उसका सम्मान करना है। किसी का सम्मान वास्तव में उसके मानसिक स्वास्थ्य का आधार है। यह मनुष्य के मानसिक विकास का महत्वपूर्ण कारक है। ईश्वर, पवित्र क़ुरआन में मनुष्य का सम्मान करते हुए कहता है कि उसने सृष्टि में किसी को भी मनुष्य से अधिक श्रेष्ठ नहीं बनाया है। वह कहता है कि हमने आदम की संतान को श्रेष्ठता दी और सम्मान दिया और बहुत से प्राणियों एवं जीवों से उसे श्रेष्ठ बनाया।
इस आयत से यह निष्कर्श निकाला जा सकता है कि ईश्वर ने मानव जाति पर कृपा करते हुए उसे दो चीज़ें दी हैं। एक सम्मान और दूसरे अन्य सभी जीवों पर वरिष्ठता। सम्मान ऐसी विशेषता है दूसरे प्राणियों में पाया नहीं जाता जबकि वरिष्ठता ऐसी विशेषता है जो अन्य जीवों में भी पाई जाती है किंतु मानव जाति के भीतर सबसे अधिक है। मान-सम्मान और वरिष्ठता वे ईश्वरीय विभूतियां हैं जिनकी सराहना की जानी चाहिए और यह हमारा मूल दायित्व है। इस दायित्व को किसी को भी अनदेखा नहीं करना चाहिए।
बच्चों का भी यह अधिकार है कि उनका सम्मान किया जाए। आध्यात्मिक एवं मानसिक आवश्यकताओं के दृष्टिगत बच्चे के व्यक्तित्व का सम्मान करना उसके स्पष्टतम अधिकारों में से एक है। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि बच्चे के शारीरिक एवं मानसिक विकास में उसके व्यक्तित्व के सम्मान की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। विशेष बात यह है कि मनुष्य का अस्तित्व ऐसा होता है कि उसे अपने जीवन के आरंभ से लेकर अंत तक सम्मान की ज़रूरत रहती है। अब चाहे वह बचपन हो, किशोर अवस्था हो, युवा अवस्था हो या बुढापा हो। मनुष्य जीवन में हर स्थान और हर क्षेत्र में इसकी प्राप्ति का इच्छुक रहता है चाहे घर हो, स्कूल हो या कोई सार्वजनिक स्थल आदि। वह चाहता है कि दूसरे उसका सम्मान करें अपमान न करें। मनुष्य सदैव ही दूसरों से सम्मान की आशा करता है। मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि अगर किसी बच्चे का सम्मान न किया जाए तो इससे उसका व्यक्तित्व प्रभावित होता है और उसके भीतर हीन भावना या द्वेष भर जाता है। एसे में बच्चे के व्यक्तित्व में स्थिरता नहीं आती और वह समाज के लिए एक जटिल समस्या के रूप में सामने आता है।
धार्मिक शिक्षा इस बात पर बल देती है कि बच्चों का अधिक से अधिक सम्मान किया जाना चाहिए। जीवन के हर क्षेत्र में बच्चों को सम्मान दिया जाए। इस बारे में इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम कहते हैं कि बच्चों के साथ विनम्रतापूर्ण व्यवहार किया जाए। उसकी कमियों को अनेदखा किया जाना चाहिए। उसके साथ सहानुभूति जताए। उसकी बुराइयों और कमियों को अनदेखा करो ताकि उसके भीतर प्रायश्चित की भावना उत्पन्न हो। उसको डांटने-डपटने से बचे क्योंकि यह काम उसके मानसिक विकास के रुकने का कारण बनता है।
पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स) कहते हैं कि बच्चों का सम्मान करो। उनको शिष्टाचार की बातें सिखाओ ताकि ईश्वर की क्षमा का पात्र बन सकें। वे अपने सभी मानने वालों को संबोधित करते हुए कहते हैं कि जो भी मुसलमान बच्चों के साथ कृपा और प्रेम न करे तथा उनके बड़ों का आदर न करे तो वह हमसे नहीं है। इस्लामी शिक्षाओं और पैग़म्बरे इस्लाम एवं उनके पवित्र परिजनों के कथनों में लड़कियों पर विशेष रूप से ध्यान दिया गया है। इब्ने अब्बास से पैग़म्बरे इस्लाम का एक कथन मिलता है जिसमें वे कहते हैं कि जिस किसी के भी लड़की हो और वह उसे न सताए और उसका अपमान न करे तथा बेटे को बेटी पर वरीयता न दे तो ईश्वर, उसको स्वर्ग में प्रविष्ट करेगा।
बच्चों के साथ किस प्रकार का व्यवहार किया जाए इस संबन्ध में पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों के कथनों में जो बातें कही गई हैं उनमें से कुछ इस प्रकार हैं। बच्चों के साथ प्रेमपूर्वक व्यवहार किया जाए। उनसे विनम्रता से मिला जाए। उनसे उचित अपेक्षा रखी जाए अनुचित नहीं। बच्चों को जो वचन दिया जाए उसे पूरा किया जाए। उनकी बुराइयों को छिपाना चाहिए और उनको अच्छी बातें बतानी चाहिए। बच्चों के महत्व के बारे में यहां पर हम पैग़म्बरे इस्लाम के जीवन की एक छोटी सी घटना बताने जा रहे हैं जिसका उल्लेख इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने किया है। वे कहते हैं कि एक बार पैग़म्बरे इस्लाम (स) ज़ोहर की नमाज़ पढ रहे थे। बहुत से लोग उनके पीछे नमाज़ पढ़ रहे थे। उन्होंने नमाज़ के अंत की दो रकअतें, शुरू की रकअतों की तुलना में बहुत तेज़ी से पढीं। जब नमाज़ समाप्त हो गई तो लोगों ने उनसे पूछा कि क्या बात हो गई जो आपने नमाज़ के अन्तिम भाग को तेज़ी से अदा किया। इसपर पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने कहा कि क्या तुमने बच्चे के चीख़ने-चिल्लाने की आवाज़ नहीं सुनी।
पैग़म्बरे इस्लाम (स) बच्चों के सम्मान में कभी तेज़ी से नमाज़ पढ़कर उसे ख़त्म करते तो कभी अपने सजदे को बढ़ा दिया करते थे। दोनों स्थितियों में वे बच्चों का सम्मान करते हैं। इस प्रकार वे व्यवहारिक रूप में बच्चों के व्यक्तित्व के प्रशिक्षण का मार्ग दिखाते हैं। पैग़म्बरे इस्लाम बच्चों के साथ सदैव ही प्रेम पूर्वक व्यवहार किया करते थे। इस्लाम ने बहुत ही अच्छे ढंग से बच्चों के व्यक्तित्व के विकास के मार्ग स्पष्ट किये हैं। इस हिसाब से माता-पिता एवं अभिभावकों का महत्वपूर्ण कर्तव्य बच्चों का ध्यान रखना और उनका सम्मान करना है। इसका मुख्य कारण यह है कि बचपन, मनुष्य के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण दौर होता है। यही वह दौर है जिसमें मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास हो रहा होता है।
मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि मनुष्य के जीवन के इस काल में उसको सबसे अधिक प्रभावित करने वाले उसके माता-पिता, अध्यापक, प्रशिक्षक एवं निकटवर्ती एसे लोग होते हैं जिनके साथ उसका सीधा संपर्क रहता है। मनोवैज्ञानिकों का यह भी कहना है कि जब किसी बच्चे को अन्य लोगों के सामने अपमानित किया जाता है तो उसके भीतर एक विशेष प्रकार का द्वेष या कीना पनपने लगता है। यह चीज़ उसके साथ जीवन के अंत तक रहती है। इस मानसिक बुराई को रोकने का एकमात्र मार्ग बच्चों को अपमानित न करना है। इस बात का पूरा प्रयास किया जाना चाहिए कि किसी बच्चे को सबके सामने न डाटा जाए। बच्चों को सम्मानित करने से उसके भीतर आत्म विश्वास की भावना मज़बूत होती है। सामाजिक संपर्क बनाने में इस आंतरिक विशेषता की बहुत भूमिका है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि बच्चों का सम्मान करना उनके भविष्य को उज्जवल बनाने की एक शैली है। यही कारण है कि इस्लाम में इस विषय को बहुत महत्व प्राप्त है।