बिना मुक़दमे के क़ैद, राजनैतिक बंदियों के साथ राज्य का व्यवहार क्या बता रहा है?
इंडियन एक्सप्रेस में हर्ष मंदर लिखते हैः भीमा कोरेगांव के मुल्ज़िमों को राज्य द्वारा क़ैद हुए तीन साल हो चुके हैं। कोविड-19 और उनकी सेहत का सामने मौजूद ख़तरे के बावजूद राज्य उनकी ज़मानत का विरोध कर रहा है।
6 जून, भीमा कोरेगांव षड्यंत्र केस में 5 मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के क़ैद में तीन साल गुज़रने की दुखद बरसी का दिन था। बाद में इसी केस में 11 और लोगों को क़ैद में डाल दिया गया। भीमा कोरेगांव के 16 मुल्ज़िमों (बीके-16) में औरत और मर्द हैं जो बुद्धिजीवी, वकील, प्रोफ़ेसर्ज़, एक शायर, सांस्कृतिक व मानवाधिकार कार्यकर्ता और एक 84 साल के एक ईसाई पादरी भी हैं। सबके सबका भारत के सबसे पीड़ित लोगों की सेवा का बेहतरीन रेकॉर्ड है।
1 जनवरी 2018 को पूने ज़िले के भीमा कोरेगांव नामी छोट से गांव में लड़ी गयी जंग की 200वीं सालगिरह थी। इस गांव में ब्रिटिश सेना के दलित महर फ़ौजियों ने पेशवा की फ़ौज को हराया था। पूरे महाराष्ट्र से हज़ारों की तादाद में दलित इस गांव में इस घटना की याद मनाने के लिए इकट्ठा हुए थे। लेकिन हिंसा भड़क उठी और एक व्यक्ति की मौत हो गयी। पुलिस ने शुरू में हिन्दुत्व नेता मिलिंद एकबोते और संभाजी भीणे से हिंसा भड़काने पर पूछताछ की और एकबोते को थोड़े समय के लिए गिरफ़्तार किये रखा। लेकिन कुछ महीने के बाद, पुलिस ने दावा किया कि हिंसा, वामपंथी कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों के षड्यंत्र का नतीजा था। बीके-16 पर दलितों को हिंसक विद्रोह भड़काने और प्रधान मंत्री की हत्या की साज़िश रचने का इल्ज़ाम लगा।
तीन साल बाद, उनके ख़िलाफ़ मुक़द्मे की कार्यवाही अभी तक शुरू नहीं हुयी। राज्य –आपराधिक न्याय की सभी संस्थाओं की मिलीभगन से- क़ानून का दुरूपयोग कर बीके-16 मुल्ज़िलों को, क़ैद में रखने में सफल रहा। न उन्हें ज़मानत का और न ही अपनी बेगुनाही साबित करने का मौक़ा दिया गया। इन मुल्ज़िमों के ख़िलाफ़ कुछ कथित इमेल के आधार पर कमज़ोर सुबूत इस्तेमाल हुए। आज़ाद एजेन्सियों ने इमेलों का विरोध करते हुए इन्हें मालवेयर (ग़लत साफ़्टवेयर) के ज़रिए सिस्टम में शामिल किया गया क़दम बताया।
बीके-16 मुल्ज़िमों के केस का अनुभव दर्शाता है कि कितना आसान है राज्य कर्मचारियों के लिए उन लोगों की छवि को ख़राब करके बिना ज़मानत और मुक़दमे के अनिश्चित समय के लिए जेल में डालना, जो राज्य की नीतियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते और संघर्ष करते हैं। कोविड-19 पैन्डेमिक के दौरान भी, जब दुनिया भर में सरकारों ने जेल के क़ैदियों की तादाद कम की, राज्य, बिना मुक़दमे के क़ैद ईन राजनैतिक क़ैदियों को ज़मानत न दिए जाने पर अड़ा रहा यहां तक कि इन क़ैदियों के जीवन को ख़तरे में डालने वाले लक्षण ज़ाहिर होने के बाद भी अड़ा रहा। बड़ी लंबी न्यायिक लड़ाई के बाद, उनमें से एक वरावार राव को जो शायर हैं, ख़राब स्वास्थ्य की वजह से ज़मानत मिल पायी।
बाद की सरकारों ने भी ऐसे निराले क़ानून पास किए जो राज्य को यह अधिकार देता है कि वह आतंकवाद या विद्रोह के मुल्ज़िमों को अनिश्चित समय के लिए जेल में डाल दे। ऐसे क़ानून जिसमें जुर्म साबित होने से पहले बेगुनाह होने के गुमान, ज़मानत के अधिकार और अपनी बेगुनाही को साबित करने के लिए पर्याप्त मौक़ा देने जैसे प्राथमिक संरक्षण को भी नज़रअंदाज़ किया गया है।
मौजूदा सरकार इस तरह के क़ानून को, विरोधी स्वर को अपराध का दर्जा देने के लिए इस्तेमाल कर रही है, विरोधियों पर आंतकवाद और राजद्रोह का इल्ज़ाम लगा रही है और इसके समानांतर हिंसा के लिए ज़िम्मेदार दक्षिण पंथी मिलिटेंट्स को बरी कर रही है। यही प्लेलिस्ट दिल्ली के 2020 के सांप्रदायिक हिंसा में इस्तेमाल हुयी। भाजपा के नेताओं, जिन्होंने नफ़रत भरी स्पीच से हिंसा भड़काई, पक्षपाती पुलिस और हिन्दुत्व के ग़ुन्डों सबको हिंसा भड़काने के मामले में बरी कर दिया गया और इसके बदले में उन लोगों के ख़िलाफ़ राजद्रोह का इल्ज़ाम लगाया गया जो 2019 के सिटिज़न शिप अमेन्डमंट ऐक्ट सीएए के ख़िलाफ़ शांतिपूर्ण प्रदर्शन में शामिल थे।
आज कल मैं बीके-16 के बहादुर परिवार वालों के दुखद शब्द सुन कर बहुत परेशान हूं। एक बार आप क़ैदी बन गए, तो आपकी ज़िन्दगी की कोई अहमियत नहीं है। राज्य का एजेन्डा- डर है- इस बात को सुनिश्चित बनाना है कि राजनैतिक क़ैदी सही तरह से न रखे जाएं। क्या उन्हें सिर्फ़ मरने के लिए जेल भेजा जा रहा है?
(साभारः इंडियन एक्सप्रेस)
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