आतंकी गुटों के निशाने पर आख़िर क्यों रहते हैं शिया मुसलमानों के पवित्र स्थल और धार्मिक हस्तियां? वजह जानकर आपको भी होगी हैरानी!
हर सुबह मीडिया के माध्यम से मिलने वाले समाचारों में आतंकी हिंसा के बारे में कोई बुरी ख़बर ज़रूर होती है। शायद ही कोई दिन ऐसा गुज़रता है जिस दिन दुनिया के किसी न किसी हिस्से में किसी न किसी आतंकी घटना में लोगों की बलि न चढ़ती हो। दरअसल आतंकवाद, युद्ध का एक नया रूप हो गया है जो किसी सीमा को नहीं मानता और जिसका कोई स्पष्ट चेहरा भी नहीं होता। यह आतंकवाद आधुनिक तकनीक के साथ जुड़कर दुनिया में क़हर बरपा कर रहा है। साथ ही दुनिया में सबसे ज़्यादा आतंकवाद की अगर कोई बलि चढ़ा है तो वह हैं शिया मुसलमान।
रविवार की शाम ईरान के दक्षिणी शहर शीराज़ एक ख़बर आई कि जिसने दुनियाभर के शांति प्रेमी लोगों चिंतित कर दिया। ख़बर थी कि शीराज़ में स्थित शाह चेराग़ के मज़ार पर एक बार फिर आतंकी हमला हुआ। शाम की नमाज़ अदा करने के लिए लोग मज़ार की ओर जा रहे थे कि अचानक एक आतंकी एके-47 लेकर मज़ार के प्रांगढ़ में घुस गया और अंधाधुंध गोलिया चलाने लगा। जिसमें एक शहीद और 8 अन्य घायल हो गए। शहीद होने वाले 69 वर्षीय मज़ार का सेवक थे। बताया जाता है कि हमलावर दो लोग थे। सुरक्षाकर्मियों ने सही समय पर कार्यवाही करते हुए हमलावर को ज़िंदा गिरफ़्तार कर लिया। बता दें कि इससे पहले, अक्टूबर 2022 में भी शाह चिराग़ की मज़ार पर हमला हुआ था, जिसमें 13 लोग शहीद और दर्जनों अन्य घायल हुए थे। वैसे यह बता दें कि यह पहली बार नहीं है कि जब किसी रौज़े या मज़ार पर आतंकियों द्वारा हमला किया गया हो। यहां यह सवाल उठता है कि आख़िर तकफ़ीरी आतंकवादी क्यों शिया मस्जिदों, मज़ारों, रौज़ों और वरिष्ठ मुस्लिम धार्मिक हस्तियों को अपना निशाना बनाना चाहते हैं? आमतौर से देखा गया है कि आतंकवादी गुट किसी भीड़भाड़ वाली जगह पर आत्मघाती और आतंकी हमला करते हैं और सैंकड़ों लोगों को मौत के घाट उतार देते हैं। आतंकवाद का शिकार बनने वाले लोगों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। यह इस बात का संकेत है कि आतंकवाद इसलिए आज एक नासूर बन गया क्योंकि जो इसका इलाज करता है उसको ही दुनिया की साम्राज्यवादी शक्तियां मिलकर समाप्त करने की कोशिश करने लगती हैं। इससे यह पता चलता है कि यह बीमारी अपने आप अस्तित्व में नहीं आई है बल्कि इसको वजूद में लाया गया है और इसको पाल पोसकर लगातार बड़ा किया जा रहा है ताकि इसको अपने हितों को साधने के लिए इस्तेमाल कर सकें।
आतंकवाद एक तरफ़ कुछ देशों में केंद्रित है दूसरी तरफ़ दुनियाभर के कई देशों में फैला हुआ है। एक कड़वी सच्चाई यह है कि इस सदी में धर्म पर आधारित आतंकवाद के तेज़ी से उभरने की सबसे बड़ी वजह कट्टरवाद और चरमपंथ विचारों को बढ़ावा दिया जाना है। लेकिन इन सबके पीछे जो कारण निकल कर सामने आ रहे हैं वह है विश्व भर में तेज़ी से फैलते इस्लाम धर्म को बदनाम करना और उसे फैलने से रोकना है। वहीं वे शक्तियां जो आतंकवाद को इस्लाम धर्म से जोड़कर इस्लाम को बदनाम करना चाहती हैं उनके इस मिशन में सबसे बड़ी अगर कोई रुकवाट है तो वह हैं शिया मुसलमान और शिया मुसलमानों की धार्मिक हस्तियां। क्योंकि इस बात को दुनिया जानती है कि शिया मुसलमान मोहर्रम महीने में जिस आशूरा आंदोलन की याद मनाते हैं वह वास्तव में आतंकवाद के ख़िलाफ़ उनकी सबसे बड़ी मुहिम है। जो 1400 वर्ष से भी ज़्यादा समय से चलती चली आ रही है। साथ ही शिया मुसलमानों के जो पवित्र स्थल हैं और जो वरिष्ठ धार्मिक हस्तियां हैं वह उनकी सबसे बड़ी ताक़त हैं। इराक़ और सीरिया में जब दाइश अपने चरम पर था और लगातार धार्मिक स्थलों को तबाह करता जा रहा था और कुछ ही फ़ासला बचा था कि जब वह सीरिया में हज़रत ज़ैनब का रौज़ा शहीद कर देते या फिर इराक़ में कर्बला और नजफ़ पर हमला करके वहां भी तबाही मचा देते, तभी शिया मुसलमानों के वरिष्ठ धर्मगुरु आयतुल्लाह सीस्तानी के एक फ़त्वे ने आतंकवादियों और उनके आक़ाओं की सारी साज़िशों पर पानी फेर दिया। इसके अलावा ईरान के महान योद्धा शहीद क़ासिम सुलमानी के नेतृत्व में प्रतिरोधक बलों के जियालों ने आतंकवादियों को ऐसी चोट पहुंचाई कि उनके आक़ाओं की भी चीख़ें निकल आईं।
कुल मिलाकर अगर ग़ौर से देखा जाए तो यह बात पूरी तरह साफ़ है कि एक ओर जहां दुनिया भर में फैले आतंकवादी गुटों में मुसलमानों का वह वर्ग शामिल है जो अमेरिका और पश्चिमी देशों द्वारा बांटी गई कट्टरवाद और चमरपंथ की अफ़ीम को खाए हुए हैं। वहीं मुसलमानों का एक ऐसा भी वर्ग है जो शिया मुसलमानों के नाम से जाना जाता है। कई बार इन साम्राज्वादी शक्तियों ने यह षड्यंत्र रचा और प्रयास किया कि किसी भी तरह से आतंकवाद के रंग को इनपर भी चढ़ा दिया जाए, लेकिन जिनके दिलों में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की मोहब्बत हो और जिन्होंने बचपन से ही मज़लूमों पर आंसू बहाए हों, जिनकी नस-नस में ज़ालिम के ख़िलाफ़ संघर्ष के लिए ख़ून दौड़ रहा हो, वह भला कैसे आतंकवाद के समर्थक हो सकते हैं। वहीं शिया मुसलमनों के पवित्र स्थल जहां दुनिया भर में चीख़-चीख़ लोगों को अमन और शांति की दावत देते हैं वहीं ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए भी प्रोत्साहित करते हैं। साथ ही शिया मुसलमानों में मौजूद वरिष्ठ धार्मिक हस्तियों का नेतृत्व इतना मज़बूत है कि चरमपंथ और कट्टरवाद की बड़ी-बड़ी साज़िशों को वह अपने एक फ़त्वे से तबाह कर देते हैं। यही कारण है कि आतंकवादी गुट और उनके आक़ाओं का हमेशा यह प्रयास होता है कि किसी भी तरह से शिया मुसलमानों के धार्मिक स्थलों और वरिष्ठ धार्मिक हस्तियों को निशाना बनाया जाए और उन्हें बदनान किया जाए। लेकिन सच्चाई यह है कि एक हुसैनी अपना गला तो कटवा सकता है पर कभी किसी पर ज़ुल्म नहीं कर सकता। साथ ही कभी किसी ज़ालिम के सामने सिर भी नहीं झुका सकता है। (RZ)
लेखक- रविश ज़ैदी, वरिष्ठ पत्रकार। ऊपर के लेख में लिखे गए विचार लेखक के अपने हैं। पार्स टुडे हिन्दी का इससे समहत होना ज़रूरी नहीं है।
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