Jul ०९, २०१९ १४:०९ Asia/Kolkata

हमने बताया कि मुहम्मद तालिब आमुली का जन्म ईरान के आमुल इलाक़े में 17वीं शताब्दी ईसवी में हुआ।

इसी शहर में उन्होंने अपने समय के प्रचलित ज्ञान प्राप्त किए तथा साथ ही रणकौशल और घुड़सवारी भी सीखी। 19 साल की उम्र में उन्होंने अपना शहर छोड़ा और काशान चले गए। इस पलायन के कई कारण बताए गए हैं इनमें से दो कारण अधिक विश्वस्नीय लगते हैं। कुछ लोगों का कहना है कि दरबार से निकटता के कारण उन्होंने पलायन किया। वह अपने मौसेरे भाई के माध्यम से जो शाह अब्बास सफ़वी के दरबार में कुशल हकीम के रूप में कार्यरत थे और बीमारों का इलाज करते थे, इसफ़हान में सफ़वी दरबार तक पहुंचाने की कोशिश में थे। लेकिन बहुत से लोग यह कहते हैं कि आमुल से उनके पलायन का असली कारण इश्क़ में मिलने वाली नाकामी थी। माज़न्दरान प्रांत विशेष रूप से आमुल और नूर के इलाक़े के चरवाहे तालिब तालेबा के नाम से कुछ शेर पढ़ते हैं जो बड़ी ही आशेक़ाना ग़ज़ल के कुछ बिखरे हुए शेर प्रतीत होते हैं। इस ग़ज़ल के प्रेमी तालिब आमुली और प्रेमिका ज़ोहरा है। इन शेरों में जो कहीं लिखित रूप में मौजूद नहीं हैं लेकिन लोगों के बीच बहुत आम हैं, यह संकेत किया गया है कि इश्क़ में नाकाम होने के कारण ही तालिब आमुल से निकले और भारत के लिए रवाना हुए।

कुछ लोगों का कहना है कि तालिब तालेबा नाम से प्रसिद्ध शेर तालिब आमुली ने लिखे लेकिन साहित्यिक आलोचकों का कहना है कि यह शेर तालिब आमुली के नहीं हो सकते क्योंकि यह शेर आमुल और उसके आस पास के शहरों में मशहूर हैं और यह दर्शाते हैं कि यह शेर आमुल में ही लिखे गए और इनमें तालिब के भविष्य का अनुमान लगाया गया है। यही बात यानी इन शेरों में तालिब के भविष्य और अंजाम की जो बात की गई है उससे ज़ाहिर है कि तालिब ने यह शेर नहीं कहे हैं। कुछ लोगों का कहना है कि यह शेर तालिब की बहन ने कहे हैं। लेकिन यह विचार भी ठीक प्रतीत नहीं होता। अधिकतर लोगों का मानना है कि ज़ोहरा जलावी जो तालिब की प्रेमिका थी यह शेर उसी ने कहे हैं। यह विचार यहां से उत्पन्न होता है कि इन शेरों में संकेत किया गया है कि आमुल से तालिब के चले जाने के बाद उनकी माशूक़ा पागलों की तरह गली कूचे में उन्हें खोजती है यही नहीं वह पहाड़ों, जंगलों और समुद्र के किनारों तक को छान मारती है उन्हें संबोधित करते हुए उनसे अपने माशूक़ का पता पूछती है।

तालिब और ज़ोहरा की कहानी में तालिब के जीवन के बारे में संक्षेप में बताने के बाद उसके पाठशाला जाने और ज़ोहरा से उसके प्रेम के बारे में बताया गया है कि कम उम्र में ही तालिब को ख़ूबसूरत किशोरी ज़ोहरा से प्रेम हो जाता है। यह प्रेम दोतरफ़ा था। कई साल तक यह प्रेम गुप्त रहा और दिलों के भीतर ही पनपता रहा मगर फिर बाद में यह राज़ खुल जाता है। ज़ोहरा के ख़ानदान का तालिब के ख़ानदान से पुराना बैर था इसलिए उन्होंने इस प्रेम पर कोई ध्यान ही नहीं दिया और ज़ोहरा की शादी किसी अन्य जवान से तय कर दी।

तालिब ने पूरी जान लगा दी कि किसी तरह ज़ोहरा के ख़ानदान के लोग तालिब से ज़ोहरा की शादी के लिए तैयार हो जाएं मगर लाख कोशिशों के बावजूद उसे कामयाबी नहीं मिलती। तालिब की दौलत ख़ूबसूरती और शायरी का भी ज़ोहरा के ख़ानदान वालों पर कोई कोई असर नहीं होता। इश्क़ में नाकामी हो जाने के कारण तालिब पर जुनून सवार हो जाता है और अब उसके लिए आमुल में ठहर पाना कठिन हो जाता है अतः वह आमुल शहर ही छोड़ देते हैं और जीवन के आख़िरी सांस तक आमुल लौट कर नहीं गए। तालिब ने जो शेर लिखे है उनमें कहीं उन्होंने अपनी जवानी के काल की कोई बात नहीं की है लेकिन यदि तालिब की रचनाओं पर विचार किया जाए तो इस पुराने इश्क का दाग़ और गहरा दुख उनके शेरों में झलकने लगता है। इससे यह अंदाज़ा होता है कि तालिब को वाक़ई प्रेम में नाकामी हुई जिसने उनके पूरे जीवने को प्रभावित किया और तालिब पूरे जीवन इस दुख के बोझ से खुद को बाहर नहीं निकाल सके। तालिब ने अपने कुछ शेरों में बयान किया है कि उनके दिल की गहराइयों में पुराना इश्क़ छिपा है और वह बताते हैं कि उन्होंने अपना घरबार क्यों छोड़ा। तालिब कहते हैं कि मेरे दिल पर घात लगाकर तीर चलाया गया लेकिन फिर मुझे उपेक्षा के तीर से मारा गया। तालिब मेरा दिल किसी भी शहर में दुख और मलाल की पीड़ा से बाहर नहीं निकल पाया वह क्या दिन था जब मुझे मेरे शहर आमुल से बाहर निकाला गया।

तालिब आमुल से काशान अपने रिश्तेदारों के पास पहुंचे और वहां से कई बार उन्होंने इसफ़हान की यात्रा की। हर बार वह कुछ समय के लिए इसफ़हान नगर में रुके जो सफ़वी राजाओं की वैभवशाली राजधानी था। तालिब ने इसफ़हान में ठहर कर महान शासन शाह अब्बास की प्रशंसा में कई क़सीदे कहे और दरबार में भिजवाए लेकिन उनके शेर शाह अब्बास और दरबारी अधिकारियों का ध्यान आकर्षित न कर सके अतः तालिब को दरबारी शायरों में जगह नहीं मिल सकी। इसका कारण यह बताया गया है कि दरबार में तालिब का कोई प्रभावशाली समर्थक नहीं था। उनका समर्थन यदि कोई कर सकता था तो वह उनके मौसेरे भाई थे उनके भाई हकीम रुकना थे लेकिन वह खुद भी दरबार में ज़्यादा दिन नहीं टिक सके बल्कि दरबार से निकाल दिए गए जिसके बाद वह भारत चले गए। काशान और इसफ़हान में तालिब चार साल तक ठहरे। हालांकि आर्थिक दृष्टि से तो तालिब को काशान और इसफ़हान में चार साल गुज़ारने से कोई फ़ायदा नहीं हुआ लेकिन इस अवधि में उन्होंने साहित्य और ज्ञान के बहुत महत्वपूर्ण पहलुओं की जानकारी हासिल की। तालिब आमुल में रहते थे जो साहित्य और शायरी की दृष्टि से बहुत छोटी जगह थी वहां शायरों का कोई बड़ा वर्ग नहीं था मगर इसफ़हान और काशान में तालिब को बहुत से शायरों और साहित्यकारों से मिलने का मौक़ा प्राप्त हुआ। इससे तालिब की शायरी और साहित्यिक कौशल में बड़ा महत्वपूर्ण बदलाव आया। आलोचकों का मानना है कि बाद में तालिब की शायरी और साहित्य में जो उत्थान आया है वह इसी अवधि में प्राप्त किए गए अनुभवों का नतीजा है।

इसफ़हान में जब तालिब को कोई सफलता नहीं मिल पाई तो उन्होंने भारत जाने का इरादा किया और इस यात्रा पर रवाना हो गए। इस यात्रा में उन्होंने अपना कुछ समय मर्व में बिताया और इस इलाक़े के शासक बक्तश ख़ान से वह काफ़ी क़रीब हो गए। यही कारण था कि मर्व में तालिब को बहुत सुकून और चैन की ज़िंदगी मिल गई। वह अपना अधिकतर समय अध्ययन करने और शायरी में बिताते थे। इस तरह उनका समय तो बहुत अच्छा कटने लगा और विभिन्न प्रकार की कठिनाइयां दूर हो गईं मगर तालिब चाहते थे कि ख़ुद को और भी ऊंचाई पर पहुंचाएं अतः उन्होंने मर्व से भी रवाना होने का इरादा कर लिया। वह भारत के लिए चल पड़े।

अनेक कारण हैं जिनकी वजह से कलाकार और शायर यह कामना करते थे कि किसी तरह उन्हें भारत जाने का मौक़ा मिल जाए। जो शायर भारत जाकर कामयाब हो जाता था उसे अन्य शायर आदर्श के रूप में देखते थे। भारत में मुग़ल साम्राज्य था इस साम्राज्य के शासकों का ईरान पर राज कर चुके तैमूरी शासकों से रिश्ता था। मुग़ल शासकों के दरबार बिल्कुल ईरानी दरबारों जैसे हुआ करते थे। शयरों और कलाकारों के भारत को पसंद करने का एक कारण यही था। दूसरा कारण यह था कि भारत जाकर बहुत से ईरानी सरदारों और शासकों को बड़े बड़े इलाक़े मिल गए थे या सेना में बड़े पद प्राप्त हो गए थे। वह फ़ार्सी शायरों को हमेशा प्रोत्साहन और इनाम इत्यादि दिया करते थे। भारत के अलग अलग इलाक़ों के शासक फ़ार्सी शायरों और कलाकारों को बड़े बड़े इनाम देते थे और उनके लिए वज़ीफ़ा निर्धारित कर दिया करते थे। पलायन करके भारत पहुंचने वाले ईरानी कलाकारों और शायरों को प्राप्त होने वाली जागीर और धन दौलत की कहानियां ईरान में आम थीं इसके अलावा ईरान में यह बात भी आम थी कि भारत की धरती एसी है जहां हर मत और हर धर्म के लोग पूरी आज़ादी और भाईचारे के साथ रहते हैं इसलिए भी ईरानी कलाकार और शायर ही नहीं बल्कि अन्य वर्गों के लोग भी भारत जाने की कामना रखते थे। वहां जाकर ईरानी विद्वानों को बड़े बड़े पद प्राप्त हो जाया करते थे।

मर्व के शासक बक्तश ख़ान नहीं चाहते थे कि तालिब भारत की यात्रा करें। इसके दो कारण थे। एक कारण यह था कि बक्तश ख़ान को तालिब से बहुत अधिक लगाव हो गया था इसलिए वह हरगिज़ नहीं चाहते थे कि तालिब मर्व छोड़कर जाएं। उनकी दिली इच्छा थी कि तालिब मर्व में रहें और अपने ज्ञान और अपनी कला से मर्व के लोगों को लाभ पहुंचाएं तथा अपनी शायरी से शासक और दरबार के लोगों को भी आनंदित करें। दूसरा कारण यह था कि ईरान के शासकों और भारत के शासकों के बीच कलाकारों और शायरों को अपने दरबार में रखने को लेकर एक प्रतिस्पर्धा से पैदा हो गई थी। दोनों ही इलाक़ों के शासकों की यह इच्छा होती थी कि उनके दरबार में अधिक संख्या में कुशल और अदभुत शायर हों जिनके समान कोई दूसरा शायर किसी अन्य दरबार में न हो। यही कारण था कि तालिब के लिए मर्व से भारत जाना कठिन हो गया था। तालिब ने ख़ुसरो और शीरीन निज़ामी के अंदाज़ में शेर कहे और इन्हें शेरों में दरख़ास्त की कि बक्तश ख़ान उन्हें भारत नहीं आमुल जाने की अनुमति दे दे। बक्तश ख़ान ने इसकी अनुमति दे दी लेकिन तालिब मर्व से निकले तो आमुल जाने के बजाए वह भारत की ओर निकल गए। उस समय तालिब की उम्र लगभग 25 साल थी। तालिब ने अपनी शायरी के बलबूते पर इतना नाम कमाया कि चारों ओर उनकी चर्चा होने लगा।