Jun १८, २०१९ १२:५५ Asia/Kolkata

हमने बताया कि अमीर सअदुद्दौला अबून्नजम मसऊद सलमान हमदानी गज़नवी व सलजूक़ी काल से अत्याधिक प्रसिद्ध शायर थे जो भारत में रहते थे।

वह मूल रूप से ईरान के हमदान क्षेत्र के थे लेकिन उनके पिता शाही दरबार में कार्यरत थे इस लिए उनका जन्म सन 1046 - 1033 ईसवी में लाहौर में हुआ। उनके पिता और परिवार के सदस्य अपने समय के बुद्धिजीवियों  में गिने जाते थे। मसऊद ने लाहौर और गज़नी में  प्रसिद्ध गुरुओं से साहित्य  व कला के अलावा घुड़सवारी , तीर व कमान चलाना तथा रण कौशल भी सीखा। साहित्य से लगाव के कारण वह शेर व शायरी में रुचि लेने लगे। इस क्षेत्र में इतना आगे बढ़े के क़सीदा अर्थात व्यक्ति विशेष की प्रशंसा की शैली में अपने समय के जानेमाने शायर बन गये और उन्हें क़सीदा कहने वाले शायरों में गुरु का दर्जा प्राप्त हो गया। मसऊद सअद युवाकाल में ही दरबार से जुड़ गये और सुलतान इब्राहीम के आदेश से वह राजा के बेटे सैफुद्दीन महमूद के साथी बन गये और उसी के साथ भारत चले गये। मसऊद सअद सलमान , सैफुद्दीन महमूद के निकट अत्याधिक महत्व रखते थे लेकिन यह सुनहरी दौर बस कुछ ही बरसों तक चला क्योंकि गज़नी के राजा के पास जलने वालों ने इतनी शिकायतें की कि अन्ततः सुल्तान इब्राहीम गज़नवी  के आदेश से युवराज, सैफुद्दौला और उसके सभी साथियों और निकटवर्तियों को जेल में डाल दिया गया। उनके साथ मसऊद सअब को भी जेल में डाल दिया गया। इस तरह से मसऊद सअद ने अपनी आयु के दस वर्ष जेल में बिताए। उन्हें सुलतान इब्राहीम ग़ज़नवी के सत्ता काल तक जेल में रहना पड़ा।

कुछ इतिहासकार मसऊद सअद सलमान को जेल में डाले जाने को अबुलफरज रूनी की ओर से की जाने वाली बुराई को मानते हैं जो मसऊद सअद के समकालीन शायर थे किंतु यह विचार सही नहीं लगता क्योंकि मसऊद सअद ने हमेशा स्वंय को रूनी का शिष्य बताया और दोनों ही अपने काल के महान कवि थे। विश्वस्त सूत्रों के अनुसार मसऊद सअद को भारतीय दरबार के प्रमुख सेनापति अबुलफरज मंसूर बिन रुस्तम की जलन और षडयंत्र की वजह से जेल में डाला गया था। सुलतान इब्राहीम महमूद गज़नवी ने आदेश दिया था कि मसऊद सअद सलमान को  " दहक" नामक क़िले में कैद किया जाए। यह क़िला ज़ाबुलिस्तान के क़िलों में से एक था। जब मसऊद सअद को गिरफ्तार किया गया तो वह चालीस वर्ष के भी नहीं थे। दहक के क़िले में उन्हें हालांकि अपने दोस्तों और घरवालों से दूरी का दुख था किंतु रहने सहने और खाने पीने की कोई तफलीफ नहीं थी और अन्य जेलों की तुलना में इस जेल में उन्हें काफी सुविधा थी। सुल्तान इब्राहीम के दरबार का एक प्रभावशाली व्यक्ति अली था जिसे मसऊद सअद से विशेष लगाव था। इस व्यक्ति ने उनकी सुख सुविधा की सारी व्यवस्था कर दी थी जिसकी वजह से उन्हें इस जेल में कोई परेशानी नहीं थी। मसऊद सअद ने शाही दरबार के इस प्रभावशाली व्यक्ति अर्थात अली की प्रशंसा में क़सीदा भी लिखा जो बेहद खूबसूरत है। यही नहीं अली की यह भी कोशिश थी कि राजा का दिल मसऊद सअद के लिए नर्म हो जाए और वह उन्हें माफ कर दे लेकिन वह जितनी कोशिश करते, दरबार में बैठे दुश्मन उन सब पर पानी फेर देते। यहां तक कि उन्होंने राजा से कहा कि मसऊद सअद को दहक में पूरी आज़ादी है और उन्हें वहां पूरी छूट और सुविधा मिली हुई है। यह सुन कर राजा को बेहद गुस्सा आया और उसने मसऊद सअद को " सू " नामक क़िले भेजने का आदेश दिया। " सू" नामक किला भारतीय उपमहाद्वीप से बाहर था और एक ऊंचे पहाड़ पर स्थित था । इस किले में उनके साथ कड़ाई की गयी और उनके पैरों को भी ज़जीरों में बांध कर रखा गया। इन सब हालात के बावजूद, अली ने अपनी कोशिश जारी रखी और वह कभी कभी उनसे मिलने भी पहुंच जाते और जहां तक हो सकता उनके लिए सुविधा प्राप्त करने की कोशिश करते और मसऊद सअद को संयम व धैर्य रखने को कहते।

 

सू नामक किले में एक बूढ़ा क़ैदी भी था जिसका नाम बहरामी था। वह अत्याधिक अनुभवी और देश दुनिया घूमा हुआ था। इस जेल में मसऊद सअद बेहद बैचैन रहते और उन्हें अपने घर बार और बच्चों की याद आती, तथा उनके भविष्य की चिंता सताती। उन्हें अपना और अपने बच्चों का भविष्य अंधकार मय लगता। इस अवसर पर बहरामी उन्हें अपने अनुभव सुनाता, जीवन के खट्टी मीठी कहानियां सुना कर उनके मन को शांत करता। इस बूढ़े व्यक्ति को खगाोल शास्त्र में दक्षता प्राप्त  थी और उसने अपना जीवन इसी विषय के अध्ययन में व्यतीत किया था। मसऊद सअद ने जेल में रहते हुए उस बूढ़े  क़ैदी से खगोल शास्त्र सीखा । इस दौरान मसऊद की हर कविता में उनका दर्द झलकता है। एक कविता में वह कहते हैं कि न किसी से उम्मीद है , न इस जेल में कोई साथी है, मेरे दोनों पैरों में लोहे के दो सांप लिपटे हैं और मैं दुखों की पीड़ा सहन कर रहा हूं।

 

मसऊद सअद को दहक और सू किलों में सात बरसों तक दुख व पीड़ा व यातना सहन करने के बाद " नाय" नामक दुर्ग भेज दिया गया जहां व तीन वर्षों तक रहे। वह कहते हैं कि सात बरस, सू और दहक में , उसके बाद तीन साल नाय क़िले में गुज़रे।

 

मसऊद सअद के शेरों का अधययन करने से पता चलता है कि तीनों जगहों में से सब सेअधिक कठिनाई उन्हें " नाय" क़िले में हुई क्योंकि इस किले में उन्होंने जो कविताएं कहीं उन में बेहद दर्द व पीड़ा लिए हैं। नाय जेल में बंदी बनाए जाने के दौरान भी उनके मित्रों और समर्थकों के प्रयास जारी रहे और वह सुल्तान इब्राहीम से उनके लिए माफी लेने का प्रयास करते रहे यहां तक कि राजा के निकटवर्ती दरबारी, अमीदुल मुल्क अबुलक़ासिम की सिफारिश और कोशिश पर उन्हें आज़ादी मिल गयी। आज़ादी के बाद मसऊद, लाहौर लौटे और उसके बाद अपने पैतृक नगर गये और जैसा कि उनकी कविताओं से पता चलता है, दुखों और यातनाओं की वजह से वह बेहद कमज़ोर हो गये थे। सुल्तान इब्राहीम की मृत्यु के बाद उसके बेटे मसऊद ने सत्ता संभाली। मसऊद ग़ज़नवी ने, अपने बेटे अमीर अज़ुद्दौला शीरज़ाद को भारत भेज दिया और अबू नस्र पारसी को उसके पेशकार के रूप में साथ कर दिया । अबू नस्र पारसी , मसऊद सअद के निकट वर्ती मित्रों में था इस लिए उसकी सिफारिश पर उन्हें चालधंर की जागीर सौंप दी लेकिन इस जागीरदारी का समय भी बेहद कम रहा। अबू नस्र पारसी पर विभिन्न प्रकार के आरोप लगाए गये और उसे और उसके निकटवर्ती सभी लोगों को जेल में डाल दिया गया। मसऊद सअद भी उसी के साथी थे इस लिए उन्हें " मरंच " क़िले में बंदी बना दिया गया जहां उन्होंने आठ वर्ष गुज़ारे। मसऊद सअद सलमान के शेरों पर ध्यान देने से यह पता लगाया जा सकता है कि उन्हें बहुत अच्छी तरह से इस बात का अंदाज़ा था उनके दुखों का सिलसिला खत्म होने वाला नहीं है और यही वजह है कि उन्होंने अपने शेरों में अपने ऊपर बार बार पड़ने वाले दुखों का उल्लेख किया है।

 

कुछ इतिहासकारों का यह मानना है कि जेल से रिहा होने के बाद वह सरकारी कामों से दूर हो गये और आत्म निर्माण और उपासना में लीन हो गये किंतु यदि उनकी कविताओं और शेरों पर ध्यान दिया जाए तो जेल से रिहाई के बाद की उनकी दशा का अनुमान लगाया जा सकता है। इसी प्रकार उनके समय के इतिहास में भी उनके बारे में बहुत कुछ लिखा है। इतिहासिक तथ्यों और साक्ष्यों से पता चलता है कि जेल से रिहाई के बाद वह सत्ता के गलियारों से दूर हुए और बड़े पदों को प्राप्त करने का प्रयास नहीं किया किंतु शाही दरबार से दूर नहीं हो पाए और पूरी उम्र , दरबार में सांस्कृतिक गतिविधियों में बिता दी । उन्होंने अपनी आयु के अंतिम दिनों में गज़नवी दरबार के पुस्तकालय की ज़िम्मेदारी संभाल ली थी। मसऊद सअद सलमान  ने , सन 1121 या 1122 ईसवी में गज़नी में इस संसार से विदा ली।

 

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