Oct १२, २०१९ १७:३९ Asia/Kolkata

हमने आपको बताया था कि बराक ओबामा के शासन काल में भी फ़िलिस्तीनी - ज़ायोनी विवाद, एक महत्वपूर्ण चुनौती के रूप में अमरीका की विदेश नीति में यथावत बाक़ी रहा।

बराक ओबामा के पूर्ववर्तियों ने भी फ़िलिस्तीनियों और ज़ायोनियों के बीच तथाकथित शांति के बहुत अधिक प्रयास किए किन्तु इससे न केवल उनके बीच मतभेदों में कमी नहीं हुई बल्कि मतभेद और भी गहरे हो गये।

फ़िलिस्तीनी-ज़ायोनी विवाद के गहराने के बाद अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा और उनके मंत्रीमंडल ने ज़ायोनी बस्तियों के निर्माण का विरोध शुरु कर दिया किन्तु ज़ायोनी प्रधानमंत्री बिनयामीन नेतेनयाहू ने बस्तियों के निर्माण को रोकने के अपने वादे के पालन से इनकार कर दिया।

यहां पर हमें अमरीका और ज़ायोनी शासन के बीच विदित रूप से मतभेद गहराते नज़र आ रहे थे और बराक ओबामा ने एक क़दम आगे बढ़ाते हुए विदेशमंत्रालय में अपने महत्वपूर्ण भाषण में 1967 से पहले की सीमाओं के अनुसार फ़िलिस्तीनी देश के गठन के समर्थन की घोषणा कर दी। अभी उनके बयान को जारी हुए अधिक समय नहीं बीता था कि नेतेनयाहू ने एक बयान जारी करके इस्राईल के प्रति अमरीकी सरकार के वचनों को याद दिलाया और उक्त सीमाओं के अनुसार वार्ता आरंभ करने के लिए ओबामा की नीतियों को रद्द कर दिया।

अमरीका और इस्राईल के बीच विदित रूप से गहराते मतभेद पर मरहम रखने के लिए ओबामा ने आख़िरकार इस्राईल का दौरा किया और उसके बाद सारी अतीत की बातों को भुला दिया गया और दो पुराने दोस्त एक बार फिर एक हो गये।

फ़िलिस्तीन के इतने अधिक समर्थन का दावा करने वाले बाराक ओबामा ने अपने दृष्टिकोण से पलटी मारते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ, यूनेस्को और अंतर्राष्ट्रीय कोर्ट जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं में फ़िलिस्तीन की सदस्यता के विषय का विरोध करते हुए इस्राईल के प्रति अपनी वफ़ादारी का एक बार फिर सबूत पेश किया।

अमरीकी राष्ट्रपी बाराक ओबामा ने अपने राष्ट्रपति काल के अंतिम दो वर्षों में फ़िलिस्तीनियों और ज़ायोनियों के बीच संकट को समाप्त करने और दोनो पक्षों को वार्ता की मेज़ पर लाने का बहुत प्रयास किया और उन्होंने फ़िलिस्तीन के मुद्दे को ज़ायोनी शासन के साथ अरब देशों के संबंधों के संकट के रूप में पेश किया। इसीलिए उन्होंने ज़ायोनी शासन के साथ अरब देशों के संबंधों को सामान्य बनाने के सुझाव पेश किए जो वाशिंग्टन की नज़र में यह प्रक्रिया ज़ायोनी-फ़िलिस्तीनी शांति के परिणाम के रूप में सामने आएगी।

 

अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जो योजना पेश की थी उसमें पूर्वी बैतुल मुक़द्दस के कुछ क्षेत्रों को अवैध अधिकृत फ़िलिस्तीन में शामिल करना और बैतुलमुक़द्दस शहर में बाक़ी इस्लामी स्थलों पर अरबों को अधिकार देता शामेल था। यद्यपि बाराक ओबामा ने इस एकपक्षीय योजना को लागू करने के लिए अरब देशों के प्रमुखों से वार्ताएं भी कीं किन्तु ज़ायोनियों द्वारा बस्तियों के जारी निर्माण और ओबामा से नेतेनयाहू के ठंडे संबंधों के कारण यह योजना भी बुरी तरह विफल हो गयी।

यहां पर एक बात बताना आवश्यक है कि यदि हम ज़ायोनी – फ़िलिस्तीनी विवाद और इस विवाद की मुख्य वजह पर नज़र डालते हैं तो हमारे लिए सब स्पष्ट हो जाता है। इतिहास पर नज़र डालने से पता चलता है कि अमरीका के तत्कालीन ट्रूमैन और उनके सलाहकार जार्ज मार्शल के बीच इस्राईल के गठन पर काफ़ी मतभेद था। बात यहीं पर नहीं रुकी और इस्राईल का गठन हो गया।

वास्तव में यह कहा जा सकता है कि ज़ायोनी शासन के विस्तारवाद और इस शासन को इस बात का विश्वास कि अमरीका उसका हमेशा समर्थन करता रहेगा, इन्हीं कारणों से अतीत की योजनाएं और सुझाव भी विफल रहे हैं।

पश्चिमी एशिया के मामलों के ईरानी टीकाकार मसऊद असदुल्लाही का कहना है कि फ़िलिस्तीनियों के संबंध में ज़ायोनी शासन की अतिक्रमणकारी नीतियां और योजनाएं कभी भी समाप्त नहीं होती और इसका मुख्य कारण अमरीका का व्यापक समर्थन और अरब सरकारों का धीरे धीरे एक एक क़दम पीछे हटना है। या दूसरे शब्दों में यूं कहा जाए कि इस्राईल, अमरीका के निरंतर समर्थन और अरब देशों के पीछे हटने की वजह से दुस्साहसी हो गया है और उसने फ़िलिस्तीन में अपनी विस्तारवादी नीतियों को बढ़ाया और सांठगांठ करने वाले अरब देश, जनता का समर्थन न होने की वजह से फ़िलिस्तीन में इस्राईल की शत्रुतापूर्ण नीतियों का साहस नहीं जुटा पाए।

बराक ओबामा ने अपने आठ साल के राष्ट्रपति काल में फ़िलिस्तीनी मुद्दे के समाधान के लिए प्रयासों का दिखावा तो बहुत किया किन्तु उन्होंने अपने राष्ट्रपति काल के दौरान ज़ायोनी शासन के विरुद्ध कोई भी प्रस्ताव पारित नहीं होने दिया और इस लेहाज़ से रिकार्ड दर्ज कर लिया। अलबत्ता बराक ओबामा ने अपने राष्ट्रपति काल के अंतिम दिनों में ज़ायोनी बस्तियों के निर्माण को रोकने के बारे में सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव क्रमांक 2234 पर होने वाले मतदान में भाग नहीं लिया।

बहुत से टीकाकारों ने ओबामा की इस कार्यवाही को राजनैतिक ड्रामा क़रार दिया क्योंकि उन्होंने अपने राष्ट्रपति काल के अंतिम तेल अवीव की जमकर वित्तीय, राजनैतिक व सामाजिक सहायता की है। ओबामा वाइट हाऊस से रुख़सत हो गये और वर्ष 2016 में अमरीका को डोनल्ड ट्रम्प के रूप में नया राष्ट्रपति मिला जिससे वाशिंग्टन द्वारा ज़ायोनी शासन के समर्थन का क्रम जारी रहा बल्कि यूं कहा जाए कि इस समर्थन ने नया आयाम अपना लिया।

अमरीका का कोई भी राष्ट्रपति ऐसा नहीं था जिसने ज़ायोनी शासन और उसके गठन का समर्थन न किया हो, जी हां समर्थन तो सबने किया लेकिन फ़र्क यह है कि किसी ने बहुत ज़्यादा और किसी ने बहुत कम।

 

मुसलमानों के मुक़ाबले में ट्रम्प प्रशासन की इस्लाम विरोधी नीतियों के कारण वाशिंग्टन प्रशासन और जैसन ग्रीन ब्लाट और जेयर्ड कुश्नर जैसे ट्रम्प की सलाहकार टीम ने अपने हितों को साधते हुए फिलिस्तीन के मुद्दे के बारे में कट्टरपंथी दृष्टिकोण अपनाया। दूसरी ओर वास्तव में यदि देखा जाए तो आक्रमक और हमलावर बर्ताव के बजाए अमरीका और ज़ायोनी शासन ने बहुत ही मिलाजुला रवैया अपनाया ताकि किसी को भनक तक न लगे कि यह काम पूर्ण समन्वय से किया जा रहा है। इसका उदाहरण यह है कि अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प ने अभूतपूर्व कार्यवाही करते हुए अपने दूतावास को तेल अवीव से बैतुल मुक़द्दस स्थानांतरित कर दिया। अमरीका के इस क़दम पर इस्लामी जगत और दुनिया से कड़ी प्रतिक्रियाएं सामने आईं।

फ़िलिस्तीन के एक सक्रिय कार्यकर्ता अदनान हुसैनी, फ़िलिस्तीनियों और मुसलमानों के विरुद्ध ट्रम्प की नीतियों के बारे में कहते हैं कि ट्रम्प ने अपना दूतावास तेल अवीव से बैतुल मुक़द्दस स्थानांतरित करके खुलकर और अभूतपूर्व ढंग से इस्लामी और अरब जगत के विरुद्ध युद्ध का एलान कर दिया है।  

उनका कहना था कि अमरीका मे अब तक 42 राष्ट्रपति गुज़रे हैं किन्तु किसी ने भी इस प्रकार का फ़ैसला नहीं लिया। इसीलिए यह कहा जा सकता है कि ट्रम्प का यह फ़ैसला, उनके राजनैतिक अज्ञान, अनाड़ीपन और मूर्खता का चिन्ह है।

ट्रम्प प्रशासन में ज़ायोनी लाबी के प्रभाव तथा ज़ायोनिज़्म आंदोलन की ओर उनकी पार्टी, उनके परिवार और उनके निकट संबंधियों के रुझान के अतिरिक्त आर्थिक संबंधों और गहरे रणनैतिक तथा आइडियालाजिक निर्भरता ने ट्रम्प में ज़ायोनी शासन के प्रति समर्थन की ज्योति जगा दी है और यही कारण है कि फ़िलिस्तीनी-ज़ायोनी विवाद को हल करना,फ़िलिस्तीन और इस्लामी जगत के हितों के लिए नहीं बल्कि अमरीका के व्यापारिक और आर्थिक हितों को प्राप्त करने और अवैध ज़ायोनी शासन को बाक़ी रखने की परिधि में है।

जैसा कि सभी को पता है कि फ़िलिस्तीनी प्रशासन पिछले कई वर्षों से सांठगांठ वार्ता के षड्यंत्र में आकर कई बार ट्रम्प प्रशासन के अपमानजनक रवैयों को सहन कर चुका है। हमास की राजनैतिक शाखा के प्रमुख इस्माईल हनिया ने ग़ज़्ज़ा की जनता के मध्य अपने संबोधन में कहा था कि हमें यह सूचना मिली है कि अमरीकी सरकार, फ़िलिस्तीनी वर्ताकारों और अधिकारियों से कैसा बर्ताव करती है, वास्तव में इस्राईली इच्छाएं, अमरीकी बयानों और भाषा की परिधि में फ़िलिस्तीनी वार्ताकारों के हवाले की जाती हैं। हालात अब यहां तक पहुंच गये हैं कि अमरीका ने फ़िलिस्तीनी प्रशासन को मजबूर कर दिया है कि वह फ़िलिस्तीनी क़ैदियों और शहीदों के परिजनों की सहायता नहीं करेगा।

 

आजकल एक महत्वपूर्ण मुद्दा जो हमारे सामने है वह फ़िलिस्तीनी मुद्दे को भुला देने की साज़िश है, वे इस मुद्दे को इस्लामी जगत के मंच से हटा देना चाहते हैं, वे तथाकथित शांति वार्ता करके फ़िलिस्तीन के विषय को  भुला देना चाहते हैं। उनका कहना था कि यह फ़िलिस्तीनियों के साथ विश्वासघात है, जो लोग भी कर रहे हैं वे फ़िलिस्तीनियों के साथ धोखा और विश्वासघात कर रहे हैं। (रहबर)

इस कार्यवाही से समस्त यहूदियों के लिए एक स्वतंत्र देश का रास्ता खुल जाएगा। यह कार्यवाही यहूदियों को अधिकारी और विशिष्टिताएं देता है और विश्व समुदाय में सदस्यता का अधिकार प्रदान करती है। हम अपने स्वभाविक और एतिहासिक अधिकारों के आधार पर इस्राईली यहूदियों की धरती पर यहूदी सरकार के गठन के घोषणा करता हूं। इस्राईली प्रतिनिधि मेरी सरकार को इस बात की सूचना मिल गयी है कि फ़िलिस्तीन में एक यहूदी सरकार ने अपने अस्तित्व की घोषणा की है और उसके द्वारा और उससे जुड़ी संस्थाओं द्वारा हमसे आधिकारिक रूप से उसे स्वीकार करने की अपील की गयी है, अमरीकी सरकार अंतिम सरकार को अनाधिकारिक रूप से इस्राईल की नई सरकार के रूप में आधिकारिक रूप से स्वीकार करती है। (AK)   

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