क्या 2024 में भारत की संसद की नई इमारत के साथ नया संविधान भी आएगा सामने? मुसलमानों, मस्जिदों और इस्लामिक स्थानों पर होते हमले संयोग या फिर प्रयोग?
भारत में सेंट्रल विस्टा परियोजना के तहत एक नए संसद भवन और नए आवासीय परिसर का निर्माण कार्य धीरे-धीरे अपने अंतिम चरण की ओर बढ़ रहा है। वहीं दूसरी ओर हर दिन मंदिर, मस्जिद, मुसलमान और समान नागरिक संहिता लागू करने को लेकर चर्चा तेज़ हो गई है।
जमीअते ओलमाए हिंद के प्रमुख मौलाना अरशद मदनी ने उत्तर प्रदेश के देवबंद में आयोजित हुए एक कार्यक्रम में कहा है कि अल्पसंख्यकों की लड़ाई किसी हिन्दू से नहीं है बल्कि धर्म के आधार पर आग लगाने वाली सरकार से है, जिसका मुक़ाबला अदालत के ज़रिये किया जाएगा। उनके द्वारा दिया गया यह बयान काफ़ी बातों को अपने साथ लिए हुए है। यानी एक बात तो स्पष्ट है कि भारत में इस समय पूरी तह मुसलमानों के ख़िलाफ़ एक माहौल बनाने में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी और चरमपंथी हिन्दू संगठन मीडिया की मदद से कामयाब होते दिख रहे हैं। इस बीच असम से आई एक ख़बर ने मुसलमानों के बीच और अधिक सवालों को जन्म देने का काम किया है। असम सरकार ने 6 अल्पसंख्यक समुदायों को प्रमाणपत्र देने का फ़ैसला किया है। सरकार की दलील है कि इससे उनको सरकारी सुविधाएं मुहैया कराने में आसानी होगी। उधर विपक्ष ने सरकार पर लोगों को धार्मिक आधार पर बांटने का आरोप लगाया है।
उल्लेखनीय है कि असम देश में अल्पसंख्यकों को प्रमाणपत्र देने वाला पहला राज्य होगा। असम सरकार ने रविवार को अपनी कैबिनेट बैठक में राज्य के छह धार्मिक अल्पसंख्यकों को प्रमाणपत्र जारी करने का फ़ैसला किया। असम राज्य के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री केशब महंत ने इसकी जानकारी देते हुए बताया, मंत्रिमंडल ने मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध, जैन और पारसी समुदाय के लोगों को अल्पसंख्यक प्रमाण-पत्र जारी करने का फ़ैसला किया है। इसकी प्रक्रिया को अंतिम रूप दिया जा रहा है। उनका कहना था कि यह इस तरह के प्रमाणपत्र जारी करने का पहला मौक़ा है। इससे पहचान में मदद मिलेगी। स्वास्थ्य मंत्री बताते हैं, "हमारे पास अल्पसंख्यकों के लिए कई योजनाएं हैं। अल्पसंख्यकों के लिए एक अलग विभाग भी है। लेकिन अल्पसंख्यकों की पहचान का कोई ठोस तरीक़ा नहीं है। सरकारी योजनाओं के लाभ ऐसे वर्ग के लोगों तक पहुंचाने के लिए उनकी पहचान ज़रूरी है। असम अल्पसंख्यक विकास बोर्ड ने ही ऐसे प्रमाणपत्र जारी करने का अनुरोध किया था। लेकिन इस बीच सवाल यह उठ रहा है कि संविधान में जब पहले से ही ऐसी सुविधा मौजूद है कि देश में किस आधार पर किस वर्ग को अल्पसंख्यक दर्जा मिलेगा। उसके बावजूद सत्तारूढ़ बीजेपी का यह फ़ैसला केवल एक राजनीतिक एजेंडा ही हो सकता है और कुछ नहीं।
ग़ौरतलब है कि साल 2011 की जनगणना के अनुसार, हिंदुओं की तादाद असम की कुल आबादी (3.09 करोड़) का 61.47 प्रतिशत है। उसके बाद 34.22 फीसदी की आबादी के साथ मुस्लिम दूसरे नंबर पर है। तीसरे नंबर पर रहे ईसाइयों की तादाद 3.74 फीसदी है जबकि बौद्ध, सिख और जैन समुदाय की आबादी एक फीसदी से भी कम हैं। अखिल असम अल्पसंख्यक छात्र संघ (आम्सू) के सलाहकार ए. अहमद कहते हैं, "पता नहीं अचानक ऐसे फ़ैसले की ज़रूरत क्यों पड़ी? शायद सरकार अलग-अलग धार्मिक अल्पसंख्यकों को अलग-अलग वर्गीकृत करना चाहती ह। इस फ़ैसले का असली मक़सद तो आगे चल कर ही पता चलेगा” राज्य के दूसरे धार्मिक अल्पसंख्यक तबकों से जुड़े लोगों या संगठनों ने फिलहाल सरकार के इस फ़ैसले पर खुल कर कोई टिप्पणी करने से इंकार कर दिया है। इस बीच असम सरकार के फ़ैसले पर कुछ राजनीतिक टीकाकारों और विशेषज्ञों का मानना है कि दिल्ली की मोदी सरकार जब से सत्ता में आई है तब से जिस तरह के फ़ैसले वह ले रही है और उसके साथ ही साथ भाजपा शासित राज्य सरकारों द्वारा जिस तरह के निर्णय लिए जा रहे हैं उससे कहीं न कहीं देश में कुछ बड़े बदलाव की आहट को साफ़ सुना जा सकता है। वहीं कुछ वरिष्ठ राजनीतिक जानकारों का यह भी कहना है की है कि अगर दिल्ली में बन रहे नए संसद भवन की इमारत के उद्घाटन के साथ ही भारत में नए संविधान की भी घोषणा कर दी जाए तो इसपर किसी को हैरान होने की ज़रूरत नहीं है। (RZ)
* लेखक के विचारों से पार्स टूडे का सहमत होना आवश्यक नहीं है*
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