ईरान की सांस्कृति धरोहर-11
ईरानियों में कला के प्रति विशेष लगाव पाया जाता है।
यहां पर पाई जाने वाली कुछ कलाएं पूरे संसार में प्रचलित हैं। इन प्रचलित कलाओं में एक मोअर्रक़कारी भी है जो ईरान से विशेष है। शोध बताते हैं कि मोअर्रक़कारी नामक कला पूरे विश्व में ईरान से ही गई है।
मोअर्रक़ का शाब्दिक अर्थ होता है अपने दृष्टिगत किसी आकार को लकड़ी के छोटे-छोटे विभिन्न रंगारंग टुकड़ों से बनाना। इस कार्य के लिए लकड़ी के छोटे-छोटे टुकड़ों को एक के पास एक, करके जोड़ते हैं। इस प्रकार से वह वस्तु बनाई जाती है जो बनाने वाले के दृष्टिगत होती है। इस कार्य के लिए लकड़ी के अतिरिक्त कांच, पत्थर, दफ़्ती, धातु, चमड़े, सीपी या इसी प्रकार की वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार मोअर्रक़ कला में लकड़ी के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं का भी प्रयोग किया जाता है।
कुछ लोगो का यह मानना है कि काशी उद्योग के पतन के समय मोअर्क़ कला ने विकास किया किंतु इस बारे में एक दृष्टिकोण यह भी पाया जाता है कि मोअर्क़ कला का संबन्ध, काशीकारी से बिल्कुल नहीं है क्योंकि इसमें सामान्यतः लकड़ी के छोटे-छोटे टुकड़ों का प्रयोग किया जाता है।
दक्षिण पूर्व ईरान में की जाने वाली खुदाई के दौरान मोअर्रक़ कला का अति प्राचीन नमूना मिला है। इसका संबन्ध ईसा पूर्व 5 शताब्दियों से है। बड़े आश्चर्य की बात है कि लकड़ी के छोटे टुकड़ों से बनी हुई यह कलाकृति किस प्रकार इतने लंबे समय तक सुरक्षित रही। इस कलाकृति पर किये गए शोध से पता चलता है कि इसपर किया जाने वाला काम पूर्ण रूप से ईरानी है। इस प्रकार इस दृष्टिकोण की पुष्टि होती है कि मोअर्रक़ नामक कला का जन्म ईरान में हुआ और बाद में वह ईरान से विश्व के अन्य क्षेत्रों तक पहुंची।
वर्तमान समय में मोअर्रक़ कला की आधुनिक कलाकृति का संबन्ध 1994 से है। इसे उस्ताद अहमद राना ने बनाया है। इस कलाकृति में दो घुड़सवारों को दिखाया गया है।
मोअर्रक़ कला की एक अन्य कलाकृति क़ाजारिया काल से संबन्धित है। यह वास्तव में एक दरवाज़ा है जो इस समय राजधानी तेहरान में शिक्षा मंत्रालय के परिसर के पश्चिमी छोर में रखा हुआ है। मोअर्रक़ कला से बना यह दरवाजा लगभग साढ़े चार मीटर लंबा और साढे तीन मीटर चौड़ा है। इसके ऊपरी भाग पर शीशेकारी की गई है। वास्तव में कला प्रेमियों के लिए यह बहुत उचित धरोहर है।
जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि मोअर्रक़कारी में अधिकांश लकड़ी के छोटे-छोटे टुकड़ों का प्रयोग किया जाता है किंतु मोअर्रक़कारी केवल लकड़ी से ही विशेष नहीं है बल्कि इस कला में लकड़ी के अतिरिक्त कांच, पत्थर, दफ़्ती, धातु, चमड़े, और सीपी आदि का प्रयोग किया जाता है। मोअर्रक़कारी में धातुओं के अन्तर्गत सोने, चांदी, तांबे और सीसे आदि का भी प्रयोग किया जाता है। इस कला में कहीं-कहीं पर हड्डियों और हाथी के दातों का भी प्रयोग मिलता है।
इस कला का प्रयोग मेज़, कुर्सी, फ़्रेम, घड़ी के किनारों, अल्मारियों और सजाने वाले डिब्बों आदि पर किया जाता है। मोअर्रक़कारी में लकड़ियों को विभिन्न आकारों में पहले काटा जाता है और फिर उनको अलग-अलग रंगों से रंगकर अपने दृष्टिगत वस्तुओं को बनाते हैं। इसका उद्देश्य, वस्तुओं को अधिक से अधिक सुन्दर रूप देना है ताकि देखने वाले को अच्छा लगे।
जिस प्रकार से अन्य कलाओं में समय के साथ-साथ परिवर्तन हुए हैं उसी प्रकार से मोअर्रक़कारी में भी परिवर्तन देखने में आए हैं।
ईरान के कुर्दिस्तान, आज़रबाइजान और केरमानशाह क्षेत्रों में सूक्ष्म मोअर्रक़कारी का अधिक चलन है। इन क्षेत्रों में फ़्रेम और छोटे डिब्बों पर बड़ी ही सूक्ष्मता से मोअर्रक़कारी देखने को मिलती है। यहां पर प्रचलित मोअर्रक़कारी में सामान्यतः चौकोर, तिकोने या आयताकार शैली में डिज़ाइन बनाए जाते हैं। कलाकार/ चौकोर, तिकोने और आयताकार टुकड़े काटकर विभिन्न शैलियों में उन्हें एक-दूसरे से जोड़ते हैं। इस शैली में बनाई गई चीज़ों में टुकड़ों के इर्दगिर्द या उस स्थान पर जहां जोड़ होता है रंग भरा जाता है जो देखने में बहुत सुन्दर लगता है।
मोअर्रक़कारी में जिन टुकड़ों का प्रयोग किया जाता है उनकी मोटाई तीन सेंटीमीटर से कम होती है। यही कारण है कि उनको नाज़ुककारी या सूक्ष्म कार्य भी कहा जाता है। मोअर्रक़कारी में अपने दृष्टिगत वस्तु बनाते समय छोटे-छोटे टुकड़ों को एक-दूसरे से मिलाने या चिपकाने में बहुत ही सावधानी से काम लिया जाता है। इस प्रकार से जहां बनाई गई मोअर्रक़कारी की गुणवत्ता अच्छी रहती है वहीं पर देखने में भी बहुत सुन्दर प्रतीत होती है।
हमने आपको बताया कि मोअरर्क़कारी में वैसे तो विभिन्न प्रकार के पदार्थ और वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है किंतु वास्तविकता यह है कि मूल रूप से इसमें लकड़ी का ही प्रयोग होता है। इस कला में बड़ी दक्षता के साथ लकड़ी के छोटे-छोटे टुकड़ों को आपस में चिपकाया जाता है जिनकी मोटाई सामान्यतः दो से तीन सेंटीमीटर होती है।
मोअर्रक़कारी में दो बिंदुओं पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है। पहला बिंदु यह है कि प्रयोग की जाने वाली लकड़ी एसी हो जिसे इच्छानुसार आकार दिया जा सके। दूसरा बिंदु यह है कि लकड़ी रंगदार हो। मोअर्रक़कारी में रंगीन लकड़ी का ही प्रयोग किया जाता है जैसे अख़रोट की लकड़ी जो कत्थई रंग की होती है या शहतूत और ओनाब की लकड़ी जो पीले और लाल रंग की होती है। कुछ लकड़ियां एसी होती है जो दोरंगी भी होती है और उनको मोअर्रक़कारी में प्रयोग किया जा सकता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि मोअर्रक़कारी के लिए लकड़ियों के चयन को विशेष महत्व प्राप्त है। जिस लकड़ी को सरलता से छीलकर अपने दृष्टिगत रूप में दिया जा सके उसे अधिक महत्व प्राप्त होता है।