Jul ०३, २०१९ १२:२९ Asia/Kolkata

हमने पांचवी हिजरी क़मरी शताब्दी बराबर ग्यारहवीं ईसवी के महान ईरानी साहित्यकार मसूद सअद सलमान के बारे में चर्चा की थी।

अगले कुछ कार्यक्रमों में भी हम उनकी ही रचनाओं के संबन्ध में विस्तार से चर्चा करेंगे।  जैसाकि हमने बताया था कि "सईदुद्दौला अबुन्नज्म मसूद सअद सलमान हमदानी", ग़ज़नवी शासनकाल के जानेमाने कवि थे।  उन्होंने अपना समय भारत में गुज़ारा।  वे मूलरूप से ईरानी थे और उनका संबन्ध हमदान से था।  सन 1033 से 1046 तक मसूद सलमान के पिता ने ग़ज़नवी दरबार में अपनी सेवाएं दीं।  उनके पिता और पूर्वजों की गणना, अपने काल के विद्वानों में हुआ करती थी।

"सईदुद्दौला अबुन्नज्म मसूद सअद सलमान हमदानी" या मसूद सलमान का जन्म लाहौर में हुआ था।  मसूद ने लाहौर और ग़ज़नी में जहां तत्कालीन महान विद्वानों से शिक्षा अर्जित की वहीं पर उन्होंने घुडसवारी, तीरअंदाज़ी और तलवार चलाने की कला में भी निपुणता प्राप्त की।  इस प्रकार से उनके भीतर शिक्षा और कला दोनों में ही निपुर्णता पाई जाती थी।  उनको साहित्य से बहुत अधिक लगाव था।  मसूद सलमान शेर भी कहा करते थे लेकिन अधिकतर वे क़सीदे या चौपाइयां कहा करते थे। 

मसूद सलमान, सुल्तान इब्राहीम के कहने पर सैफुद्दीन महमूद के साथ भारत गए थे।  सैफुद्दौला महमूद के निकट मसूद सलमान का बहुत महत्व था।  हालांकि तत्कालीन शासक के निकट मसूद सलमान को विशेष स्थान प्राप्त था किंतु दरबारी चुग़लख़ोरों के द्वेष के कारण उन्हें अपने इस महत्व की क़ीमत दूसरे रूप में चुकानी पड़ी।  इब्राहीम ग़ज़नवी के आदेश पर मसूद सलमान को सैफुद्दौला के साथ गिरफ़्तार करके जेल में डाल दिया गया।  मसूद सलमान ने अपने जीवन के लगभग 20 वर्ष जेल में गुज़ारे।

इस दौरान उन्होंने जो शेर कहे हैं उनमें कारावास की कठिनाइयों और बीवी बच्चों से दूरी का उल्लेख किया गया है।  जेल से आज़ादी के बाद मसूद सलमान ने फिर दरबार का रुख़ नहीं किया और वे ख्याति के पीछे नहीं गए किंतु वे दरबार से पूरी तरह से कटे भी नहीं रहे।  अपने जीवन के अन्तिम समय तक मसूद सलमान, मसूद ग़ज़नवी के बड़े पुस्तकालय के प्रमुख के रूप में सांस्कृतिक गतिविधियां करते रहे।  सन 1121 या 1122 ईसवी में "सईदुद्दौला अबुन्नज्म मसूद सअद सलमान हमदानी" का ग़ज़नी में निधन हो गया।

मसूद साद सलमान की गणना फ़ार्सी के महान साहित्यकारों में होती है।  वे एसे साहित्यकार थे जो अपनी विशेष शैली के कारण साहित्य में चमके और मश्हूर हुए।  वे बड़ी ही सुन्दरता एवं दक्षता के साथ शब्दों का चयन किया करते थे।  उनकी काल्पनिक उड़ान बहुत ऊंची थी।  वे किसी एक विषय को अलग-अलग ढंग से प्रस्तुत करने की क्षमता रखते थे।  मसूद सलमान के बारे में यह मश्हूर है कि उन्होंने अपनी कविताओं और रचनाओं में विदेशी शब्दों का बहुत ही कम प्रयोग किया है।  मसूद सलमान के काव्य में सामान्यतः दो प्रकार के शेर अधिक देखे जा सकते हैं।  एक "हबसियात" और दूसरे "मदायेह"।  हबसियात उन शेरों को कहा जाता है जो जेल या कारावास में कहे जाते हैं।  मदायेह उन शेरों को कहा जाता है जिनमे किसी की प्रशंसा की जाती है।  इसे क़सीदा भी कहते हैं।

मदह या क़सीदा, काव्य की एसी शैली है जिसमें किसी की प्रशंसा की जाती है। इस शैली का प्रयोग विगत में दरबारों में अधिक हुआ करता था।  राज दरबारों में कवियों द्वारा कसीदे कहे जाते थे जिनमें प्रशंसा के लिए भारी-भरकम शब्दों के प्रयोग की परम्परा चल निकली। जिस व्यक्ति की प्रशंसा की जाती थी उसकी और उससे जुड़ी वस्तुओं और लोगों का भी उल्लेख क़सीदों में होने लगा।  एक समय था जब उस्ताद या गुरु उसे ही माना जाता था जो अच्छा क़सीदा लिख सकता हो।  उस काल में यह भी माना जाता था कि शायर की योग्यता की परीक्षा तो क़सीदों में ही हो सकती है और इसी से किसी कवि की योग्यता का अंदाज लगता है। बाद के काल में इस विचार को लगभग त्याग दिया गया।  काव्य में विकास और विस्तार के साथ-साथ क़सीदे की परम्परा काफी कम होती चली गई।  यह परंपरा राज दरबारों में अधिक थी।

साहित्यिक मामलों के शोधकर्ताओं के अनुसार फ़ारसी काव्य में मदह या क़सीदे को चार कालों में बांटा गया है।  इस कला का स्वर्णिम काल सामानी शासनकाल को बताया जाता है।  उसके बाद ग़ज़नवी और सलजूक़ी काल का नंबर आता है।  जब इस प्रकार के शेर कहे जाते थे तो कवियों को उन लोगों की ओर से उपहार दिये जाते थे जिनकी प्रशंसा शेरों में की जाती थी। 

क़सीदे में इस बात का प्रयास किया जाता है कि जिसकी प्रशंसा की जाए उसकी विशेषताओं का अधिक से अधिक वर्णन हो।  क़सीदे में कभी-कभी तो सामने वाले की विशेषताओं का वर्णन किया जाता है और कभी उसे अच्छी बातों के लिए प्रेरित करने के उद्देश्य से क़सीदे में ऐसी विशेषताओं को शामिल किया जाता था।  उस्ताद सैयद जाफ़र शहीदी के अनुसार ईरानी साहित्य का इतिहास बताता है कि क़सीदे में किसी की प्रशंसा केवल इसलिए नहीं की जाती थी कि सामने वाले के भीतर वे सारी विशेषताएं मौजदू हैं बल्कि कभी-कभी उसे उन विशेषताओं को प्राप्त करने के लिए प्रेरित करने के उद्देश्य से भी यह काम किया जाता था।  इसके लिए कवि ऐसे भारी-भरकम और प्रभावशाली शब्दों के प्रयोग करते थे जिनका प्रभाव संबोधक के मन पर पड़े और वह उसे अपनाए।

ग़ज़नवी शासनकाल के शासकों विशेषकर मसूद ग़ज़नवी के उत्तराधिकारियों ने अपने काल में राजनीतिक एवं आर्थिक दृष्टि से वातावरण उत्पन्न करके कवियों की योग्यताओं को फलने-फूलने के अवसर उत्पन्न किये।  इस काल के कवियों के काव्यों के अध्धयन से ज्ञात होता है कि उस काल के राजा, प्रभावशाली लोग और विद्वान कवियों को राजदरबार में बड़े-बड़े पद दिलवाते थे।  मसूद सअद सलमान उन्हीं लोगों में से एक थे।

कहा जाता है कि मसूद सलमान ने अधिक ख्याति हबसियात से प्राप्त की अर्थात अपने कारावास के दौरान उन्होंने जो शेर कहे थे वे ही उनकी ख्याति का कारण बने थे लेकिन उन्होंने क़सीदे भी कहे हैं।  जिस प्रकार से हबसियात कहने में उनकी एक विशेष शैली थी उसी प्रकार से वे क़सीदों को भी अपने विशेष ढंग से कहा करते थे।  वे अपने शेरों में सत्ताधारियों और तत्कालीन कवियों की प्रशंसा करते थे।  जर्मनी के एक ओरिएंटलिस्ट "हरमेन एथी" (Hermann Ethe) का मानना है कि मसूद सलमान के शेरों को रोमांटिक शेरों की श्रेणी में ही रखा जा सकता है।

मसूद सलमान के काव्य की एक विशेषता यह थी कि उनके काव्य में विशेष प्रकार की समानता पाई जाती है।  उनकी एक विशेषता यह भी  थी कि वे अपने काल की कुरीतियों और बुराइयों का भी उल्लेख करते थे।  उनके शेरों को पढ़कर इस बात का अनुमान लगाया जा सकता है कि उस काल की स्थिति क्या थी और नैतिकता का पतन किस स्तर पर था।  उन्होंने अपने कुछ शेरों में तत्कालीन स्थिति का उल्लेख करते हुए लिखा है कि इस काल में इस्लाम की शिक्षाओं पर अमल नहीं किया जा रहा है।  भ्रष्टाचार बहुत बढ़ चुका है।  कोई न्याय की बात करने वाला दिखाई नहीं देता।  मसूद सलमान लिखते हैं कि नमाज़ पढ़ने वाले और मुसलमान तो बहुत हैं किंतु कोई ऐसा नहीं दिखाई दे रहा है जो इस्लाम के विरुद्ध की जाने वाली बातों का विरोध करता दिखाई दे।

 

 

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