पवित्र रमज़ान पर विशेष कार्यक्रम-२७
(last modified Sun, 19 Jun 2016 05:49:16 GMT )
Jun १९, २०१६ ११:१९ Asia/Kolkata
  • पवित्र रमज़ान पर विशेष कार्यक्रम-२७

रमज़ान की 27वीं तारीख़ है, आज हम ईश्वर से दुआ करते हैं कि, हे ईश्वर इस मुबारक महीने में हमें शबे क़द्र का पुण्य प्रदान कर, हमारे कार्यों को आसान कर दे, हमारी क्षमा को स्वीकार कर ले, हमारे पापों को कम कर दे, हे कृपालु एवं दयालु ईश्वर।

रमज़ान की 27वीं तारीख़ है, आज हम ईश्वर से दुआ करते हैं कि, हे ईश्वर इस मुबारक महीने में हमें शबे क़द्र का पुण्य प्रदान कर, हमारे कार्यों को आसान कर दे, हमारी क्षमा को स्वीकार कर ले, हमारे पापों को कम कर दे, हे कृपालु एवं दयालु ईश्वर।

 

रमज़ान का महीना ईश्वर की मेज़बानी का महीना है। ईश्वर क़ुराने मजीद में अपरोक्ष रूप से लोगों को अपना मेहमान बनाने के लिए आमंत्रित कर रहा है और स्वयं उनकी मेज़बानी का वादा कर रहा है। लोगों को भी चाहिए कि ईश्वर के दस्तरख़्वान से जितना अधिक हो सके लाभान्वित हों।

रमज़ान के महीने के अंतिम दिनों में एक विशेष इबादत जिसकी बहुत सिफ़ारिश की गई है, एतकाफ़ है। शरीयत में एतकाफ़ का अर्थ है, मस्जिद में रहकर इबादत करना। इसीलिए अहले बैत (अ) ने रमज़ान में एतकाफ़ की बहुत सिफ़ारिश की है और वे ख़ुद भी रमज़ान में एतकाफ़ करते थे, विशेष रूप से रमज़ान के अंतिम 10 दिनों में। इमाम सादिक़ (अ) फ़रमाते हैं, रमज़ान के अंतिम 10 दिनों में ही एतकाफ़ होता है।

 

 

पैग़म्बरे इस्लाम (स) रमज़ान में एतकाफ़ करते थे। रमज़ान के महीने में एतकाफ़ को वे इतना महत्व देते थे कि अगर रमज़ान में किसी कारणवश एतकाफ़ नहीं कर पाते थे तो बाद में उसकी क़ज़ा करते थे। उदाहरण स्वरूप, एक साल बद्र युद्ध के कारण वे एतकाफ़ में नहीं बैठ सके थे तो अगले वर्ष रमज़ान में उन्होंने बीस दिन का एतकाफ़ किया। इमाम सादिक़ (अ) के मुताबिक़, पैग़म्बरे इस्लाम फ़रमाते थे कि रमज़ान में दस दिन का एतकाफ़ दो हज और दो उमरे के बराबर है।

 

एतकाफ़ एक ऐसा उचित अवसर है, कि इंसान काम वासना और अन्य भौतिक इच्छाओं से दूर होकर अपने वास्तविक प्रेमी के निकट हो जाता है और अपने मन एवं आत्मा को उसके लिए शुद्ध करता है। इस एकांत में वह स्वयं को महमान और ईश्वर को मेज़बान मानता है। मेहमान का यह मानना है कि अगर वह अच्छा मेहमान भी नहीं है तो भी मेज़बान अपनी कृपा से उसके साथ अच्छा व्यवहार करेगा। एतकाफ़ में एतकाफ़ करने वाला इबादत के आरम्भिक चरणों से आगे वास्तविक इबादत का आनंद लेता है। ईश्वर अपने बंदे को एकांतवास में बुलाता है ताकि वह उससे निकटता का आभास कर सके। इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) फ़रमाते हैं, तौरैत में ईश्वर के हवाले से उल्लेख है कि, हे आदम की संतान, मेरी इबादत के लिए ऐसा अवसर उत्पन्न कर कि मैं तुझे समृद्ध बना दूं और बिना मांगे तुझे प्रदान करूं और तेरे दिल को अपने भय से भर दूं, लेकिन अगर तू मेरी बंदगी के लिए कोई ऐसा अवसर उपलब्ध नहीं कराएगा तो तेरे दिल को दुनिया की गतिविधियों में व्यस्त कर दूंगा और तेरी ज़रूरत को पूरा नहीं करूंगा और तेरे प्रयासों को तुझ पर ही छोड़ दूंगा।

 

 

समय का महत्व और अनुशासन इस्लामी संस्कृति की विशेषता और प्रगति का एक महत्वपूर्ण कारण है। इस्लाम ने अनुशासन को बहुत अधिक महत्व दिया है और अपने अनुयाइयों को आदेश दिया है कि अपने समस्त कार्यों को योजना के अनुसार एवं अनुशासित तरीक़े से अंजाम दें। इस्लाम के दिशा निर्देश भी मुसलमानों के जीवन को व्यवस्थित करने और अनुशासित बनाने के लिए हैं।

इस्लाम में अनुशासन का महत्व इतना अधिक है कि हज़रत अली (अ) अपनी वसीयत में फ़रमाते हैं, मैं तुन्हें अपनी सभी संतानों व संबंधियों और हर उस व्यक्ति को कि जिस तक मेरी यह वसीयत पहुंचे ईश्वर से डरने और अनुशासन की सिफ़ारिश करता हूं। इसी प्रकार हजरत अली (अ) मिस्र के गवर्नर मालिके अश्तर को अनुशासन की सिफ़ारिश करते हुए कहते हैं, जिन कामों का समय अभी नहीं हुआ है उनमें जल्दबाज़ी, या जिन कार्यों को अंजाम देना संभव हो गया है उनमें सुस्ती, या अस्पष्ट कामों पर आग्रह, या स्पष्ट कामों में टालमटोल से बचना और हर काम को उसकी अपनी जगह और हर काम को उसके समय पर अंजाम देना।

 

 

इस्लाम में जिन चीज़ों को वाजिब या अनिवार्य किया गया है, उन पर नज़र डालने से इस धर्म में अनुशासन का महत्व स्पष्ट हो जाता है। पांच नमाज़ों का उनके निर्धारित समय पर अदा करना बहुत महत्वपूर्ण है। नमाज़ के समय, नमाज़े जमात में नमाज़ियों की सफ़ों या पांक्तियों के व्यवस्थित होने, नमाज़ियों के पूर्ण समनव्य के साथ नमाज़ पढ़ना, नमाज़ को उसके समय पर पढ़ने जैसे समस्त आदेशों में एक अनुशासन दिखाई पड़ता है। रमज़ान में रोज़ा रमज़ान के महीने का चांद निकलने के बाद शुरू होता है और शव्वाल महीने का चांद होने पर समाप्त हो जाता है। रोज़े का समय सुबह की अज़ान से शुरू होता है और मग़रिब की अज़ान तक जारी रहता है। इस प्रकार से कि अगर अज़ाने सुबह के बाद एक क्षण बाद भी खाना जारी रहे या मग़रिब की अज़ान से एक क्षण पहले खाना पीना शुरू कर दिया जाए तो रोज़ा बातिल हो जाना अर्थात टूट जाता है। यह योजना और अनुशासन कि जिसे ईश्वर ने अपने बंदों के लिए निर्धारित किया है, अनुशासित बनाने का पाठ है ताकि इंसान अपने जीवन को भी इसी अनुशासन से व्यतीत करे।

 

 

साल भर में रमज़ान मुबारक, अनुशासन के प्रशिक्षण के लिए बेहतरीन अवसर है। ठीक समय पर नमाज़ पढ़ने के साथ ही इंसान अपने सामाजिक और व्यक्तिगत कामों को व्यवस्थित रूप से अंजाम देता है और उसके व्यक्तिगत एवं सामाजिक लाभों से लाभान्वित होता है। ईरान की इस्लामी क्रांति के संस्थापक इमाम ख़ुमैनी ने अनुशासन को अपने जीवन में बहुत महत्व दिया, इस प्रकार से कि उनके आसपास के लोग उनके जीवन में अनुशासन का आभास करते थे। इमाम ख़ुमैनी के एक साथी का कहना है, हम इराक़ के शहर नज़फ़ में स्थित हज़रत अली (अ) के रौज़े में बैठे हुए थे और धार्मिक छात्रों के साथ बातचीत कर रहे थे। जब हमारी बातचीत समाप्त हुई तो अन्य साथी वहां से जाना चाहते थे, जब उन्होंने घड़ी पर नज़र डाली तो देखा कि एक दूसरे की घड़ियां विभिन्न समय दिखा रही है। रौज़े की घड़ी में हमारी घड़ियों से अलग समय था। उसी स्थिति में नजफ़ के एक धर्मगुरू ने कहा, अपनी घड़ियों का समय ठीक कर लो, इस समय ठीक रात के तीन बज रहे हैं। आश्चर्य से सबने उनकी ओर देखा और कहा कैसे? उन्होंने इमाम ख़ुमैनी की ओर संकेत करते हुए कहा, यह साहब हर रात ठीक तीन बजे रौज़े में आते हैं।

 

हम सभी का जीवन वास्तव में रण क्षेत्र और अपनी काम वासना से संघर्ष का मैदान है और हमारे जीवन में लगभग प्रतिदिन एक न एक ऐसी घटना घटित होती है कि हमें चाहिए कि ईश्वर पर भरोसा करते हुए अपनी काम वासना पर विजय प्राप्त करें। हज़रत अली (अ) फ़रमाते हैं, सबसे शक्तिशाली व्यक्ति वह है कि जो अपनी काम वासना पर निंयत्रण कर ले।

 

ईरान के विख्यात पहलवान पूरीया से संबंधित एक घटना बहुत प्रसिद्ध है। जब पूरीयाए वली पहलवान विभिन्न इलाक़ों के पहलवानों को धूल चटा चुका तो उसने राजधानी के पहलवान को हराने का निर्णय लिया। इस इरादे से वह राजधानी की ओर चल पड़ा। जब राधधानी के पहलवान को पूरीया के आने की ख़बर मिली, तो वह डर गया। जब उसकी माँ ने अपने बेटे के चेहरे पर दुख के भाव देखे तो ईश्वर से दुआ की और अपने बेटे की सफलता के लिए मन्नत मांगी। बूढ़ी मां हर दिन हलवा बनाकर शहर के द्वारा पर ले जाती थी और ग़रीबों एवं ज़रूरतमंदों को दान में देती थी। जब पूरीया शहर के द्वार पर पहुंचा तो उसने देखा एक बूढ़ी बैठी हुई है और उसके सामने एक सोनी में हलवा रखा हुआ है। हलवा ख़रीदने के लिए वह जब बूढ़ी के पास गया तो बूढ़ी ने कहा, यह हलवा बेचने के लिए नहीं लाई हूं, बल्कि यह मन्नत का है।

 

पहलवान ने पूछा तुमने क्या मन्नत मांगी है? बूढ़ी ने कहा, मेरा बेटा इस शहर का पहलवान है और एक प्रसिद्ध पहलवान उससे कुश्ती लड़ना चाहता है। अगर मेरा बेटा हार जाएगा तो वह अपना सम्मान और धन सब कुछ खो बैठेगा। पूरीया ने सोचा, अगर इस पहलवान को ज़मीन पर पटख़ दूं तो राजधानी का पहलवान बन जाऊंगा और अगर अपनी इच्छा के बुत को पटख़ू दूं तो ईश्वर के दरबार का पहलवान बन जाऊंगा। मैं ईश्वर की प्रसन्नता के लिए इस बूढ़ी की आशा को निराशा में नहीं बदलूंगा। उसने बूढ़ी की ओर देखकर कहा, मां तेरी मन्नत क़बूल हो गई। कुश्ती के दिन राजधानी का पहलवान जब अखाड़े में उतरा तो उसके चेहरे का रंग उड़ा हुआ था। पूरीया के शिष्यों ने उससे लड़ने का आग्रह किया, लेकिन पूरीया ने स्वीकार नहीं किया और कहा, यह मेरा काम है न कि किसी अन्य का। पूरीया ने दृढ़ संकल्प के साथ अखाड़े में क़दम रखा। उसने स्वयं अपने शरीर को काफ़ी ढीला छोड़ दिया। राजधानी के पहलवान ने जब अपने प्रतिद्वंद्वी को कमज़ोर पाया तो उसका साहस बढ़ गया और पूरीया को उठाकर ज़मीन पर पटख़ दिया और उसके सीने पर बैठ गया। जैसे ही पहलवानों का पहलवान चित हुआ, उस पर ईश्वर की कृपा हुई और उसे सत्य का अनुभव हो गया। वह यद्यपि उस पहलवान के हाथों हार गया लेकिन ईश्वर के निकट वह जीत गया।  

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