ईरान की सांस्कृतिक धरोहर-24
ज़्यादातर रत्न ख़वान से निकलते हैं और वे चमक्दार होते हैं।
इन रत्नों का मूल्य उनके रंग, चमक, मज़बूती और सुंदरता पर निर्भर होता है। इन क़ीमती पत्थरों में फ़ीरोज़ा, अक़ीक़, अंबर, जैस्पर और पन्ना उल्लेखनीय है। ईरान में आभूषण और नाज़ुक हस्तकला उद्योग में सबसे ज़्यादा जिस रत्न का इस्तेमाल होता है वह फ़ीरोज़ा है।
फ़ीरोज़ा ईरान में प्राचीन काल से इस्तेमाल होता रहा है। शूश शहर में दारयूश के महल में मौजूद शिलालेख से पता चलता है कि उस समय फ़ीरोज़े के ज़रिए महल को सजाया जाता था। हख़ामनेशी शासन काल के राजा कुरूश और दारयूश फ़ीरोज़े को दूसरे राजाओं को उपहार के तौर पर पेश करते थे। फ़ीरोज़े की उपचारिक विशेषताओं का उल्लेख प्राचीन समय से मिलता है। विगत में फ़ीरोज़े को सिर दर्द, आंख की समस्या, बुख़ार और कीड़े-मकोड़े के काटने पर दवा के तौर पर इस्तेमाल करते थे। इसी प्रकार फ़ीरोज़े को तनाव और स्नायू तंत्र की बीमारियों के दूर करने के लिए इस्तेमाल किया जाता था।
इस बात का उल्लेख भी ज़रूरी लगता है कि फ़ीरोज़े के आकर्षक रंग व ख़ूबसूरती के कारण इतिहास में लोग इसके बारे में अंधविश्वास का शिकार रहे हैं। जैसे कुछ लोगों का यह अंधविश्वास था कि फ़ीरोज़े के ज़ेवर पहनने से इंसान घोड़े से नहीं गिरता। या यह कि फ़ीरोज़ा साफ़ मौसम में चमकता है और प्रदूषण में इसका रंग मांद पड़ जाता है। यहां तक कि कुछ लोगों का यह अंधविश्वास था कि फ़ीरोज़े के रंग बदलने से जलवायु में बद्लाव आता है। इन सब बातों को नज़रअंदाज़ करते हुए फ़ीरोज़ा अपने नीले रंग और चमक के कारण ख़ुश रखने वाले पत्थर के नाम से मशहूर रहा है। इसका रंग जितना साफ़ नीला और चमकदार होता है इसकी क़ीमत उतनी ज़्यादा होती है।
ईरान में फ़ीरोज़े की मुख्य ख़वान देश के पूर्वोत्तर में स्थित है और इस ख़वान के फ़ीरोज़े को दुनिया का सबसे अच्छा फ़ीरोज़ा माना जाता है। अच्छे फ़ीरोज़े को ईरानी फ़ीरोज़ा या पर्शियम टरक्वाएज़ कहते हैं। पूर्वोत्तरी ईरान में मौजूद इस ख़वान 9 हज़ार टन फ़ीरोज़े का भंडार है और इससे सालाना 19 टन फ़ीरोज़ा निकलता है। यह ख़वान पूर्वोत्तरी ईरान के निशापूर शहर से 5 5 किलोमीटर पश्चिमोत्तर में एक गावं में स्थित है। इस गांव का नाम मादन है। लगभग एक टन कच्चे फ़ीरोज़े से 8 से 10 किलो फ़ीरोज़ा निकलता है। फ़ीरोज़े को पत्थर की चट्टान से निकाल कर विशेष थैले में रखते हैं। प्राचीन समय में उसे हथौड़े के ज़रिए चट्टान से निकाला जाता था और अब बारूद के ज़रिए निकाला जाता है। फ़ीरोज़ा निकालने के लिए कभी ख़वान में सुरंग बनायी जाती है और कभी कुआं खोद कर निकाला जाता है। कभी कभी सत्तर-सत्तर मीटर गहरा कुआं खोदा जाता है। ईरान के बाज़ार में दो तरह के फ़ीरोज़े को लोग ज़्यादा ख़रीदते हैं। एक निशापूर का फ़ीरोज़ा जो दुनिया में सबसे मूल्यवान व अच्छा समझा जाता है और उसके बाद दामग़ान के फ़ीरोज़े का नंबर आता है। दुनिया में फ़ीरोज़े की सबसे मशहूर ख़वान ईरान के ख़ुरासान प्रांत के निशापूर में स्थित होने के कारण इस प्रांत का मशहद शहर दुनिया में फ़ीरोज़े के लेन-देन का केन्द्र है। मशहद में तराशे जाने वाले फ़ीरोज़े को फ़ीरोज़ए ख़ुरासानी कहते हैं। ख़ुरासान प्रांत के अलावा फ़ीरोज़ा, किरमान और यज़्द प्रांतों से भी निकाला जाता है। फ़ीरोज़े को चकरी के ज़रिए तराशा जाता है। तराशने वाला कलाकार अपने दाहिने हाथ से चकरी घुमाता है और बाएं हाथ से उस पर फ़ीरोज़े को रगड़ता है। तराशने वाला अंगुली को घिसने से बचाने के लिए अंगुली में चमड़े का एक टुकड़ा बांध लेता है। तराशने के बाद फ़ीरोज़े को चमकाया जाता है। आम तौर पर फ़ीरोज़े के तीन तराशने वालों पर एक चमकाने वाला काफ़ी होता है।
फ़ीरोज़े की तराश, असली दाने के रूप व साइज़ पर निर्भर होती है। फ़ीरोज़े को आम तौर पर दो आकार में तराशा जाता है। एक तीर की तरह और दूसरा समतल रूप में। तीर के आकार का टुकड़ा जितना उभरा होगा उतनी ही उसकी क़ीमत ज़्यादा होती है। तीर की तरह फ़ीरोज़े के लिए इसके टुकड़े का मज़बूत होना बहुत ज़रूरी है क्योंकि नाज़ुक टुकड़े को तीर के आकार का नहीं तराशा जा सकता। आम तौर पर अच्छे रंग के फ़ीरोज़े को तीर की तरह तराशा जाता है। सबसे महंगा फ़ीरोज़ा वह होता है जिसका पूरा हिस्सा एक जैसे नीले रंग का हो। इस प्रकार के फ़ीरोज़े को आसमानी नीला कहते हैं। फ़ीरोज़े की गुणवत्ता को तीन बातों से परखा जाता है। एक रंग, दूसरी संरचना और तीसरे मकड़ी के जाले की तरह उसमें मौजूद जाल। यह विशेषता आम तौर पर ज़्यादातर फ़ीरोज़े में मौजूद होती है। फ़ीरोज़े में मकड़ी की तरह का नज़र आने वाला जाल वास्तव में काले या भूरे रंग की शिरा होती है जिसकी जड़ उस पत्थर में मौजूद होती है जिससे फ़ीरोज़े को निकाला जाता है। यह शिराएं कभी सुव्यवस्थि रूप में तो कभी अव्यवस्थित रूप में विकसित होती हैं। फ़ीरोज़े की इस हालत को शजरी फ़ीरोज़ा कहते हैं। जिस फ़ीरोज़े में यह डिज़ाइन सुव्यवस्थित होती है उसकी क़ीमत ज़्यादा होती है और अगर फ़ीरोज़े में धब्बे की भांति शिरा हो तो उसकी क़ीमत कम हो जाती है। जो फ़ीरोज़े खड़िये की ख़वान से निकलते हैं उसमें भूरे रंग की शिराओं का जाल होता है जबकि सैंडस्टोन की ख़वान से निकलने वाले फ़ीरोज़े में शिराओं का रंग ज़्यादा चमकीला होता है।
फ़ीरोज़े के जड़ाव का काम उन गिने चुने हस्तकला उद्योग में है जिसके उत्पाद बहुत सुंदर होते हैं। ईरान में यह उद्योग लगभग 60 साल ईसापूर्व पुराना है। उस समय मशहद में कलाई के कड़े, गले में लटकने वाले विशेष ज़ेवर और बालियों पर फ़ीरोज़े के जड़ाव का काम होता था। धीरे-धीरे यह उद्योग इस्फ़हान स्थानांतरित हो गया। ईरान के हस्कला उद्योग का गढ़ कहे जाने वाले इस्फ़हान शहर में फ़ीरोज़े के जड़ाव का काम फ़ीरोज़े के अलावा गुलदान, प्लेट, ग्लास, आइने के फ़्रेम सहित दूसरी चीज़ों पर किया जाने लगा। फ़ीरोज़े के जड़ाव वाला उत्पाद ज़ेवर के साथ साथ सजावट की पीस भी होती है। यह उत्पाद तांबे, पीतल, चांदी, निकेल या कांसे के होते हैं जिन परफ़ीरोज़े के छोटे छोटे टुकड़ों को मोज़ाइक की तरह बिछाते हैं। इस तरह के उत्पाद दो चरण में तय्यार होते हैं। इसका पहला चरण सोनारी के काम से संबंधित है जिसे सोनार हाथ या प्रेसिंग के ज़रिए बनाता है या दोनों तरीक़ों का इस्तेमाल करता है। सोनार के ज़रिए मूल रूप बनाए जाने के बाद फिर फ़ीरोज़े के बहुत छोटे छोटे टुकड़ों को कि जिसे फ़ीरोज़े के तराशने के कारख़ाने से हासिल किया जाता है, इस्तेमाल करते हैं। अगले चरण में दृष्टिगत उत्पाद को लगभग 30 सेंटीग्रेड की गर्मी दी जाती है और साथ ही उससे धब्बे और गर्द हटायी जाती है। फ़ीरोज़े को जड़ने का काम दो हिस्सों में होता है। पहले धातु वाले हिस्से को चमकाते हैं और फिर जड़ाव वाले भाग को ज़ैतून या तिल के तेल से चमकाते हैं ताकि पूरी पीस चमकदार लगे। इस बात का उल्लेख भी ज़रूरी है कि फ़ीरोज़े के जड़ाव का काम उस वक़्त ज़्यादा अच्छा समझा जाता है जब फ़ीरोज़े के छोटे-छोटे टुकड़े सुव्यवस्थित रूप में एक दूसरे के क़रीब चिपकाए गए हों। ऐसे उत्पाद की क़ीमत ज़्यादा होती है।
नीशापूर शहर फ़ीरोज़े के लिए पहचाना जाता है यही कारण है कि निशापूर को फ़ीरोज़े का शहर भी कहा जाता है। निशापूर में प्रसिद्ध ईरानी शायर व गणितज्ञ उमर ख़य्याम के मक़बरे की तस्वीर ईरान की संस्कृति व सभ्यता में रूचि रखने वालों के मन में फ़ीरोज़े से सजे
किसी ज़ेवर की याद मन में ताज़ा कर देती है। निशापूर के फ़ीरोज़े की तराशे हुयी सबसे पुरानी चीज़, गाय के बछड़े की मूरत है जो लगभग 7 हज़ार साल पुरानी है। यह इस वक़्त तेहरान में प्राचीन वस्तुओं के म्यूज़ियम में मौजूद है। तेहरान में केन्द्रीय बैंक की इमारत में राष्ट्रीय रत्न म्यूज़ियम, मशहद में इमाम रज़ा के रौज़े में मौजूद म्यूज़ियम, और लंदन के म्यूज़ियम में फ़ीरोज़े के बने ज़ेवर रखे हुए हैं। फ़ीरोज़े के बारे में इस बात का ध्यान रखना ज़रूरी है कि इसका रंग रासायनिक पदार्थ या सजावट के लिए इस्तेमाल होने वाले पदार्थ से टच होने के कारण फीका पड़ जाता है। इसी प्रकार फ़ीरोज़े का ज़ेवर या इसकी सजावट की पीस की क़ीमत खरोच पड़ने से भी कम हो जाती है। इसी प्रकार इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि फ़ीरोज़े की चीज़ पर खौलते हुए पानी या घर में इस्तेमाल होने वाला रासायनिक पदार्थ न लगे। एसा होने से फ़ीरोज़े का रंग बदल जाता है।