आज की बातः किसान आंदोलन को ख़त्म कराने के लिए मोदी सरकार कैसे-कैसे कर रही है प्रयास?
(last modified Mon, 08 Feb 2021 13:02:30 GMT )
Feb ०८, २०२१ १८:३२ Asia/Kolkata

सितम्बर 2020 में मोदी सरकार ने कृषि सुधारों के नाम पर तीन विवादित बिल संसद से पारित करवाए, जिसका देश के किसान संगठन और विपक्ष पहले से ही विरोध कर रहे थे। बिलों के पारित होने से नाराज़, पंजाब और हरियाणा के किसान कई जगहों पर धरने पर बैठ गए। विवादित तीनों क़ानूनों को रद्द करवाने के लिए किसान संगठनों ने अपने विरोध को तेज़ करने का फ़ैसला किया और 25 नवम्बर 2020 को उन्होंने अपना धरना स्थल दिल्ली चलो नारे के साथ दिल्ली की चारों सीमाओं ग़ाज़ीपुर, सिंघू, टिकरी और शाजहांपूर पर स्थानांतरित कर दिया।

केन्द्र की मोदी सरकार और हरियाणा और यूपी की बीजेपी सरकारों ने शुरूआत में ही किसानों को दिल्ली की सीमाओं तक पहुंचने से रोकने के लिए हर संभव प्रयास किया, लेकिन किसानों के मज़बूत इरादों के सामने उनकी एक न चली। भारत के गृह मंत्री अमित शाह ने किसानों के सामने पेशकश रखी कि अगर वे अपना धरना स्थल दिल्ली की सीमाओं के बजाए किसी एक स्टेडियम में स्थानांतरित करते हैं, तो सरकार उनसे बातचीत के लिए तैयार है। लेकिन किसानों ने उनकी इस पेशकश को ठुकरा दिया। किसान यूनियन के नेता सुरजीत सिंह फूल ने पत्रकारों से बात करते हुए कहा कि, अमित शाह जिसको पार्क या स्टेडियम बता रहे हैं वास्तव में वह ओपेन जेल है।  उसके बाद दिसम्बर की शुरूआत से सरकार और किसान संगठनों के बीच बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ, लेकिन 22 जनवरी को 11वें राउंड की बातचीत के बाद भी कोई नतीजा नहीं निकल सका, यहां तक कि 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में ट्रैक्टर मार्च निकालने के दौरान हिंसा और लाल क़िले पर ख़ालसा झंडा फहराने की घटना घटी। जिसके बाद, मोदी सरकार और देश की मेन स्ट्रीम मीडिया ने एक आवाज़ होकर इस हिंसा के लिए किसान संगठनों को ज़िम्मेदार ठहराना शुरू कर दिया। सिखों और किसानों के ख़िलाफ़ जन भावनाओं को भड़काने की कोशिश की गई और किसान नेताओं के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज करके उनपर भरपूर दबाव बनाया गया। भारत की प्रतिष्ठित न्यूज़ पोर्टल साइट द वायर के एक वरिष्ठ राजनीतिक संपादक ओजय आशिर्वाद ने बताया कि वह और उनके कई साथी 26 जनवरी को दिल्ली की सड़कों पर किसानों की ट्रैक्टर परेड को कवर कर रहे थे और उन्होंने देखा कि जो पुलिस प्रशासन ने किसानों को ट्रैक्टर परेड के लिए रूट दिया था उसपर बैरिकैटिंग किए हुए था।  उसके अगले ही दिन दिल्ली की तीनों सीमाओं पर पुलिस बल की भारी तैनाती कर दी गई और किसानों को धरना स्थल ख़ाली करने का अल्टीमेटम दे दिया गया। लोगों को ऐसा लगने लगा था कि अब यह आंदोलन दम तोड़ने वाला है और सरकार लाल क़िले की घटना का सहारा लेकर, किसानों को दिल्ली की सीमाओं से खदेड़ देगी। हालांकि सिंघू और टिकरी बॉर्डर पर भारी संख्या में सिख किसान डटे हुए थे, लेकिन ग़ाज़ीपुर बॉर्डर पर आंदोलनकारी किसानों की कम संख्या को देखकर, सरकार और पुलिस प्रशासन काफ़ी उम्मीदवार हो गए थे। लेकिन ग़ाज़ीपुर बॉर्डर पर आंदोलन का नेतृत्व कर रहे भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता राकेश टिकैत की किसानों से भावुक अपील ने इस आंदोलन में एक नई जान फूंक दी और एक बार फिर बाज़ी पूरी तरह से किसानों के हक़ में पलट दी। राकेश टिकैत ने रोते हुए कहा कि वह इस आंदोलन को ख़त्म होने नहीं देंगे।

यहां हम इस बात का जायज़ा लेंगे कि किसान आंदोलन को नाकाम बनाने के लिए मोदी सरकार ने कौनसे हथकंडे अपनाए, जो अब तक बेनतीजा रहे हैं?

सबसे पहले मोदी सरकार ने प्रदर्शनकारी किसानों का दमन किया और पुलिस को उन पर लाठी डंडे बजाने के लिए खुली छूट दे दी, लेकिन इसके बावजूद आंदोलनकारी किसान डटे रहे और टस से मस नहीं हुए। अपनी यह चाल नाकाम होते देख, सरकार ने किसान नेताओं में फूट डालने की कोशिश की और इसके लिए मीडिया का भरपूर सहारा लिया, जो पहले से ही सरकार का तोता बना हुआ है। अपनी यह दोनों टैक्टिस विफल होते देख, मोदी के चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह ने बातचीत और अदालत का सहारा लिया। बातचीत के दौरान ही किसान नेताओं को डराने और धमकाने के लिए तरह तरह की चालें चली गईं। जांच एजेंसियों को किसान नेताओं के पीछे लगाया गया। बातचीत को जानबूझकर, तूल दिया गया ताकि आंदोलनकारी किसान थक जाएं और अपने घरों को वापस लौट जाएं, लेकिन किसान सरकार की इस मंशा से अच्छी तरह वाक़िफ़ थे और वे शुरू से ही एलान कर रहे थे कि हमें अगर वर्षों भी धरने पर बैठना पड़ेगा तो हम पीछे नहीं हटेंगे। इस दौरान, किसान नेताओं को ख़रीदने और उन्हें बड़े बड़े प्रलोभन देने की पेशकश की भी ख़बरें आती रहीं, लेकिन जब सरकार की एक एक करके सभी चालें नाकाम हो गईं, तो 26 जनवरी को अपने कुछ गुर्गों के ज़रिए ख़ालसा झंडा फहराकर और दिल्ली की सड़कों पर हिंसा को हवा देकर राष्ट्र की भावनाएं भड़काने की पूरी कोशिश की गई, जो इस आंदोलन के ख़िलाफ़ मोदी सरकार की अभी तक की सबसे बड़ी चाल थी। किसान नेताओं ने ख़ुद को इस हिंसा से अलग करने की बहुत कोशिश की, लेकिन सरकार और मीडिया ने जो नैरेटिव पेश किया, धीरे-धीरे वह लोगों के दिमाग़ में बैठने लगा। यहां तक कि यह प्रोपैगंडा किसान नेता राकेश टिकैत के आंसुओं के सैलाब में बह गया। द वायर न्यूज़ पोर्टल साइट की संपादक एवं वरिष्ठ पत्रकार आरफ़ा ख़ानम शेरवानी ने किसान नेता राकेश टिकैत के भावुक होने के बाद किसान आंदोलन में आए बदलाव के बारे में  कहती हैं।  विशेषज्ञों का मानना है कि मोदी सरकार अब पूरी तरह से बैकफ़ुट पर है और इसके बाद यह आंदोलन जितना लम्बा खिंचेगा, उससे मोदी की लोकप्रियता और बीजेपी के समर्थन में भारी कमी आएगी। ख़ास तौर पर पंजाब के बाद अब यह आंदोलन हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपनी जड़ें मज़बूत करता जा रहा है। हरियाणा और पश्चिमी यूपी में जाटों की एक बड़ी संख्या है और इस समुदाय ने पिछले दो आम चुनावों और यूपी के पिछले विधान सभा चुनाव में बढ़चढ़कर बीजेपी को वोट किया था। अब यही जाट समुदाय, जो मूल रूप से खेती बाड़ी से जुड़ा हुआ है, ख़ुद को ठगा हुआ महसूस कर रहा है और उसके नेता सार्वजनिक मंच से अपनी भूल में सुधार का एलान कर रहे हैं।

किसान आंदोलन के इस नए मोड़ से इस आंदोलन को इसलिए भी मज़बूती मिली है कि अब इसमें अग्रणी सिर्फ़ सिख समुदाय नहीं रहा है, जिसे हिंदुत्ववादी लगातार निशाना बनाने और देशद्रोही साबित करने का प्रयास कर रहे थे। इसलिए इस आंदोलन में आने वाले सभी उतार-चढ़ाव को देखकर यह नतीजा निकाला जा सकता है कि अब इस आंदोलन का एक एक दिन बीजेपी के लिए भारी पड़ेगा और इसका सियासी ख़मियाज़ा उसे आने वाले यूपी विधान सभा चुनाव में भुगतना पड़ सकता है। यानी वही चाल जो बीजेपी सरकार, किसान आंदोलन को ख़त्म करने के लिए चल रही थी अब वही चाल उलट गई है और इसका लम्बा खिंचना किसानों और विपक्ष के हक़ में और सरकार के लिए नुक़सानदे होगा।

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