May ०१, २०१६ १३:३३ Asia/Kolkata

ज़री निर्माण ईरान की पारम्परिक कलाओं में शामिल है और इसका बड़ा महत्व रहा है।

ज़री, महान हस्तियों की क़ब्रों पर रखी जाती है। यह ईरान में कला, धर्म और जीवन के आपसी रिश्ते का नमूना है। इस्लाम में ज़ियारत और उपासना के स्थलों को भौतिक वैभव की दृष्टि से नहीं देखा जाता बल्कि इन स्थलों को इस लिए सजाया जाता है कि वहां दफ़्न हस्तियों के प्रति श्रद्धा अप्रित की जाए और दर्शनार्थियों को सुविधा रहे। यही कारण है कि इन ज़ियारतगाहों के मुतवल्लियों तथा अन्य श्रद्धालुओं ने हमेशा इन स्थानों के विस्तार और निर्माण कार्य पर विशेष रूप से ध्यान दिया है। मुसलमानों की यह आस्था है कि महापुरुषों की ज़ियारतगाहों पर एकत्रित होने वाले दर्शनार्थियों के लिए आध्यात्मिक एवं भौतिक सुविधाएं उपलब्ध कराना और उनकी सेवा करना इस्लामी मूल्यों और संस्कृति के प्रसार में प्रभावी है। इससे लोगों को इस्लाम धर्म की इन महान हस्तियों के शिष्टाचार का परिचय मिलता है तथा इन हस्तियों और इस्लाम धर्म के प्रति लोगों का झुकाव बढ़ता है। धार्मिक विचार धारा के अनुसार ईश्वरीय महापुरुषों के कथनों और निर्देशों को लिखित रूप में सुरक्षित रखना और उनका पालन इन हस्तियों के प्रति श्रद्धा जताने का एक भाग है। ज़ाहिर है कि इसके साथ ही इन हस्तियों का सम्मान और उनकी क़ब्रों और ज़ियारतगाहों का निर्माण और देखभाल तथा निर्माण कार्य में कला का उपयोग भी इन महापुरुषों के प्रति श्रद्धा ज़ाहिर करने का प्रतीक है और यह हर मुसलमान तथा हर श्रद्धालु का कर्तव्य है।

ज़री के निर्माण को धातु का काम समझा जाता है। इस कला के माध्यम से बड़ा जालीदार संदूक़ रूपी ढांचा धातु, लकड़ी और पत्थर से बनाया जाता है। इस ज़री को महान हस्तियों की क़ब्रों के ऊपर रख दिया जाता है और क़ब्र इसके बीचोबीच होती है। ज़री के निर्माण में कुछ बिंदुओं का ध्यान रखना ज़रूरी है। एक तो इसकी पवित्रता का ध्यान रखा जाता है। इस पर किसी चेहरे की आकृति नहीं बनाई जाती बल्कि क़ुरआन की आयतें, सूरए यासीन या सूरए रहमान को उकेरा जाता है। कभीकभी उन अंकों को उकेरा जाता है जो धार्मिक प्रतीक माने जाते हैं। इसी प्रकार ज़री बनवाने वाले का नाम और निर्माण का साल लिखा जाता है। ज़री में कोई ऐसी चीज़ भी उकेरी जाती है जिसका संबंध उस महापुरुष से हो जिसकी क़ब्र पर ज़री बनाई गई है।

ज़री कभी आयताकार होती है तो कभी वर्गाकार होती है। कभीकभी ज़री गोलाकार भी होती है इसकी लंबाई चौड़ाई और ऊंचाई अलग अलग होती है। पहली नज़र में यह किसी छोटे से कमरे के भांति प्रतीत होती है जो रौज़े के अन्य भाग से क़ब्र वाले हिस्से को अलग करती है। इसके छोटे छोटेस्तंभ होते हैं, जिनमें जालियां लगी होती हैं। चांदी की प्लेटें होती हैं जिनपर लिखा होता है। किनारियों पर कुछ आकृतियां उभारी जाती हैं। सजाने के लिए कभीकभी जालियां सुनहरी लगाई जाती हैं। गुलदस्ते भी रखे जाते हैं और छत पर ख़ूबसूरत चादर डाल दी जाती है।

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ज़री निर्माण के बड़े कलाकार कई कलाओं का उपयोग करके और मिलजुलकर ज़री का निर्माण करते हैं। ज़री में सुलेखन, नगीने जड़ने, चित्रकला, बुनाई और ज़री की कला सहित अनेक कलाओं का उपयोग किया जाता है। आम तौर पर यह होता है कि जब ज़री का निर्माण किया जाता है तो कलाकारों की पूरी एक टीम आपसी सहयोग से यह काम करती है।

ईरान के महमूद फर्शचियान ज़री के बड़े डिज़ाइनर हैं। उन्होंने अब तक कई ज़रीहें बनाई हैं। वे इस कला की विशेषता बयान करते हुए कहते हैं, ज़रीह की डिज़ाइनिंग, एक विशेष कला है। इसमें डिज़ाइनिंग और चित्रकारी सहित अनेक बिंदुओं पर ध्यान देना होता है। सबसे पहले ज़री की डिज़ाइनिंग की जाती है। डिज़ाइन ऐसी हो कि छोनी और हथौड़ी से आकृतियां उकेरने वाले कलाकार उसकी पुष्टि कर दें। यह कलाकार अपनी बारी छोनी और छोटी हथौड़ी की मदद से बड़ी सूक्ष्मता के साथ आकृतियां और लिखावटें उकेरते हैं। उनको फ़ारसी में क़लमज़न कहा जाता है। ज़री इस प्रकार बनाई जाए कि दूर दूर से आने वाले दर्शनार्थी आकर ज़रीह के सामने खड़े हों तो उन्हें आध्यात्मिक और धार्मिक वातावरण स्पष्ट रूप से महसूस हो और वे अपने दिल का हाल कह सके। फूल पत्तियों सहित हर चीज़ सही जगह पर होनी चाहिए।

इस कलाकार ने मेटलिक आर्ट कई साल सीखा है। वे कहते हैं कि मेटलिक आर्ट को ईरानी व इस्लामी वास्तुकला सहित कई कलाओं के साथ मिलाने के बाद ज़रीह का निर्माण होता है। ज़रीह के निर्माण में ज़रूरी है कि उसपर बने फूलों, पत्तियों और अन्य आकृतियों में तालमेल हो और निगाहों को अल्लाह की ओर आकर्षित कराएं।

ईरानी व इस्लामी संस्कृति में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का विशेष स्थान है अतः ईरानी कलाकारों ने हज़रत इमाम हुसैन की शहादत के बारे में अपनी कलाओं का बड़ी श्रद्धा से प्रदर्शन किया है। ज़री का निर्माण असल में इमाम हुसैन के रौज़े से संबंधित एक स्मारक के निर्माण से शुरू हुआ है। इस समय जो ज़री हज़रत इमाम हुसैन के रौज़े पर रखी है वह ज़रीह निर्माण की कला का अदभुत नमूना है। इसके निर्माण में कई साल लगे और बड़ी दक्षता और श्रद्धा के साथ इसे तैयार किया गया है। इस ज़रीह के बारे में बात करने से पहले हम यह बताना चाहेंगे कि इमाम हुसैन की क़ब्र के लिए जरीह के निर्माण का इतिहास क्या है?


इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की क़ब्र पर पहली ज़री मुख़तार सक़फ़ी के आदेश से बनाई गई। हज़रत मुख़तार ने कर्बला में इमाम हुसैन और उनके साथियों को शहीद करने वाले पापियों से बदला लिया और फिर आदेश दिया कि इमाम हुसैन की क़ब्र पर इंटों के प्रयोग से छोटा कमरा बना दिया जाए और उसपर चूनाकारी कर दी जाए। उन्होंने इमाम हुसैन की क़ब्र के पास ही एक मस्जिद का भी निर्माण करवाया। यह इमारत बनी उमैया के शासनकाल के समापन और बनी अब्बास का शासन शुरू होने तक इसी प्रकार बाक़ी रही। वक़्त गुज़रने के साथ साथ कुछ शासकों ने इमाम हुसैन के रौज़े की मरम्मत करवाई जबकि कुछ शासकों ने पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों से अपनी दुश्मनी के कारण रौज़े को नुक़सान भी पहुंचाया।

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की क़ब्र पर आज वाले रूप में पहली ज़रीह वर्ष 981 ईसवी में अज़ोदुद्दौला दैलमी के काल में बनी। चूंकि आले बूये वंश के शासक पैग़म्बरे इस्लाम और उनके परिजनों तथा उनके रौज़ों से गहरा लगाव रखते थे अतः उन्होंने लकड़ी की जालीदार ज़री बनवाई जिसे हाथी दांत से सजाया गया था। यह ज़रीह इमाम हुसैन की क़ब्र पर रखी गई। ज़री के ऊपर मूल्यवान चादर चढ़ाई। इसके बाद अन्य महापुरुषों की क़ब्र पर भी इसी प्रकार की ज़री रखने का सिलसिला शुरू हो गया।

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वर्ष 1508 ईसवी में ईरान के शाह इसमाईल सफ़वी ने जब बग़दाद पर विजय प्राप्त की तो वे इमाम हुसैन की ज़ियारत के लिए कर्बला रवाना हुए। उन्होंने इमाम हुसैन की क़ब्र पर रखने के लिए सोने की ज़री बनाने का आदेश दिया। सफ़वी काल के बाद क़ाजारी काल में और उसके बाद भी मुसलमान कलाकारों ने बड़े वैभवशाली और अदभूत शाहकार तैयार किए हैं और हर बार इन ज़रीहों में किसी नई कला को भी शामिल किया गया। यही कारण है कि आज जो ज़रीहें बन रही है उनमें बहुत सी कलाओं का उपयोग किया जाता है।

जिन लोगों ने पिछले डेढ़ साल के दौरान कर्बला की यात्रा की है उन्होंने निश्चित रूप से इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के रौज़े में लगी नई ज़री को देखा होगा जो ईरानी कलाकारों की श्रद्धा और दक्षता की प्रतीक है। इस ज़रीह में प्रयोग की गई लकड़ी का भार 5 हज़ार 350 किलोग्राम, इसमें प्रयोग की जाने वाली चांदी का वज़्न 4 हज़ार 600 किलोग्राम, इसमें प्रयोग किए गए सोने का वज़न 118 किलो 650 ग्राम, इसमें प्रयोग किए जाने वाले तांबे का वज़न 700 किलोग्राम और इसमें प्रयोग की जाने वाली स्टील का वज़न 250 किलोग्राम है। ज़रीह का ऊपरी भाग जो सुनहरा है तांबे का बना है जिस पर सोने का पानी चढ़ाया गया है जबकि उससे थोड़ा नीचे जो भाग है वह सोने का बना है। इन धातुओं को इस प्रकार प्रयोग किया गया है कि समय बीतने के साथ ज़रीह घिसेगी नहीं बल्कि इसी तरह मज़बूत बनी रहेगी।

ज़री की लंबाई 5 बाई 7 मीटर है। इसमें 20 खिड़कियां हैं। इसकी डिज़ाइनिंग इस तरह की गई है कि दर्शनार्थी की नज़र निचले भाग पर पड़ती है और ज़रीह की डिज़ाइन उसे धीरे धीरे ऊपर की ओर ले जाती है जहां अल्लाह का नाम और पैगम्बरे इस्लाम का नाम लिखा हुआ है।

इमाम हुसैन के रौज़े में रखी गई इस ज़री को बनाने में चार साल का समय लगा और इसका निर्माण उसताद फर्शचियान ने किया है। ज़रीह में प्रयोग की जाने वाली लकड़ी बर्मा से मंगाई गई। ज़रीह का पूरा वज़न 12 टन है जिसमें 20 खिड़कियां हैं। यदि इसकी सही प्रकार से देखभाल की गई और निर्धारित समय पर कुछ भागों को बदल दिया गया तो इसकी उमर 400 साल होगी।

इस ज़री में ईरानी कलाओं को भरपूर तरीक़े से प्रयोग किया गया है। पूरी ज़रीह पर क़ुरआन की आयतें और अल्लाह के अलग अलग नाम लिखे गए हैं। ज़रीह के छह कोने हैं जो छह बड़े गुलदानों के रूप में हैं और उन पर क़ुरआन की आयत अल्लाहो नूरुस्समावाते वल अर्ज़ लिखी हुई है जहां से प्रकाश निकलता है।

ज़री के साथ ही पवित्र स्थलों के दरवाज़ों का निर्माण भी एक बड़ी कला है यह कला ई ईरानी कलाकारों के पास है। ईरान में मशहद, कुम इसफ़हान और तबरेज़ में ज़री का निर्माण बहुत प्राचीन समय से हो रहा है और इन प्रांतों को ज़री निर्माण की दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जाता है।