क्यों फ़रवरी 2020 में दिल्ली में हिंसा, हिंसा नहीं बल्कि जातीय सफ़ाया थी, जातीय सफ़ाये के 10 चरण में भारत पांचवें चरण मेंःजेनोसाइड वॉच
(last modified Wed, 24 Feb 2021 13:03:21 GMT )
Feb २४, २०२१ १८:३३ Asia/Kolkata
  • क्यों फ़रवरी 2020 में दिल्ली में हिंसा, हिंसा नहीं बल्कि जातीय सफ़ाया थी, जातीय सफ़ाये के 10 चरण में भारत पांचवें चरण मेंःजेनोसाइड वॉच

हिंसा सुनियोजित व सिस्टमैटिक थी जिससे ज़ाहिर होता है कि भारतीय अधिकारी भी सहापराधी थे।

दिसंबर 2019 में नागरिकता संशोधन क़ानून पास होने के बाद, भारत के मुसलमान समुदाय, नागरिक अधिकार कार्यकर्ता और चिंतित नागरिक अभूतपूर्व स्तर पर सार्वजनिक स्थलों पर इकट्ठा हुए ताकि इसके ख़िलाफ़ अपना विरोध दर्शाएं और देश के संविधान की ओर से सेक्युलरिज़्म को क़ायम रखने के वादे की लाज रखें।

हालांकि प्रदर्शन कर रही जनता को निदां, पुलिस के हिंसक व्यवहार और मीडिया की अदालत में कड़ी कार्यवाही का सामना करना पड़ा जिसने उस पर राष्ट्र विरोधी और जिहादी का लेबल लगाया। यह इमेज, सत्ताधारी हिन्दु राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी ने बनायी जिसने क्षेत्रीय चुनावों से पहले सबसे ज़्यादा सांप्रदायिकता से प्रभावित चुनावी अभियान चलाया।

फ़रवरी के चुनाव में भाजपा की हार के तुरंत बाद, पुलिस में इस बात की शिकायत दर्ज करायी गयी कि भाजपा नेता कपिल मिश्रा ने पूर्वोत्तरी दिल्ली में जो शांतिपूर्ण प्रदर्शन का गढ़ था, प्रदर्शन कर रहे लोगों को खुली धमकी दी।

23 फ़रवरी 2020 में इस इलाक़े में हिंसा भड़की और कई दिन जारी रही जिसके नतीजे में 53 लोग जिनमें ज़्यादा मुसलमान थे, मारे गए और 250 के क़रीब घायल हुए। क़रीब 2000 लोग विस्थापित हुए।

सरकार और मीडिया ने हिंसा को दंगे का नाम देने में तेज़ी दिखाई और फ़रवरी 2020 की घटनाओं के लिए यही शब्दावली ज़्यादा इस्तेमाल किया, लेकिन जो हुआ उसे बयान करने के लिए ज़्यादा सही व सटीक टर्म, “जातीय सफ़ाया” है।

यह दिल्ली माइनॉरिटी कमीशन डीएमसी की ओर से गठित जाँच कमेटी का निष्कर्श था। यह क़ानूनी आयोग है जिसको धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी है। इस कमेटी ने पीड़ितों की गवाही और मूल क़ानूनी स्रोतों की समीक्षा की और यन निष्कर्श पेश किया कि फ़रवरी 2020 की घटनाओं को बयान करने के लिए जो शब्द सही बैठता है वह “जातीय सफ़ाया” है।

भारत के संदर्भ में यह शब्दावली इससे पहले 2002 के गुजरात नरसंहार और 1984 की सिख विरोधी हिंसा के लिए इस्तेमाल हुयी है, जिसमें व्यक्तियों द्वारा राज्य तंत्र को अपने लक्ष्य के लिए दुरूपयोग करते पाया गया।

डीएमसी की जाँच में यह बात पायी गयी कि हिंसा, सुनियोजित और सिस्टमैटिक थी जिसका मतलब यह हुआ कि हिंसा की जान बूझकर योजना बनायी गयी, उसे भड़काया गया और निशाना बनाया गया। पीड़ितों ने बारंबार अपने बयान में कहा कि वे मुजरिमों को चिन्हित कर सकते हैं, क्योंकि, वे उनके ही मोहल्लों में रहते हैं, जबकि बड़ी तादाद में अपराधियों को बाहर से बुलाया गया था। इसी तरह सीसीटीवी कैमरा सहित उन सभी चीज़ों को तबाह कर दिया गया, जिससे अपराधियों की पहचान हो सकती थी। इससे हिंसा के अपने आप भड़कने की बात ख़ारिज हो जाती है। आम तौर पर दंगे अपने आप भड़कते हैं।

बहुत सी गवाहियों और सुबूत से पुलिस का हिंसा के सामने मूक दर्शक बना रहना या कई बार बुलाने के बावजूद उसका घटनास्थल पर न पहुंचना ज़ाहिर होता है। एक घटना ऐसी थी जब गश्त कर रही पुलिस ने यह कहते हुए मदद करने से मना कियाः “कार्यवाही करने का हुक्म नहीं” था।

भारत में अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ मौजूदा रवैया ख़ास तौर पर मुसलमानों को बदनाम और बर्बर दर्शाए जाने के ख़िलाफ़ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ध्यान दिया गया। अप्रैल 2020 में अमरीका के अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता कमीशन यूएससीआईआरएफ़ ने भारत को सऊदी अरब और उत्तर कोरिया के साथ उस देश में शामिल किया जहाँ अल्पसंख़्यकों की धार्मिक आज़ादी ख़तरे में हैं।

जातीय सफ़ाये को रोकने पर काम करने वाला अंतर्राष्ट्रीय अभियान जेनोसाइड वॉच ने भारत को ख़तरे वाली लिस्ट में रखा है और जातीय सफ़ाये के 10 चरण में भारत पांचवें चरण में है, जिसमें जातीय सफ़ाया राज्य की ओर से संगठित रूप लेने के चरण में होता है और इसमें राज्य के दामन को बचाने के लिए मिलिशिया को इस्तेमाल किया जाता है। (साभारः अलजज़ीरा) (MAQ/N)

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