पवित्र रमज़ान पर विशेष कार्यक्रम-२५
हे प्रभु! मुझे इस महीने में अपने दोस्तों का दोस्त बना और अपने दुश्मनों का दुश्मन।
हे प्रभु! मुझे इस महीने में अपने दोस्तों का दोस्त बना और अपने दुश्मनों का दुश्मन। अपने अंतिम दूत के मार्ग पर चलने का अवसर दे। हे अपने दूतों के मन को ठहराव प्रदान करने वाले।
पवित्र रमज़ान को बच्चों को धार्मिक शिक्षाओं से परिचित कराने के लिए बहुत अच्छा अवसर माना जाता है। मस्जिद में सामूहिक रूप से नमाज़ में, इस्लामी शिक्षाओं की क्लास, पवित्र क़ुरआन की तिलावत की सभाओं और उपासना के कार्यक्रमों में बच्चों का भाग लेना तथा सहर और इफ़्तार के दस्तरख़ान बिछाने में बच्चों की मदद लेना, उनके लिए आत्मउत्थान के इस महीने से परिचित होने के लिए आरंभिक बिन्दु बन सकता है। इस बीच इस बात को जानना ज़रूरी है कि बच्चों और धार्मिक शिक्षाओं के बीच संपर्क किस प्रकार बनाया जा रहा है और इस संपर्क बनाने के लिए माँ-बाप की क्या ज़िम्मेदारी है।
इस्लाम में बच्चों को उपासना की आदत डालने के लिए बहुत ज़ोर दिया गया है। पैग़म्बरे इस्लाम के परपौत्र हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के आचरण में मिलता है कि वह कुछ दिन बच्चों को रोज़ा रखवाते थे लेकिन जब देखते थे कि बच्चा भूख-प्यास से निढाल हो रहा है तो उसे फ़ौरन खाने पीने के लिए कहते थे।
बच्चों को रोज़ा रखने की आदत डालते वक़्त इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उन्हें बहुत ज़्यादा तक्लीफ़ न हो वरना वे इससे दूर हो जाएंगे। इसलिए बच्चों को धीरे-धीरे नमाज़ और रोज़ा सहित अन्य उपासनाओं के लिए तय्यार करना चाहिए। जैसे बच्चे में रोज़ा रखने की आदत पैदा करना हो तो पहली बार उसे सहरी खिलाएं और फिर दोपहर का खाना उसे इफ़्तार कह कर खिलाएं। दूसरे शब्दों में बच्चे से कहें कि बच्चों के रोज़े का वक़्त इतना ही होता है। इस तरह धीरे-धीरे इस मुद्दत को बढ़ाते जाएं। जैसे अगर पहली बार बच्चे को सहरी खिलाने के बाद 12 बजे खाना खिला दिया तो दूसरी बार इस मुद्दत को 1 बजे दोपहर तक ले जाएं। उसके बाद 2 बजे दोपहर बाद तक। इस तरह धीरे-धीरे उसे पूरा रोज़ा रखने की आदत डालें न यह कि पहले ही दिन दूसरों की वाहवाही बटोरने के लिए उसे पूरे दिन का रोज़ा रखवा दें। क्योंकि अगर बच्चा पहले ही दिन भूख और प्यास से निढाल हो गया तो इस बात की संभावना है कि वह रोज़े की ओर प्रेरित न हो।
पवित्र रमज़ान का महीना, मस्जिद और धार्मिक मामलों से बच्चों को परिचित कराने के लिए बहुत ही अच्छा मौक़ा है। इस बारे में प्रसिद्ध विद्वान शहीद मुतह्हरी कहते हैं, “अनुभव से यह बात साबित हो चुकी है कि अगर बच्चा मस्जिद न जाए और सामूहिक रूप से नमाज़ पढ़ते लोगों को न देखे तो इस काम के लिए प्रेरित न होगा। बड़ी उम्र का आदमी जब सामूहिक रूप से होने वाली उपासना में होता है तो उसमें उपासना के लिए और शौक़ पैदा होता है। बच्चे पर तो ऐसे माहौल का और ज़्यादा असर होगा।”
बच्चों और नौजवानों में मस्जिद जाने, प्रार्थना करने और आध्यात्मिक कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए शौक़ पैदा करना माँ-बाप की ज़िम्मेदारी है। मस्जिद में बच्चों की अनुपस्थिति, धीरे-धीरे उन्हें धार्मिक मामलों से दूर करती जाएगी। लेकिन इस बिन्दु का उल्लेख भी ज़रूरी है कि माँ-बाप बच्चों के लिए मस्जिद के कार्यक्रम इस तरह बनाएं कि उनमें शौक़ बना रहे। ऊबने न पाएं। इसके अलावा बच्चों को सहरी के लिए उठाने, मस्जिद तथा आध्यात्मिक कार्यक्रमों में हाज़िर होने के लिए ज़बानी और ग़ैर ज़बानी दोनों तरीक़ों से शौक़ दिलाना चाहिए। ग़ैर ज़बानी तरीक़ा जैसे बच्चे को उपहार देकर मस्जिद में हाज़िर होने के लिए प्रेरित करना है।
पवित्र रमज़ान और रोज़ा रखने का एक और बहुत प्रभावी असर यह है कि इससे अपने जैसे इंसानों के प्रति दोस्ती की भावना जागृत होती है। रोज़े के ज़रिए दूसरों को किसी हद तक मदद मिलती है। हक़ीक़त में रोज़ा रखने से इंसान, दूसरों के दुख दर्द को समझने लगता है। इंसान की ज़िन्दगी में ना-ना प्रकार के दुख दर्द होते हैं। इस बात की कल्पना नहीं की जा सकती कि सभी इंसान सभी दुखों का शिकार हों ताकि दूसरों के दुख दर्द को समझें। जैसे कुछ ला इलाज बीमारियां होती हैं जो बहुत कम लोगों को होती हैं। कुछ ख़ास प्रकार की मुश्किलें और संकट होते हैं जिनसे कुछ विशेष वर्ग को सामना होता है लेकिन एक पीड़ा ऐसी है जो प्राचीन समय से लेकर आज के इस आधुनिक युग में सभी इंसान महसूस करता है और वह है भूख-प्यास की पीड़ा। अलबत्ता इस बात का उल्लेख भी ज़रूरी है कि इंसान को यह हक़ नहीं है कि वह जान बूझ कर ख़ुद को कठिनाइयों में फसाए। अगर कोई व्यक्ति रोज़े के इरादे के बिना जान बूझ कर ख़ुद को प्यासा रखे तो यह इस्लाम की नज़र में एक हराम अर्थात वर्जित कर्म है। क्योंकि बदन को पानी की ज़रूरत होती है। लेकिन ईश्वर ने पवित्र रमज़ान के महीने में भूख और प्यास की मुसीबत को बर्दाश्त करने का आदेश दिया है ताकि सभी लोग भूख-प्यास की मुसीबत को समझें। शायद अगर पवित्र रमज़ान का महीना न होता तो धनवान कभी भी निर्धन की मुश्किलों के बारे में न सोचता। इसलिए पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम ने रमज़ान से पहले वाले महीने शाबान में, पवित्र रमज़ान के महत्व के बारे में अपने भाषण में कहा, “इस महीने में भूख और प्यास के ज़रिए प्रलय के दिन की भूख-प्यास को याद करो। निर्धनों व ज़रूरतमंद लोगों की मदद करो।” इसी प्रकार पैग़म्बरे इस्लाम ने अपने जैसे लोगों से मेल-जोल की अहमियत को समझाने के लिए कहा है, “हे लोगो! तुममे से जो भी इस महीने अपने किसी मोमिन भाई को इफ़्तार कराए तो उसे एक क़ैदी को आज़ाद कराने का पुन्य तथा पापों के क्षमा होने का बदला मिलेगा।”
लोगों ने पैग़म्बरे इस्लाम से कहा कि हे ईश्वरीय दूत हम सबके लिए यह मुमकिन नहीं है कि किसी रोज़ेदार को इफ़्तार दे सकें। तो हम किस प्रकार इतना पुन्य हासिल कर सकते हैं? पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमाया, “ख़ुद को नरक की आग से बचाओ! किसी रोज़ेदार को एक खजूर या आधी खजूर या एक घूंट पानी जितना इफ़्तार देकर इस महा पुन्य को हासिल करो।” इस प्रकार इंसान रोज़े के ज़रिए ज़रूरतमंद लोगों के दर्द को समझता है और अपने जैसे इंसान की मदद करने में कम लापरवाही करता है। इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम, रोज़ा अनिवार्य होने का कारण बताते हुए फ़रमाते हैं, “ईश्वर ने रोज़ा इसलिए अनिवार्य किया ताकि अपनी मख़लूक़ के बीच समानता लाए।”
एक दिन ईश्वरीय दूत हज़रत इब्राहीम अपने घर से घूमने के लिए निकले। मैदान और नदी की सैर करते हुए ख़ुद से कह रहे थे, “यह सब विविधतापूर्ण जीव, फूल, बुलबुल, पानी, वनस्पतियां और पहाड़ अनन्य ईश्वर को पहचानते हैं और उसका गुणगान करते हैं लेकिन हैरत है कि इंसान मूर्ति पूजा छोड़ने के लिए तय्यार नहीं।” इसी सोच में डूबे हुए थे कि अचानक उनकी नज़र एक व्यक्ति पर पड़ी जो एक किनारे नमाज़ पढ़ रहा था। हज़रत इब्राहीम बहुत ख़ुशी से उसकी ओर बढ़े। जिस प्रकार एक सच्चा श्रद्धालु सच्चे श्रद्धालु की ओर बढ़ता है। हज़रत इब्राहीम भी उसके बग़ल में नमाज़ पढ़ने लगे। यहां तक कि जब वह नमाज़ पढ़ चुका तो हज़रत इब्राहीम ने उससे पूछा कि किसके लिए नमाज़ पढ़ रहे थे? उसने कहा, ईश्वर के लिए। हज़रत इब्राहीम ने पूछा, “ईश्वर कौन है?” उसने कहा, ईश्वर वह है जिसने हमें और तुम्हें पैदा किया।
हज़रत इब्राहीम को यह यक़ीन हो गया कि वह व्यक्ति अनन्य ईश्वर की उपासना करता है तो उससे कहा, मुझे तुम बहुत अच्छे लगे। तुम्हारी शैली मुझे पसंद आयी। मैं तुम्हारे पड़ोस में रहना चाहता हूं। ताकि जब चाहूं तुम्हारे दर्शन कर सकूं। यह बताओ तुम्हारा घर कहाँ है? उस उपासक ने कहा, मेरा घर नदी के उस पार है। तुम वहां नहीं आ सकते।
हज़रत इब्राहीम ने पूछा कि तुम किस तरह नदी पार करते हो। उपासक ने कहा, ईश्वर की कृपा से मैं पानी पर चलता हूं और नहीं डूबता। हज़रत इब्राहीम ने कहा, शायद ईश्वर मुझ पर भी यह कृपा कर दे। पानी पर मेरे लिए रास्टा बना दे। चलो आज की रात हम तुम्हारे घर रहना चाहते हैं।
वह उपासक उठा और हज़रत इब्राहीम भी उसके साथ चल पड़े। यहां तक कि नदी के किनारे पहुंचे। उस उपासक ने ईश्वर का नाम लिया और पानी पर से गुज़र गया। हज़रत इब्राहीम ने भी ईश्वर का नाम लिया और चल पड़े यहां तक कि वह भी पानी से गुज़र गए और उपासक के घर पहुंचे।
हज़रत इब्राहीम ने उस उपासक से पूछा कि तुम क्या खाते हो? उसने एक पेड़ की तरफ़ इशारा किया और कहा कि इस पेड़ के फल को इकट्ठा करता हूं और पूरे साल इसी को खाता हूँ। हज़रत इब्राहीम ने उस उपासक से पूछा कि कौन सा दिन सबसे बड़ा दिन होगा। उपासक ने कहा कि जिस दिन ईश्वर अपने बंदों के कर्म का हिसाब किताब करेगा और उन्हें बदला या दंड देगा। हज़रत इब्राहीम ने उपासक से कहा कि चलो मिल कर ईश्वर से प्रार्थना करें कि वह अपने भले बंदों को उस दिन की कठिनाई से मुक्ति दे। उस उपासक ने कहा कि तीन साल से मैं ईश्वर से एक चीज़ मांग रहा हूं लेकिन जितना दुआ मांगता हूं क़ुबूल नहीं होती। मुझे ईश्वर से दूसरी चीज़ की दुआ मांगते हुए शर्म आती है।
हज़रत इब्राहीम ने कहा, शर्म किस बात की। कभी कभी ईश्वर जिस बंदे को दोस्त रखता है उसकी दुआ को क़ुबूल करने में देर लगाता है ताकि वह बंदा और दुआ करे। इसके विपरीत जब किसी बंदे पर क्रोधित होता है तो उसकी दुआ तुरंत सुन लेता है या उसे दुआ करने की ओर से निराश कर देता है। अच्छा बताओ कौन सी दुआ है जो ईश्वर क़ुबूल नहीं कर रहा है।
उस उपासक ने कहा, “एक दिन में एक जगह नमाज़ पढ़ रहा था कि अचानक मेरी नज़र एक सुदंर नौजवान पर पड़ी जिसका चेहरा चांद की तरह चमक रहा था और वह कुछ गायों को चरा रहा था। उसके साथ कुछ मोटी ताज़ी भेड़ बकरियां भी थीं। मैं उसकी ओर बढ़ा और उससे पूछा कि तुम कौन हो। उसने कहा कि मैं ईश्वर के मित्र इब्राहीम का बेटा हूं। मेरे दिल में ईश्वर के मित्र इब्राहीम से मिलने की तीव्र इच्छा हुयी। तीन साल से मैं ईश्वर से दुआ कर रहा हूं कि मुझे वह अपने मित्र इब्राहीम का दर्शन करा दे किन्तु मेरी दुआ क़ुबूल नहीं हो रही है।”
हज़रत इब्राहीम ने कहा, “मैं वही इब्राहीम हूं और वह नौजवान मेरा बेटा है।” उपासक ने जब यह सुना तो उसने हज़रत इब्राहीम का हाथ चूमा और कहा, “सारी प्रशंसा ईश्वर से विशेष है जिसने मेरी दुआ क़ुबूल कर ली।” उस वक़्त हज़रत इब्राहीम ने उपासक के निवेदन पर भी भले बंदों के लिए दुआ की ओर उस उपासक ने आमीन कहा।