Oct ०२, २०२३ १९:४० Asia/Kolkata
  • इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के जन्म दिवस के शुभ अवसर पर विशेष कार्यक्रम

इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम का जन्म 17 रबीउल अव्वल सन 83 हिजरी कमरी को पवित्र नगर मदीना में हुआ था। इमाम मोहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम आपके पिता और उम्मे फरवा आपकी माता थीं। उम्मे फरवा क़ासिम बिन मोहम्मद बिन अबि बक्र की बेटी थीं।

छठें इमाम का नाम जाफ़र था जबकि सबसे प्रसिद्ध उपाधि सादिक़ थी। इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम भी पैग़म्बरे इस्लाम के दूसरे पवित्र परिजनों की भांति समस्त सदगुणों की प्रतिमूर्ति थे। वह महान ईश्वर की उपासना करने, ईश्वर के मार्ग में दान देने, ईश्वरीय भय और सहित समस्त अच्छाइयों व सदगुणों में अपने समय के समस्त लोगों से श्रेष्ठ थे।
मोहम्मद बिन तलहा ने इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम को महाज्ञानी, उपासक, ज़ाहिद और पवित्र कुरआन की तिलावत करने वाला बताया है। इमाम जाफ़र सादिक अलैहिस्सलाम ने लोगों का मार्गदर्शन शैक्षिक मार्गों से आरंभ किया और इमाम ने एसे शिक्षाकेन्द्र की स्थापना की जिससे हज़ारों विद्वान और धर्मशास्त्री निकले। इमाम जाफ़र सादिक अलैहिस्सलाम जिस परिस्थिति में थे उससे इस बात का भय लगा हुआ था कि कहीं लोग विशुद्ध इस्लाम को उस तरह से न जानने लगें जिस तरह बनी उमय्या या फिर बनी अब्बासी परिचित कराना चाहते थे।

इमाम अलैहिस्सलाम ने स्थिति को पूरी तरह समझकर विस्तृत पैमाने पर सांस्कृतिक अभियान आरंभ किया। इमाम के कठिन प्रयासों का परिणाम यह निकला कि हेशाम और मोहम्मद बिन मुस्लिम जैसे प्रतिभाशाली और होनहार चार हज़ार शिष्य विभिन्न विषयों में सामने आये और उस समय के समूचे इस्लामी जगत में फैल गये। इमाम जाफ़र सादिक अलैहिस्सलाम के शिष्यों में वे हस्तियां भी हैं जिन्होंने इमाम के शैक्षिक प्रयासों की रक्षा में किसी प्रकार के संकोच से काम नहीं लिया और ये हस्तियां शैक्षिक क्षेत्र में इस्लामी जगत की मूल्यवांन पूंजी हैं और इमाम इनसे बहुत प्रेम करते थे। इमाम फरमाते हैं मैं उन शियों को दोस्त रखता हूं जो बुद्धिमान, समझदार, धर्मशास्त्री, धैर्यवान, सच्चे और वफादार हैं।

वास्तव में इमाम के जो शिष्य थे वे इमाम द्वारा बयान की गयी इस्लाम की विशुद्ध शिक्षाओं को लोगों के लिए बयान करते थे और साथ ही वे इस्लामी जगत में ग़ैर इस्लामी और भ्रष्ट विचारों को दाखिल होने से रोकते थे। इमाम ने विशुद्ध इस्लाम के प्रचार प्रसार के लिए जिस धार्मिक शिक्षा केन्द्र की स्थापना की उसके कारण इमाम को फिक्हे जाफरिया की आधार शिला रखने वाला कहा जाता है।

पैग़म्बरे इस्लाम ने अपने जीवन के अंतिम क्षणों में कुरआन और अहलेबैत को दो भारी व मूल्यवान चीज़ें फरमाया और कहा था कि जो भी इन दोनों से जुड़ा रहेगा वह कभी भी गुमराह नहीं होगा और यह दोनों एक दूसरे से अलग नहीं होंगे यहां तक कि दोनों हौज़े कौसर पर मेरे पास आयेंगे।

पैग़म्बरे इस्लाम की इस हदीस की रोशनी में पूरी तरह स्पष्ट है कि गुमराही से बचने के लिए कुरआन और उनके पवित्र परिजनों से जुड़ा रहना ज़रूरी है और अगर किसी एक को छोड़ दिया और दूसरे को पकड़ लिया तो गुमराह हो जायेंगे। सवाल यह पैदा होता है कि गुमराही से बचने के लिए अकेले अल्लाह की किताब या खुद अहलेबैत क्यों काफी नहीं हैं? इसका जवाब बहुत विस्तृत पैमाने पर दिया जा सकता है परंतु संक्षेप यह है कि अगर अल्लाह की किताब अकेले हो और उस किताब का कोई शिक्षक न हो तो लोग गुमराह हो जायेंगे। अगर अल्लाह की किताब काफी होती तो पैग़म्बरे इस्लाम को चाहिये था कि वे केवल पवित्र कुरआन की आयतें पढ़कर सुना देते और मुसलमान खुद ही ईश्वरीय आदेशों को समझ लेते परंतु उन्होंने एसा नहीं किया और पूरे जीवन किताब को पढ़ते और उसका मतलब बताते रहे।

ध्यान योग्य बिन्दु यह है कि पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों द्वारा पूरी ज़िन्दगी पवित्र कुरआन की आयतों का मतलब बताने के बावजूद मुसलमानों में इतने संप्रदाय हैं तो अगर न बताते तो न जानें कितने होते जबकि पवित्र कुरआन और शुद्ध इस्लाम धर्म एक ही है।

दोस्तो यहां एक अन्य बिन्दु पर ध्यान ज़रूरी है और वह यह है कि जब एक आम इंसान की लिखी हुई किताब स्कूल, कालेज और विश्व विद्यालय में शिक्षक के बिना नहीं पढ़ाई जा सकती तो जिस किताब को महान ईश्वर ने नाज़िल किया हो वह पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों के बिना कैसे आम इंसान समझ सकता है।  

पैग़म्बरे इस्लाम ने गुमराही से बचने के लिए जहां कुरआन से जुड़े रहने पर बल दिया है वहीं अहले बैत अलैहिस्सलाम से भी जुड़े रहने पर बल दिया है। स्वयं महान ईश्वर ने पवित्र कुरआन में अहलेबैत से प्रेम व मोहब्बत करने को अनिवार्य करार दिया है और कहा है कि हे पैग़म्बर कह दो कि हमें अज्रे रिसालत कुछ नहीं चाहिये यानी हमने जो कुछ इस्लाम की शिक्षा दी है उसके बदले में हमें कुछ नहीं चाहिये मगर यह कि हमारे पवित्र परिजनों से प्रेम करो। रोचक बात यह है कि यह बात खुद पैग़म्बरे इस्लाम ने नहीं कही है बल्कि महान ईश्वर ने पवित्र कुरआन में कहा है।

इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम की इमामत के दौरान, ईश्वरीय शिक्षाओं की प्राप्ति की चाहत रखने वालों के लिए स्वर्णिम अवसर था। इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने सार्वजनिक रूप से लोगों को विभिन्न विषयों का ज्ञान दिया। सार्वजनिक क्लासों में शिया और सुन्नी दोनों भाग लेते और हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम से ज्ञान प्राप्त किया करते थे। ऐसी महान हस्ती के अनथक प्रयासों को पैग़म्बरे इस्लाम (स) के बाद इस्लामी इतिहास में महत्वपूर्ण माना जाता है।

इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने अपने काल में लोगों को शासकों की अनैतिक गतिविधियों से अवगत करवाया और समाज में प्रचलित तत्कालीन कुरीतियों से मुसलमानों को दूर रखने का अथक प्रयास किया।  उन्होंने मुसलमानों की आस्था को मज़बूत बनाने और शुद्ध इस्लामी शिक्षाओं को प्रचलित करने के प्रयास किया। पैग़म्बरे इस्लाम स. के परिजनों का एक संयुक्त उद्देश्य इस्लाम की सुरक्षा और अत्याचारों एवं अन्याय से मुक़ाबला करना था। इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने अपने समय की परिस्थितियों के अनुरूप प्रतिरोध की शैली का चयन किया था। 

मासूम इमामों की जीवन शैली और नीति का निर्धारण अपने समय की परिस्थितियों को अनुसार रहा है। अगर हम उनमें से हर एक के समय की परिस्थितियों का अध्ययन करें, तो हमें उनके आचरण के सिद्धांतों में किसी भी प्रकार का कोई विरोधाभास नज़र नहीं आएगा, बल्कि वे सभी एक उद्देश्य रखते थे।

वास्तविकता यह है कि इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) ने अपने समय की परिस्थितियों के मद्देनज़र इस्लामी शिक्षाओं का प्रचार- प्रसार और उन्हें मज़बूती प्रदान करना एक इमाम के रूप में अपनी ज़िम्मेदारी समझा। इसलिए कि इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) का काल ऐसा काल था जिसमें विभिन्न घटनाएं हुईं और इसे इस्लामी इतिहास का घटनाक्रमों से भरा हुआ काल कहा जा सकता है। उस काल में बनी उमय्या से बनी अब्बास को शासन का हस्तांतरण हुआ। इस घटना में बहुत ही उतार चढ़ाव आए।

इसी तरह इमाम जाफ़र सादिक अलैहिस्सलाम बुद्धि से काम लेने और धार्मिक व सांसारिक मामलों में चिंतन मनन करने पर बल देते थे और इमाम का मानना था कि प्रगति व इंसान की कामयाबी का राज़ बुद्धि से काम लेना है। इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम अपने एक निष्ठावान अनुयाई मुफज़्ज़ल बिन उमर से फरमाते हैं हे मुफज़्ज़ल! जो चिंतन- मनन न करे वह कामयाब नहीं होगा।

हूर ने कर्बला के मैदान में जो इतना बड़ा मकाम हासिल किया है वह चिंतन- मनन का ही नतीजा था। पवित्र कुरआन में चिंतन- मनन करने पर बहुत बल दिया गया है। चिंतन- मनन से इंसान मुक्ति व कल्याण का रास्त पकड़ लेता है। अगर महान ईश्वर ने इंसान के अंदर चिंतन मनन की शक्ति न रखी होती तो वह सर्वश्रेष्ठ प्राणी नहीं बन सकता था। महान ईश्वर ने एक लाख से अधिक पैग़म्बर और इमाम भेजे ताकि वे इंसानों को निश्चेतना की नींद से उठा सकें। इमाम जाफर सादिक अलैहिस्सलाम फरमाते हैं कि हम उन शियों को दोस्त रखते हैं जो बुद्धिमान, समझदार और धर्म से अवगत हों। हदीसों में ज्ञान को बुद्धि का चेराग़ कहा गया है। जिस तरह से चेराग अंधेरे में रास्ता दिखाता है उसी तरह ज्ञान अज्ञानता के अंधेरे में रास्ता दिखाता है।

एक व्यक्ति ने इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम से पूछा कि क्या लोगों के लिए बुद्धि काफी है और उन्हें किसी दूसरी चीज़ की ज़रूरत नहीं है? तो इमाम ने फरमाया बुद्धिमान अपनी बुद्धि से जानता है कि ईश्वर है और वही उसका पालनहार है और जानता है कि ईश्वर अच्छे कार्यों को पसंद करता है और बुरे कार्यों को पसंद नहीं करता है और इस बात को जानता है कि धार्मिक मामलों के विवरण को वह अपनी बुद्धि से नहीं समझ सकता मगर ज्ञान हासिल किये बिना वह ज़रूरी जानकारी तक नहीं पहुंच सकता। इसलिए ज्ञान हासिल करना हर बुद्धिमान इंसान पर वाजिब है।

इसी तरह इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम एक स्थान फरमाते हैं कि ज्ञान हर अच्छाई व भलाई का स्रोत है। इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम शियों के एक दूसरे से मुलाकात करने पर बल देते और फरमाते हैं एक दूसरे से मुलाकात करो क्योंकि इस मुलाकात से दिल ज़िन्दा होते हैं और हमारी हदीसों को याद करो उन पर अमल करो और अगर उन पर अमल करोगे तो तुम्हारी जानकारी में वृद्धि होगी और तुम सफल व कामयाब हो जाओगे। इसी तरह इमाम जाफ़र सादिक़ लोगों के मध्य मानवीय एवं भावनात्मक गहरे रिश्तों की बहुत सिफ़ारिश करते और फ़रमाते थे, एक दूसरे से जुड़ जाओ, एक दूसरे से प्रेम करो, एक दूसरे के साथ भलाई करो और एक दूसरे के साथ मोहब्बत एवं विनम्रता से पेश आओ। 

सुन्नी मुसलमानों के चार बड़े इमामों में से तीन इमाम शाफ़ई, इमाम मालिक और अबू हनीफ़ा इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) के शिष्य थे और उन्होंने इमाम से इस्लामी विषयों की शिक्षा हासिल की थी। MM

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