ईरान की सांस्कृतिक धरोहर-16
हमने बताया था कि पुरातन अवशेषों की समीक्षा और विभिन्न प्रकार की धातुओं वाली वस्तुएं मिलने के आधार पर इतिहास के काल को धातु की वस्तुएं बनाने में विकास का काल कहा जा सकता है।
धातुओं की वस्तु बनाने के उद्योग में, जैसा कि उसके नाम से ही पता चल जाता है, अन्य तत्वों से एक धातु को अलग करके उससे विभिन्न वस्तुएं बनाई जाती हैं। इस उद्योग में, वस्तुओं पर बारीकी से चित्र उकेरने के अलावा धातुओं का टिकाऊ होना भी बहुत महत्व रखता है। इसी कारण एक धातु की मज़बूती को बढ़ाने के लिए अधिकतर अन्य धातुओं का भी प्रयोग किया जाता है।
स्पष्ट सी बात है कि मनुष्य केवल उसी भूभाग में धातुओं की उपयोगिता को समझ सकता था जहां विभिन्न प्रकार की धातुएं और उनकी खदानें मौजूद रही हों। ईरान प्राकृतिक दृष्टि से विभिन्न प्रकार की धातुओं और खनिजों के बड़े बड़े स्रोतों का स्वामी है। ईरान व तुर्की के सीमावर्ती क्षेत्रों से लेकर उत्तरी ईरान में माज़ंदरान सागर के दक्षिणी तटों तक जो पर्वत श्रृंखलाएं हैं उनमें विभिन्न प्रकार की धातुएं, खनिज और ईंधन पाए जाते थे। धातुओं के काम का ज्ञान इसी क्षेत्र से एशिया, अफ़्रीक़ा व यूरोप के अन्य इलाक़ों तक फैला है। ईरान के उत्तर में भी पर्वतों के भीतर पीतल की खदानें मौजूद हैं। चौथी शताब्दी हिजरी के प्रख्यात अरब भूगोलशास्त्री इब्ने हौक़ल ने पूर्वोत्तरी ईरान और ख़ुरासान में तांबे की खदानों का उल्लेख किया है जो ईरान में सुंदर एवं मूल्यवान वस्तुओं का स्रोत थीं और हस्तकला उद्योग का इतिहास उन्हें बड़े गर्व से याद करता है। इसी प्रकार काशान, अनारक, इस्फ़हान और बुख़ारा की तांबे की खदानें, आरंभिक हिजरी क़मरी शताब्दियों में मुस्लिम शासकों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण थीं और इनसे उन्हें काफ़ी लगान मिला करता था।
तांबे और टिन की मिश्रित धातु कांसे से विभिन्न उपकरण और मूर्तियां बनाई जाती हैं। कांसा उन सबसे पुरानी मिश्र धातुओं में से एक है जिसे मनुष्य ने पहचाना और तैयार किया है क्योंकि तांबे की खदानों में प्रायः यह धातु, टिन के साथ एक प्राकृतिक धातु के रूप में मौजूद होती है। यही कारण है कि मनुष्य के हाथों बनाए गए सबसे पहले औज़ार और उपकरण, कांसे के ही हैं। पुरातन अवशेषों की खोज के लिए की गई खुदाइयों से पता चलता है कि सात हज़ार वर्ष पहले ईरान में रहने वाले लोग, कांसे की मिश्र धातु से अवगत थे और उसे धातु की वस्तुएं बनाने में प्रयोग किया करते थे। यहां यह बात भी उल्लेखनीय है कि संसार के अन्य स्थानों पर खुदाइयों में मिलने वाली कांसे की वस्तुएं भी लगभग इसी काल की हैं। अतः कहा जा सकता है कि संसार में कांसे का प्रयोग लगभग सात हज़ार वर्ष पहले शुरू हुआ है। कांसा, लाल, हल्के लाल और नारंजी रंग का होता है और तांबे से पहले पिघलता है।
ईरान में तांबे के उद्योग के क्षेत्र में लुरिस्तान का नाम प्रख्यात है। लुरिस्तान, ईरान की पश्चिमी पट्टी के केंद्र में स्थित है और यहां असंख्य बारीक घाटियां व ऊंचे-2 पर्वत पाए जाते हैं। साक्ष्यों के अनुसार लुरिस्तान में चौथी सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व में धातु का काम किया जाता था। इस स्थान से मिलने वाली धातु की वस्तुओं पर पिछली शताब्दी के उत्तरार्ध से पुरातन विशेषज्ञों ने ध्यान देना आरंभ किया और इस समय संसार के अधिकांश बड़े संग्रहालयों में ये वस्तुएं मौजूद हैं।
लगभग 1930 के बाद से धातु की बनी सुंदर वस्तुएं बड़ी संख्या में संसार में दुर्लभ वस्तुओं के विक्रेताओं के पास पहुंचने लगीं जिन्हें ग़ैर क़ानूनी ढंग से खुदाई करने वाले और दुर्लभ वस्तुओं के तस्कर वहां पहुंचाते थे। ये लोग समझ चुके थे कि जिन मक़बरों के चारों ओर की ज़मीन को बड़े सटीक अंदाज़ में पत्थर रख कर फ़र्श की भांति बनाया गया है, उस ज़मीन में वे आभूषण और उपहार दबे हुए हैं जिन्हें प्राचीन काल में मुर्दों के साथ गाड़ दिया जाता था। इन वस्तुओं के डिज़ाइन और इनके संबंध में प्रयोग होने वाली कला इतनी सुंदर एवं मनमोहक थी कि विशेषज्ञ आश्चर्यचकित रह गए। इनमें से कुछ वस्तुओं पर आशूरी भाषा में कुछ शब्द लिखे हैं जिनसे इनके बनाए जाने की तारीख़ पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है। इनमें से कुछ वस्तुएं, बारहवीं और दसवीं शताब्दी ईसा पूर्व की हैं किंतु अधिकांश का संबंध आठवीं और सातवीं शताब्दी ईसा पूर्व से है।
विशेषज्ञों का कहना है कि लुरिस्तान में कांसे की वस्तुओं की कला, उन साधारण कार्यों का परिणाम है जो एक खेतीहर एवं योद्ध राष्ट्र की कई शताब्दियों तक जारी रहने वाली भौतिक क्रांति के परिचायक हैं। लुरिस्तान में कांसे के काम की कला का महत्व, पैतृक कलाओं व परंपराओं के स्थानांतरण और इसी प्रकार संयुक्त धार्मिक विषयों व क़ानूनों के अगले पीढ़ियों तक पहुंचने में निहित है। ये कलाएं और क़ानून प्राचीन काल की उन सभी जातियों में प्रचलित रहे हैं जो खेती-बाड़ी करती थीं, जानवरों की सवारी करती हैं और लड़ाई में दक्ष में थीं। ज़ागरुस के प्रवीण कलाकारों के जो असंख्य अवशेष व औज़ार बचे हैं उनमें ख़ंजर, तलवार और गदा जैसे हथियार, सवारी में काम आने वाले औज़ार, सजावट की वस्तुएं और बर्तन तथ स्वागत-सत्कार की चीजें शामिल हैं। इन अवशेषों पर काल्पनिक पशुओं, मनुष्य के चेहरे व पशु के शरीर वाले जीव, शिकार और इसी प्रकार के विषयों के चित्र बने हुए हैं।
वास्तविकता यह है कि प्राचीन संसार की भौतिक संस्कृति में लुरिस्तान के कांसे की वस्तुओं जैसी चीज़ें मिलना, जिनमें इतने जटिल व विकसित डिज़ाइन बने हों, बहुत मुश्किल है। इन वस्तुओं पर विभिन्न सभ्यताओं के प्रभावों को भी देखा जा सकता है। इसी प्रकार काशान के निकट सियल्क के टीलों की खुदाई के दौरान मिलने वाले अवशेषों पर जो डिज़ाइन व चेहरे बने हैं, उन्हें भी लुरिस्तान की कांसे की प्राचीन वस्तुओं पर भली भांति देखा जा सकता है। लुरिस्तान के कलाकार, कांसे के काम में निपुण थे और ऐसा प्रतीत होता है कि उनके द्वारा बनाई गई बहुत सारी वस्तुएं मोम के सांचे में ढाल कर बनाई गई हैं। ये वस्तुएं, कला की बारीकियों को प्रकट करने और सुंदरता में ऐसी हैं कि इन्हें केवल सांचे में ढाल कर ही बनाया जा सकता है। लुरिस्तान के कांसे ने, ईरान व संसार में धातु पर काम की कला की वैभवता को स्वयं से विशेष कर लिया है।
तीसरी शताब्दी ईसवी में कोकोयाओ की डायरी में लिखा गया है कि सासानियों के काल में चीन, ईरान से इस्पात का आयात किया करता था। इसमें ईरान से आने वाले इस्पात के लहरदार होने का विशेष रूप से उल्लेख है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि ईरान से जो इस्पात चीन जाता था वह लहरदार होता था। इसी बात ने चीन के प्राचीन मामलों के अंग्रेज़ विशेषज्ञ जोज़ेफ़ नीढम के इस शक को विश्वास में बदल दिया कि धातुओं को लहरदार बनाने की कला, ईरान में शुरू हुई। यही ईरानी इस्पात जिसका, रोमियों ने बहुत अधिक उल्लेख किया है, गुणवत्ता की दृष्टि से भारत के इस्पात के स्तर का था।
तीसरी सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व में मेसोपोटामिया और लघु एशिया में लोहा पहचाना जा चुका था किंतु उसके अत्यधिक कठोर होने और देर में पिघलने के कारण, धातु की कला में क्रांति नहीं आ सकी किंतु उसके बाद से मनुष्य ने वस्तुओं और औज़ारों की तैयारी में लोहे का भी प्रयोग शुरू किया और धातु उद्योग एक नए चरण में पहुंच गया। ईरान में लोहे का प्रयोग करने वाले धातु के प्रमुख केंद्र आज़रबाइजान, किरमान और लुरिस्तान थे। सासानी काल को ईरान में धातु की कला सहित हस्तकला के चरम का काल समझा जा सकता है। इस काल में औज़ारों और सजावट की वस्तुओं की तैयारी में लोहे समेत विभिन्न धातुओं का प्रयोग किया जाता था। अलबत्ता इनमें से कुछ वस्तुएं, उत्तरी भारत, पोलेंड, मध्य एशिया और रूस में भी मिली हैं जिनसे उस काल में धातुओं के व्यापार और लेन-देन का पता चलता है।
उत्तरी ईरान के गीलान प्रांत की गौहर रूद घाटी और सफ़ीद रूद के तटों पर एक प्राचीन स्थान पर मारलीक के टीले स्थित हैं। इन टीलों के आस-पास लगभग तीन हज़ार साल पुरानी सभ्यता के अवशेष मिले हैं और पुरातनविदों का मानना है कि ये टीले इस सभ्यता के शासकों और राजकुमारों के मक़बरे थे। 1960 के दशक तक ये टीले अज्ञात थे, यहां तक कि डाक्टर इज़्ज़तुल्लाह निगहबान के नेतृत्व में पुरातन विशेषज्ञों की एक टीम ने इस क्षेत्र में खुदाई आरंभ की। इस घाटी में अनेक टीले हैं जिनमें मारलीक और चार अन्य टीले सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं। इन टीलों में 25 मक़बरे हैं और उनमें से कुछ में हड्डियां भी मिली हैं। सभी मक़बरों में मिट्टी के बर्तन, सजावट के बटन, गदा व तीर के फल, चीनी मिट्टी, सोने, चांदी और कांसे के ग्लास, ख़ंजर, तलवार, कांसे व मिट्टी की मूर्तियां, भाले के फल और युद्ध में पहनी जाने वाली लोहे की टोपी और इसी प्रकार की चीज़ें मिली हैं।
इस संस्कृति के लोगों के लिए सूरज बहुत महत्वपूर्ण था और बहुत सारे ग्लासों और बर्तनों में सूरज के चित्र बने हुए हैं। इन टीलों से मिलने वाले अवशेष विशेष कर कांसे के बर्तन, काशान के सियल्क टीले से मिलने वाले अवशेषों से बहुत मिलते जुलते हैं। इन टीलों से मिलने वाले बर्तनों में सबसे मशहूर जामे मारलीक है जो शुद्ध सोने का बना हुआ है और उसकी लम्बाई 18 सेंटी मीटर है। इस जाम पर उकेर कर बनाए गए चित्रों की ऊंचाई दो सेंटी मीटर तक है। जाम के बीच में जो चित्र बना है वह जीवन के पेड़ का है जिसके दोनों ओर परों वाली दो गायें हैं जो पेड़ पर चढ़ रही हैं। इस जाम के चित्रों की ईरानी पहचान, जानवरों के शरीर को साइड से और उनके सिरों को सामने से दिखाने से स्पष्ट हो जाती है। इस जाम के तले में एक फूल बनाया गया है जिसके बीच में सूरज किरणें बिखेर रहा है।