पवित्र रमज़ान पर विशेष कार्यक्रम-१५
(last modified Sun, 19 Jun 2016 04:55:56 GMT )
Jun १९, २०१६ १०:२५ Asia/Kolkata

एक ईश्वरीय आदेश के रूप में रोज़े के न केवल अनेक आध्यात्मिक फल हैं बल्कि इससे मनुष्य पर प्रशैक्षिण दृष्टि से भी विभिन्न प्रकार के प्रभाव पड़ते हैं।

एक ईश्वरीय आदेश के रूप में रोज़े के न केवल अनेक आध्यात्मिक फल हैं बल्कि इससे मनुष्य पर प्रशैक्षिण दृष्टि से भी विभिन्न प्रकार के प्रभाव पड़ते हैं। युवाओं के प्रशिक्षण में तो रोज़े का कुछ ज़्यादा ही प्रभाव है क्योंकि यह उपासना युवाओं को अपनी आत्मिक व आंतरिक भावनाओं को नियंत्रित करना सिखाती है। ईरान के प्रख्यात मनोचिकित्सक डॉक्टर दौलतयार बास्तानी कहते हैं। “रोज़ा, नियंत्रण की एक शैली है जो लोगों के यह सिखाती है कि किस प्रकार अपनी आवश्यकताओं को टाला जा सकता है ताकि वे आवश्यकता की भावना के चरम पर पहुंच जाने के समय भी अपने विचारों को नियंत्रित और शांत व्यवहार कर सकें।

 

सामाजिक मैदान में रोज़े का एक लाभदायक प्रभाव, क़ानून व समाज के अन्य लोगों के सम्मान का अभ्यास है। दूसरी ओर दूसरों की कथनी व करनी के संबंध में संयम, एक सकारात्मक सामाजिक संबंध के आधारों में से है। रोज़ा उन उपासनाओं में से एक है जो मनुष्य के भीतर धैर्य व संयम को मज़बूत बनाता है। जिस समाज में, रोज़े पर एक धार्मिक कर्तव्य के रूप में ध्यान दिया जाता है, उसमें सभी लोग स्वयं को उस समाज के सम्मान की रक्षा के लिए उत्तरदायी समझते हैं और हर ऐसे कार्य से दूर रहते हैं जिससे रोज़ेदारों की भावनाएं आहत होती हों। रोज़ेदार समाज में सभी लोग, ईश्वर के आदेश और रमज़ान के पवित्र महीने के सम्मान में पूरी तरह से अनैतिक व्यवहार और धर्म विरोधी कार्यों से बचते हैं। जो लोग बीमार होते हैं या किसी भी कारण से रोज़ा रखने में असमर्थ होते हैं वे भी इस पवित्र महीने के सम्मान की रक्षा करते हुए संयम से काम लेते हैं और खुले आम खाने-पीने से बचते हैं।

 

रमज़ान के महीने में रोज़ेदार केवल खान-पान नहीं छोड़ता बल्कि उसके शरीर का हर अंग रोज़ा रखता है। शरीर के अंगों के रोज़े का अर्थ उन्हें विशेष कर ज़बान, आंख और कान को नियंत्रित रखना है। यह रोज़ा, समाज के नैतिक स्तर को ऊंचा उठाने में काफ़ी प्रभावी है। यह आंतरिक पुलिस के रूप में व्यक्ति के व्यवहार पर दृष्टि रखता है और सामाजिक सुरक्षा का कारण बनता है। कहा जा सकता है कि सभी उपासनाएं विशेष कर नमाज़ और रोज़ा, सामाजिक बुराइयों व अपराधों सहित पापों को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि रमज़ान के महीने में अपराधों की संख्या, वर्ष के दूसरे महीनों की तुलना में बहुत कम होती है। इससे पता चलता है कि चोरी, हत्या, मार-पीट, बलात्कार और व्यभिचार जैसे अपराध इस महीने में बहुत कम हो जाते हैं। यही कारण है कि रमज़ान का पवित्र महीने आते ही, समाज का वातावारण, आध्यात्मिक हो जाता है और समाज के सभी लोगों को प्रभावित करता है। ऐसे वातावरण में पापों और अपराधों की भावनाएं और कारक भी बहुत कम हो जाते हैं। अतः रमज़ान का महीना और रोज़ा, सामाजिक अपराधों को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण प्रशैक्षणिक भूमिका के स्वामी हैं। रोज़े से मनुष्य के भीतर तक परिवर्तन आता है और अनुचित कार्यों पर अंकुश लगता है और सामाजिक सुरक्षा में वृद्धि होती है।

 

 

रमज़ान के पवित्र महीने में जिस बात पर बहुत अधिक बल दिया गया है और जिसे बड़ा पुण्य का काम बताया गया है वह रोज़ेदारों को इफ़्तार कराना या उनका रोज़ा खुलवाना है। मूल रूप से इस्लाम धर्म में आतिथ्य की बहुत अधिक सिफ़ारिश की गई है और इसके लिए बड़े एवं मूल्यवान प्रतिफल की घोषणा की गई है। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम घर में अतिथि के आगमन को एक ईश्वरीय उपहार बताते हुए कहते हैं। जब भी ईश्वर किसी समूह को भलाई प्रदान करना चाहता है तो उनकी ओर उपहार भेजता है। उनसे पूछा गया कि उपहार से तात्पर्य क्या है? तो उन्होंने कहा कि वह उपहार, मेहमान है जो अपनी रोज़ी लेकर किसी के घर में जाता है और वापसी में उस परिवार के पापों को लेकर चला जाता है। पैग़म्बरे इस्लाम के पौत्र इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम भी दूसरों को खाने खिलाने के प्रतिफल का वर्णन करते हुए कहते हैं। जो भी किसी मोमिन को पेट भर खाना खिलाता है तो ईश्वर की रचनाओं में से कोई भी चाहे वह उसका निकटवर्ती फ़रिश्ता हो या महान पैग़म्बर हो, यह नहीं जान सकता कि प्रलय में उसे कितना महान प्रतिफल प्रदान किया जाएगा। यह बात केवल ईश्वर जानता है।

 

इस आधार पर लोगों को खाना खिलाने से अधिक कोई भी काम मनुष्य को ईश्वर के निकट नहीं करता और इसमें भी इफ़्तारी अधिक श्रेष्ठ है। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम का कथन है कि जो कोई इस महीने में किसी मोमिन का रोज़ा खुलवाए, ईश्वर के निकट उसका प्रतिफल, एक दास को स्वतंत्र करने के बराबर है और इससे उसके पिछले पाप भी क्षमा कर दिए जाएंगे। वहां उपस्थित लोगों ने कहा। हे ईश्वर के पैग़म्बर! हम में से हर कोई रोज़ा खुलवाने की क्षमता नहीं रखता। पैग़म्बर ने कहा कि ईश्वर इतना कृपालु है कि यदि तुममें से कोई पानी मिले दूध के शर्बत, कुछ खजूरों या पानी से इफ़्तार करा दे और इससे अधिक कुछ देने की उसमें क्षमता न हो तो उसे भी यही पुण्य व प्रतिफल प्रदान करेगा। हज़रत अली अलैहिस्सलाम भी कहते हैं कि तुम्हारा अपने मुसलमान भाई को इफ़्तार कराना, तुम्हारे रोज़ा रखने से श्रेष्ठ है।

 

इस्लाम ने जहां रोज़ा खुलवाने पर बल दिया है वहीं रोज़े के इफ़्तार का निमंत्रण देने वाले के निमंत्रण देने को स्वीकार करने की भी सिफ़ारिश की है। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम का कथन है कि यह बात आचरण से दूर है कि किसी को खाने का निमंत्रण दिया जाए और वह स्वीकार न करे और यदि स्वीकार करे तो कुछ न खाए। यदि इस बात को विस्तार से बताना चाहें तो कहा जा सकता है कि किसी को अपने घर खाने के लिए आमंत्रित करना, उससे प्रेम व स्नेह का सूचक है। अतः निमंत्रण को स्वीकार न करना, निमंत्रण देने वाले की अनदेखी करने और उससे प्रेम का नाता तोड़ने के अर्थ में है और यह बात धार्मिक व शिष्टाचारिक सिद्धांतों के विरुद्ध है। इस आधार पर धार्मिक शिक्षाओं में खाने के निमंत्रण को स्वीकार करने और दूसरों के साथ खाना खाने को उनके साथ प्रेम के चिन्ह के रूप में बयान किया गया है। पैग़म्बरे इस्लाम के पौत्र इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के एक साथी हेशाम बिन सालिम कहते हैं। हम कुछ लोग इमाम के घर गए, उनमें मैं सबसे युवा था। इमाम ने हमें खाने का निमंत्रण दिया, सभी लोग दस्तरख़ान पर बैठ गए और हमने उनके साथ खाना खाया। इमाम ने मेरी ओर देखते हुए कहा। हेशाम! क्या तुम नहीं जानते कि मुसलमान भाई की दोस्ती उसके मुसलमान भाई पर तभी सिद्ध होती है जब वह उसका खाना चाव से खाता है?

 

अलबत्ता कुछ स्थान ऐसे हैं जहां खाने का निमंत्रण स्वीकार किए जाने से रोका गया है जिनमें से एक धनवानों का आतिथ्य है जिसमें ग़रीबों को आमंत्रित न किया गया हो। दूसरा स्थान अत्याचारी व खुल्लम खुल्ला पाप करने वाले का निमंत्रण है जिसे रद्द कर देना चाहिए। पैग़म्बरे इस्लाम अपने एक साथी अबूज़र ग़ेफ़ारी से कहते हैं कि खुल्लम खुल्ला पाप करने वाले व्यक्ति का खाना न खाओ।

 

पैग़म्बरे इस्लाम के नाती इमाम हसन अलैहिस्सलाम ग़रीबों की बहुत अधिक मदद किया करते थे और अपने जीवन में उन्होंने दो बार अपनी सभी धन संपत्ति और तीन बार आधी धन संपत्ति ग़रीबों व दरिद्रों को दान कर दी थी। कहा जाता है कि उन्होंने कभी भी किसी मांगने वाले को टाला नहीं। उनसे पूछा गया कि किस प्रकार आप किसी भी मांगने वाले को ख़ाली हाथ नहीं जाने देते? उन्होंने उत्तर में कहाः मैं स्वयं ईश्वर से मांगने वाला हूं, मुझे इस पर लज्जा आती है कि मैं स्वयं मांगने वाला हो कर किसी अन्य मांगने वाले को टाल दूं। ईश्वर ने मुझे इस बात का आदी बना दिया है कि वह निरंतर अपनी अनुकंपाएं मुझ पर उंडेलता रहे और इसके मुक़ाबले में मैंने अपनी आदत बना ली है कि लोगों पर ध्यान दूं और ईश्वर ने जो विभूतियां मुझे दी हैं, उन्हें लोगों को प्रदान करूं।

 

 

इतिहास में वर्णित है कि इमाम हसन और इमाम हुसैन अलैहिमस्सलाम अपने चचेरे भाई अब्दुल्लाह इब्ने जाफ़र के साथ हज के लिए जा रहे थे। रास्ते में एक बार उनका कारवान उन लोगों से थोड़ा आगे बढ़ गया और उन तीनों को भूख और प्यास का आभास होने लगे। अचानक उन्हें तपते मरुस्थल में एक तम्बू दिखाई दिया जिसमें एक बुढ़िया अकेली रहती थी। वे लोग वहां गए और उससे कुछ खाने-पीने को मांगा। उस बुढ़िया के पास, जो बड़ी कृपालु थी, केवल एक ही भेड़ थी जो उसका सबकुछ थी। वह उस भेड़ को मेहमानों के पास लाई और कहा कि इसका दूध दूह कर पीलो और मैं तुम्हें ईश्वर की सौगंध देती हूं कि जब तक मैं जा कर लकड़ियां ले आऊं, तुम लोग इसे ज़िबह कर दो। उन लोगों ने भेड़ को ज़िबह किया, उससे खाना तैयार किया और फिर उसे खा लिया। जब वे जाने लगे तो उसे धन्यवाद कहा और कहा कि हम क़ुरैश के लोग हैं जो हज के लिए जा रहे हैं। तुम जब भी मदीने आना तो हमारे पास आना ताकि हम भी तुम्हारी कुछ सेवा कर सकें। यह कह कर वे लोग चले गए।

 

समय बीतता रहा और उस क्षेत्र में सूखा पड़ा। मरुस्थल में रहने वाले, नगरों की ओर आने लगे। वह बुढ़िया भी अपने पति के साथ मदीना आई और चूंकि उनके पास आय का कोई साधन नहीं था इस लिए वे गलियों से ऊंटों का गोबर इकत्रित करके उसे बेचते थे। एक दिन इमाम हसन अलैहिस्सलाम अपने घर के पास खड़े थे कि वह बुढ़िया वहां से गुज़री। उन्होंने उसे पहचान लिया और आवाज़ दी। हे ईश्वर की दासी! क्या तुम मुझे पहचानती हो? उसने कहा कि मैं आपको नहीं पहचानती हूं। इमाम हसन ने कहा कि मैं उन मेहमानों में से एक हूं जो एक वर्ष हज के लिए जाते हुए तेरे तम्बू में आए थे। मेरा नाम हसन बिन अली है। बुढ़िया बहुत ख़ुश हो गई और कहने लगी कि मैं आप पर वारी जाऊं, आप इमाम हसन थे और मैं आपको पहचान नहीं पाई। इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने उस औरत के आतिथ्य प्रेम और ईश्वर के मार्ग में मदद करने की भावना की सराहना के लिए अपने दास को आदेश दिया कि वह उसे एक हज़ार भेंड़े ख़रीद कर दे और सोने के एक हज़ार सिक्के भी दे। फिर उन्होंने उसे मदीने के एक और दानी अर्थात अपने भाई इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के पास भेजा। उन्होंने भी उसे उतना ही दिया जितना इमाम हसन ने दिया था। फिर उसे अपने चचेरे भाई अब्दुल्लाह इब्ने जाफ़र के पास भेजा। उन्होंने भी अपने बड़े भाइयों का अनुसरण करते हुए उस बुढ़िया को एक हज़ार भेंड़ें और सोने के एक हज़ार सिक्के प्रदान किए।

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