Aug २८, २०१९ १२:४३ Asia/Kolkata

हमने बताया था कि फ़िलिस्तीन की सौदेबाज़ी के लिए विभिन्न प्रकार के समझौते किए गये जिनमें से एक समझौता ओस्लो था जो विफल हो गया उसके बाद 1999 में एहूद बराक के सत्ता में पहुंचने के बाद मिस्र के शहर शरमुश्शैख़ में फ़िलिस्तीनी प्रशासन और ज़ायोनी शासन के बीच वाय रीवर-2 या शरमुश्शैख़ समझौते पर हस्ताक्षर हुए।

यह समझौता भी अंत में दम तोड़ गया और अब ज़ायोनी शासन के समर्थकों ने इस्राईल का फ़िलिस्तीन में और अधिक पैर जमाने और इस्राईल तथा फ़िलिस्तीनियों में तथाकथित शांति समझौते के लिए नई साज़िश रचना शुरु कर दी है।

फ़िलिस्तीन के हालात धीरे धीरे आगे बढ़ रहे थे कि 8 फ़रवरी 2005 में मिस्र के शरमुश्शैख़ में दूसरी बैठक आयोजित हुई जिसमें तत्कालीन इस्राईली प्रधानमंत्री एरियल शारोन, स्वशासित फ़िलिस्तीनी प्रशासन के अध्यक्ष महमूद अब्बास, मिस्र के तत्कालीन राष्ट्रपति हुस्नी मुबारक और जार्डन नरेश मलिक अब्दुल्लाह ने भाग लिया। इस बैठक में शामिल लोगों ने रोड मैप के आधार पर शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने पर सहमति व्यक्त की। इसके बाद लगभग दो साल बाद दिसम्बर 2006 से सितम्बर 2008 तक एहूद ओलमर्ट और महमूद अब्बास ने 36 बार एक दूसरे से मुलाक़ात की और निचले स्तर की वार्ताएं भी आयोजित की। इसका परिणाम यह निकला कि 27 नवम्बर 2007 को अमरीकी राज्य मैरीलैंड के एनापोलिस शहर में अमरीकी नौसेना की एकेडमी में एनापोलिस बैठक आयोजित हुई जिसमें फ़िलिस्तीनी प्रशासन के नेता, ज़ायोनी शासन और अरब भाषी कुछ प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस बैठक में भी हमास के नेता उपस्थित नहीं हुए।

फ़िलिस्तीन के मुद्दे पर सबसे ज़िम्मेदार और सबसे अधिक सक्रिय अमरीकी राष्ट्रपति शायद हैरी ट्रूमैन थे जबकि इस ज़िम्मेदारी को अदा करने की सबसे महत्वपूर्ण जगह संयुक्त राष्ट्र संघ था जिसकी बैठक में फ़िलिस्तीन के विभाजन पर मतदान हुआ।

इस बैठक के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ के मुख्यालय के बाहर इस्राईल का झंडा लहरा दिया गया। जैसे ही फ़िलिस्तीन दो हिस्सों में विभाजित हुआ ज़ायोनियों ने अपनी शक्ति ज़ाहिर करने में देर नहीं की। संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद के सदस्यों ने वह चीज़ संयुक्त राष्ट्र संघ में इस्राईल के प्रतिनिधि से सुनी जिसकी उनको प्रतीक्षा थी।

लेकिन अमरीका ने चाल चली और उसने ज़ायोनियों की अपेक्षा के विपरीत अपना मोहरा चलाया।

 वास्तव में हालात सही नहीं थे, इसीलिए संयुक्त राष्ट्र संघ में इस्राईल के प्रतिनिधि मूशे शरित को अमरीका भेजा गया ताकि वह इस्राईल को आधिकारिक रूप से स्वीकार करने के बारे में अमरीका के दृष्टिकोण को बदल सकें लेकिन जार्ज मार्शल यह बात सुनने को तैयार नहीं थे। मार्शल वाइट हाऊस गये ताकि इस बारे में ट्रूमैन से बात करें, वहां उनको यह समझ में आया कि राष्ट्रपति उनके विचारों से सहमत नहीं हैं और इस्राईल के बारे में उनके अलग अलग दृष्टिकोण हैं। राष्ट्रपति के सलाहकार क्लार्क कैलीफ़ोर भी उस बैठक में मौजूद थे

बहरहाल महमूद अब्बास ने अक्तूबर 2007 के आरंभ में कहा था कि दा एनापोलिस कांफ़्रेंस के आयोजन का लक्ष्य, ग़ज़्ज़ा पट्टी और पश्चिमी तट को मिलाकर एक स्वतंत्र फ़िलिस्तीनी देश के गठन की फ़िलिस्तीनी पक्षों की इच्छा थी। महमूद अब्बास यहीं पर नहीं रुके बल्कि उन्होंने बैतुल मुक़द्दस के विभाजन, फ़िलिस्तीनी विस्थापितों और उनके वापसी के हक़, सीमाओं, ज़ायोनी बस्तियों के भविष्य, पानी और सुरक्षा जैसे फ़िलिस्तीनियों और इस्राईलों पक्षों के बीच छह महत्वपूर्ण चुनौतियों के हल पर भी बल दिया।

हमास के एक वरिष्ठ नेता महमूद अज़्ज़ेहार ने  नवम्बर 2007 की एनापोलिस कांफ़्रेंस के बारे में कहा कि यदि इस कांफ़्रेंस में हमास को भाग लेने का निमंत्रण दिया जाता तब भी इस कांफ़्रेंस में भाग लेना अर्थहीन था क्योंकि इस्राईल, फ़िलिस्तीन की धरती के अतिग्रहण को समाप्त करने के लिए तैयार ही नहीं था और न ही महमूद अब्बास सारे फ़िलिस्तीनियों के प्रतिनिधि हैं।

एनापोलिस बैठक कई दिनों तक चलती रही और अंत में कई दिन बाद बैठक की समाप्ति पर एक घोषणापत्र जारी किया गया। इस बैठक में यह तय किया गया कि 2008 के अंत तक दोनों पक्ष सांठगांठ वार्ता करके किसी स्थाई सहमति तक पहुंच जाएंगे। इस बैठक में ज़ायोनी शासन ने गोलान क्षेत्र को सीरिया का क्षेत्र माना और इस बात की तत्परता की घोषणा की कि फ़िलिस्तीन की स्वतंत्र सरकार का गठन होगा।

यहां पर यह बताना आवश्यक है कि आरंभ में ऐसा तो नहीं था किन्तु ऐसा महसूस हो रहा था कि इस प्रकार का समझौता वास्तव में फ़िलिस्तीनियों के हित में है किन्तु समय बीतने के साथ ही दोनों पक्षों के दृष्टिकोण बदलने लगे और आशाएं निराशाओं में बदल गयीं। बहुत अधिक उथल पुथल के बाद अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के काल में अप्रैल 2012 में महमूद अब्बास ने नेतनयाहू को एक पत्र लिख कर बताया कि वह वार्ता आरंभ करने में रुचि रखते हैं किन्तु इसकी शर्त यह है कि पूर्व बैतुल मुक़द्दस में ज़ायोनी बस्तियों का निर्माण बंद किया जाए और दो देश के समाधान के रूप में 1967 की सीमाओं को स्वीकार किया जाए।

नेतनयाहू ने भी महमूद अब्बास के पत्र का तुरंत ही जवाब दिया। उन्होंने एक सप्ताह से कम समय में महमूद अब्बास के पत्र का जवाब दिया। उन्होंने पहली बार आधिकारिक रूप से इस बात को स्वीकार किया कि फ़िलिस्तीनियों को भी इस बात का पूरा पूरा हक़ है कि उनके पास भी एक स्वतंत्र देश हो। उनका बयान केवल शब्दों तक ही सीमित रहा और उन्होंने कोई भी व्यवहारिक क़दम नहीं उठाया। इस प्रकार से समस्त योजनाएं और साज़िशें, ज़ायोनी शासन के विस्तारवाद और वाशिंग्टन द्वारा उसके समर्थन के कारण विफलता का शिकार हो गयीं।

फ़िलिस्तीन के मामले में ईरान के प्रसिद्ध विशेषज्ञ सादुल्लाह ज़ारेई हर योजनाओं की विफलता के बारे में कहते हैं कि यदि फ़िलिस्तीन और अरबी पक्षों तथा फ़िलिस्तीन के बारे में अरब पक्षों की ओर पेश किए गये विषयों पर नज़र डालें तो हमें पता चलता है कि यह सारी योजनाएं इस्राईल की मज़बूती और फ़िलिस्तीन की तबाही के लिए पेश की गयीं हैं। या दूसरे शब्दों में यह कहें कि जितनी भी योजनाएं पेश की गयी हैं सबके सब इस्राईल को बाक़ी रखने और फ़िलिस्तीन को राजनैतिक मोर्चे से हटाने के लिए पेश की गयी थीं और इनमें से हर एक को विफलता का मुंह देखना पड़ा।

प्रसिद्ध ईरानी विशेषज्ञ सादुल्लाह ज़ारेई कहते हैं कि सारी योजनाओं की विफलता के दो कारण हैं। पहला कारण यह है कि एक राष्ट्र जो लगभग एक करोड़ पचास लाख लोगों पर आधारित है उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती, अर्थात फ़िलिस्तीनियों की संख्या लगभग एक करोड़ पंद्रह लाख की आबादी तक पहुंच रही है, यह एक अटल सच्चाई है और एक पचास या साठ लाख यहूदी, उनकी अनदेखी नहीं कर सकते।

दूसरा कारण यह है कि क्षेत्रीय स्तर पर यदि कोई षड्यंत्र होता है तो उसके मुक़ाबले में एक मज़बूत प्रतिरोध भी है और मज़बूत प्रतिरोध के होने की वजह से कोई ऐसी योजना थोपी नहीं जा सकती जो क्षेत्रीय वास्तविकताओं का इन्कार करे। वर्ष 2016 में अमरीका में राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प के चयन के बाद इस बार षड्यंत्र को नये स्वरूप में पेश किया गया जिसे डील आफ़ सेन्चुरी का नाम दिया गया।

रोचक बात यह है कि डोनल्ड ट्रम्प ने अपने यहूदी दामाद को इस योजना को लागू करने की ज़िम्मेदारी दी है।  जेरेड कुश्नर ने पिछले दो वर्षों के दौरान मध्यपूर्व विशेषकर फ़िलिस्तीन- इस्राईल तनाव पर अपना ध्यान केन्द्रित कर रखा। कूश्नर फ़िलिस्तीन-इस्राईल तनाव के लिए डील आफ़ सेन्चुरी योजना पर काम कर रहे हैं और इसे लागू करना चाहते हैं किन्तु दो साल गुज़रने के बावजूद अब तक इसके लागू होने की आधिकारिक घोषणा नहीं कर सके हैं।

योजना का एलान तो नहीं किया गया लेकिन इसके बारे में जानकारियां जान बूझ कर लीक की गईं ताकि प्रतिक्रियाओं का अंदाज़ा लगाया जा सके। एक जानकारी यह लीक होकर आई कि इस योजना के तहत बैतुल मुक़द्दस को हमेशा के लिए इस्राईल की राजधानी बना दिया जाएगा और अमरीका ने बाक़ायदा इसका एलान भी कर दिया और अपना दूतावास तेल अबीब से बैतुल मुक़द्दस स्थानान्तरित कर दिया।

बहरहाल फ़िलिस्तीन के मुद्दे के बारे में इस्लामी गणतंत्र ईरान ने बारम्बार कहा है कि फ़िलिस्तीन की जनता की इच्छा के अनुसार ही फ़िलिस्तीन के मुद्दे का समाधान किया जाएगा (AK)     

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