Jun ०५, २०२२ १३:४१ Asia/Kolkata

संघर्ष एक ऐसी चीज़ है जिसमें धैर्य, प्रतिरोध और उसका जारी रहना बहुत ज़रूरी है। कोई भी संघर्ष धैर्य व प्रतिरोध के बिना सफल नहीं हो सकता।

जिस इंसान का उद्देश्य जितना बड़ा होता है उसे उतना ही अधिक धैर्य व संयंम से काम लेना पड़ता है। इंसान को अपने गंतव्य तक पहुंचने के लिए बहुत सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है परंतु जो इंसान अपने गंतव्य तक पहुंचना चाहता है वह कठिनाइयों व समस्याओं से विचलित नहीं होता है और उसकी नज़र सदैव गंतव्य पर होती है। 15 ख़ुर्दाद 1342 हिजरी शमसी अर्थात 5 जून 1963 को ईरान में जो घटना घटी वह शाह की अत्याचारी सरकार के खिलाफ ईरानी राष्ट्र के संघर्ष के इतिहास में अमर हो गयी। उस समय ईरान में जो राजनीतिक हालात थे उनके दृष्टिगत तीन पहलुओं से 15 ख़ुर्दाद की घटना महत्वपूर्ण है। पहला यह कि इस एतिहासिक घटना का संबंध ईरान की इस्लामी क्रांति की पहले की घटनाओं से संबंध है। जिस चीज़ ने 15 ख़ुर्दाद की घटना की भूमि प्रशस्त की वह जन विरोधी कैप्च्यूलेशन कानून का पारित होना था। इस कानून के अनुसार अमेरिकी जो भी अपराध ईरान में करते उन पर ईरान में मुक़द्दमा नहीं चलाया जा सकता था। 15 खुर्दाद की घटना की दूसरा महत्वपूर्ण पहलु यह था कि इससे यह स्पष्ट हो गया था कि ईरानी जनता की क्रांति का आधार इस्लाम था जिसका उससे पहले कोई इतिहास नहीं था। ईरान की इस्लामी व्यवस्था के संस्थापक स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी रह. की एक विशेषता यह थी कि वह साम्राज्यवाद के खिलाफ खुलकर बोलते थे। उन्होंने 15 खुर्दाद की घटना से तीन दिन पहले आशूरा के उपलक्ष्य में पवित्र नगर कुम के धार्मिक शिक्षा केन्द्र फ़ैज़िया में एतिहासिक भाषण दिया था जिसमें उन्होंने अमेरिका, इस्राईल और शाह की अत्याचारी सरकार की नीतियों और उनके षडयंत्रों की पोल खोली थी।

उनके इस भाषण पर शाह की अत्याचारी व तानशाही सरकार ने कड़ी प्रतिक्रिया जताई और शाही सरकार के सुरक्षा बलों ने 15 खुर्दाद 1342 हिजरी शमसी अर्थात पांच जून 1963 की सुबह में पवित्र नगर कुम में स्थित इमाम खुमैनी रह. के घर पर हमला करके उन्हें गिरफ्तार कर लिया और तेहरान स्थानांतरित करके उन्हें जेल में बंद कर दिया। जब इमाम ख़ुमैनी रह. के गिरफ्तार होने की खबर ईरानी शहरों में फैली तो कुम, तेहरान, वरामीन, मशहद, इस्फहान और शीराज जैसे नगरों में व्यापक पैमाने पर प्रदर्शन हुए। ये प्रदर्शन जारी रहे यहां तक कि इमाम ख़ुमैनी रह. को दोबारा गिरफ्तार करके 15 वर्षों के लिए देश से निष्कासित कर दिया गया। शाह ने इमाम ख़ुमैनी रह. को सबसे पहले तुर्की निष्कासित किया फिर वहां से उन्हें कुछ समय के बाद इराक के पवित्र नगर नजफ और फिर वहां से फ्रांस निष्कासित कर दिया। घुटन और दमन के वातावरण में स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी रह. विश्व के वर्चस्ववादियों और साम्राज्यवादियों को संबोधित करके कहते थे" शक्तियों, बड़ी शक्तियों और उनके नौकरों व पिछलग्गूओं को जान लेना चाहिये कि अगर ख़ुमैनी अकेले भी रह गये तब भी अत्याचार, कुफ्र और अनेकेश्वरवाद से संघर्ष का उनका जो रास्ता है उसे वह बाक़ी रखेंगे और महान ईश्वर की मदद से इस्लामी जगत के संघर्षकर्ताओं के रहेंगे और नंगे पांव रहकर उन तानाशाहों की आराम की नींद को हराम कर देंगे जो अत्याचारों के जारी व बाक़ी रहने पर आग्रह कर रहे हैं। स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी रह. स्पष्ट शब्दों में कहते थे कि हमारा दायित्व है कि हम अन्याय व अत्याचार के मुकाबले में डट जायें, हमारी ज़िम्मेदारी यह है कि हम अत्याचार से संघर्ष करें, उसका विरोध करें। हमें इस बात से नहीं डरना चाहिये कि कहीं हम नाकाम न हो जायें। पहली बात तो यह है कि हम विफल व नाकाम नहीं होंगे ईश्वर हमारे साथ है और दूसरी बात यह है कि अगर थोड़ी देर के लिए मान भी लें कि हम विफल हो जायेंगे तो यह विदित विफलता व नाकामी होगी और आध्यात्मिक रूप से हम विफल नहीं होंगे और आध्यात्मिक सफलता इस्लाम के साथ है, मुसलमानों के साथ है और हमारे साथ है।“

15 खुर्दाद की घटना का एक महत्वपूर्ण संदेश अत्याचारियों के मुकाबले में न तो नतमस्तक होना चाहिये और न ही साम्राज्यवादियों की धौंस- धमकी से प्रभावित होना चाहिये। इन्हीं बातों को दृष्टि में रखते हुए स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी रह. फरमाया था 15 खुर्दाद इस्लाम और मुसलमानों के पुर्नजन्म का दिन है। 15 खुर्दाद के दिन को याद रखना मानवीय मूल्यों को याद रखने का दिन है। 15 खुर्दाद का दिन प्रतिरोध का वह दिन है जिसने शाह की अत्याचारी व तानाशाही सरकार का अंत कर दिया। 15 खुर्दाद को शहीद होने वाले शूरवीर जवानों, मर्दों और महिलाओं ने अपने पावन लहू से तानाशाही की बुनियादों को धाराशायी व ध्वस्त कर दिया। 15 खुर्दाद को शहीद होने वालों ने भावी पीढ़ियों को प्रतिरोध का रास्ता दिखा दिया और साथ ही उन्होंने असंभव प्रतीत होने वाली चीज़ को संभव करके दिखा दिया।  ईरानी संविधान में 15 खुर्दाद की घटना का उल्लेख इस्लामी क्रांति के इतिहास में भुलाई न जाने वाली घटना के रूप में किया गया है और इस दिन के महत्व के बारे में लिखा है” स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी रह. द्वारा अमेरिकी षडयंत्रों पर आपत्ति ईरानी राष्ट्र के एकजुट होने का कारण बनी और वह यानी 15 खुर्दाद ईरान की इस्लामी क्रांति का आरंभिक बिन्दु बना। यद्यपि स्वर्गीय इमाम खुमैनी रह. को ईरान से निष्कासित कर दिया गया था परंतु जनता उनके दिशा- निर्देशन की छत्रछाया में 15 खुर्दाद का आंदोलन आगे बढ़ रहा था और शाह की अत्याचारी सरकार ने बहुत से लोगों की हत्या कर दी, फांसी दे दी और जेल में डाल दिया। प्रमाणों से पता चला कि 15 खुदाद के दमन में शाह की अत्याचारी व तानाशाही अकेली नहीं थी बल्कि अमेरिका और जायोनी शासन ने भी उसके साथ थे। दूसरे शब्दों में शाह के अलावा अमेरिका और इस्राईल ने भी ईरानी जनता का खून बहाने में संकोच से काम नहीं लिया। शाह की तानाशाही सरकार यह सोच रही थी कि स्वर्गीय इमाम खुमैनी रह. के निष्कासित कर देने से वह क्रांति और क्रांतिकारियों का दमन कर देगी परंतु जो हुआ वह शाह की अपेक्षा के बिल्कुल विपरीत था। स्वर्गीय इमाम खुमैनी रह. अपने विचारों से ईरानी जनता को जागरुक बना रहे थे और ईरानी जनता व लोग उनके विचारों और आदेशों को व्यवहारिक बनाने के लिए हर प्रकार की कुर्बानी देने के लिए तैयार थी। 15 खुर्दाद से पहले जो भी आंदोलन ईरान में हुए थे यद्यि उनमें धार्मिक और राजनीतिक नेता अलग- अलग थे परंतु 15 खुर्दाद में राजनीतिक और धार्मिक नेता एक हो गये थे।

15 खुर्दाद और दूसरे आंदोलनों में एक मूल अंतर यह है कि जब कोई आंदोलन आरंभ होता था तो कुछ दिनों के बाद वह कुछ व्यक्तियों और विदेशी गुटों के हितों की भेंट चढ़ जाता था परंतु 15 ख़ुर्दाद के आंदोलन में एसा कुछ नहीं हुआ। क्योंकि 15 खुर्दाद का जो आंदोलन था वास्तव में उसका आधार इस्लाम धर्म की शिक्षायें थी इसीलिए विदेशी शक्तियां न केवल इसका समर्थन नहीं करती थीं बल्कि उन्होंने इसे अपने लिए भी ख़तरा समझा और इसी दृष्टिकोण के साथ उन्होंने इसके दमन में शाह का साथ दिया। 15 खुर्दाद से पहले जो आंदोलन होते थे वे तेहरान या कुछ दूसरे शहरों तक सीमित होते थे परंतु 15 खुर्दाद का आंदोलन ईरान के किसी शहर तक सीमित नहीं था बल्कि यह समूचे ईरान में फैल गया था।यद्यपि 15 खुर्दाद का आंदोलन 57 साल पहले हुआ था और विदित में उसे कुचल दिया गया था परंतु उसकी जो विशेषतायें थीं उसके कारण वह जारी रहा यहां तक कि उसने 2500 साल पुरानी राजशाही सरकार का अंत करके उसे इतिहास का भाग बना दिया और आज पूरे इतिहास में वह समस्त समाजों के लिए वह सीख बन गयी है। 15 खुर्दाद के आंदोलन की एक विशेषता यह थी कि वह पूरी तरह धार्मिक था जबकि उससे पहले तेल उद्योग के राष्ट्रीयकरण के लिए होने वाले जैसे आंदोलन पूरी तरह धार्मिक नहीं थे। 15 खुर्दाद से पहले होने वाले आंदोलनों के राजनीतिक और धार्मिक नेता अलग- अलग होते थे जबकि 15 खुर्दाद के आंदोलन में एसा नहीं था और उसका नेता एक साहसी, राजनीतिक और धार्मिक इंसान था और समस्त गुट और लोग भी उसे अपना नेता कहते व समझते थे। 15 खुर्दाद से पहले होने वाले आंदोलन आरंभ में ही या बीच कुछ लोगों के हितों के कारण अपने लक्ष्यों से हट गये परंतु 15 खुर्दाद को होने वाला आंदोलन स्वतंत्र रूप से जनांदोलन और उसका आधार इस्लाम था।15 ख़ुर्दाद का आंदोलन तानाशाही के खिलाफ इतने व्यापक पैमाने पर होने वाला पहला आंदोलन था जिसमें ईरान की मुसलमान महिलायें हिजाब के साथ थीं और यह आंदोलन पवित्र नगर क़ुम से आरंभ हुआ था जिसमें बहुत सी ईरानी महिलाएं भी शहीद हुईं। 15 खुर्दाद 1342 हिजरी शमसी में होने वाले आंदोलन के कुछ परिणाम लघुकालिक जबकि कुछ दीर्घकालिक थे और उसके परिणामों में सबसे महत्वपूर्ण परिणाम शाह की तानाशाही सरकार का अंत था।

रोचक बात यह है कि 15 खुर्दाद के आंदोलन से पहले तक रज़ा शाह स्वंय को एक मुसलमान व मोमिन व्यक्ति दिखाता व दर्शाता था और कभी- कभी वह यह भी कहता था कि उसे ग़ैबी सहायता प्राप्त है परंतु 15 खुर्दाद के आंदोलन के दौरान उसने अपनी वास्तविकता स्पष्ट कर दी। वह स्वयं को शीया धर्म और शीया मुसलमानों का रक्षक समझता था और इस राष्ट्र के दुश्मनों को शीयों का दुश्मन बताता था। जैसाकि उसका पिता रज़ा खान सत्ता तक पहुंचने के लिए आरंभ में इमामों की पावन समाधियों की ज़ियारत करने और धर्मगुरूओं से मुलाक़ात के लिए जाता था। यही नहीं रज़ा ख़ान नंगे पैर इमाम हुसैन अलै. की शोक सभाओं में भाग लेता था मगर जैसे ही उसे यह एहसास हुआ कि उसकी सरकार के स्तंभ व आधार मज़बूत हो गये हैं तो उसने हिजाब करने और मोहर्रम में इमाम हुसैन अलै. की अज़ादारी को मना कर दिया।1342 हिजरी शमशी में शाह के सुरक्षा कर्मियों ने पवित्र क़ुम के प्रसिद्ध धार्मिक शिक्षा केन्द्र मदरसये फैज़िया पर हमला करके बहुत से धार्मिक छात्रों को शहीद कर दिया। शाह के इस कार्य से उसके चेहरे पर इस्लाम की पड़ी नकाब हट गयी और अब एसी कोई चीज़ बाकी नहीं रही जिससे उसके इस कृत्य का औचित्य दर्शाया जा सके। यद्यपि शाह ने इसके बाद दोबारा मस्जिदों का निर्माण और पवित्र कुरआन को छपवाना आरंभ कर दिया ताकि दोबारा लोगों में स्वंय को धार्मिक दर्शाये परंतु उसके इस पाखंड का कोई नतीजा नहीं रहा और 15 खुर्दाद का जो आंदोलन था उसका नेतृत्व धर्मगुरू कर रहे थे और इस आंदोलन के बाद शाह की तानाशाही सरकार को अवैध सरकार की संज्ञा दी गयी और समाज में जो मुश्किलें व समस्यायें थीं उसके लिए शाह को ज़िम्मेदार बताया गया और पहली बार तानाशाह मुर्दाबाद के नारे लगाये गये। उसके पहले तक कोई शाह पर टीका- टिप्पणी करने का साहस नहीं करता था परंतु स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी रह. ने 1342 हिजरी शमसी में आशूर के दिन शाह की आलोचना की जिससे शाह की जो धौंस थी वह खत्म हो गयी। यह वह चीज़ है जिसे शाह की गुप्तचर सेवा सावाक ने अपनी रिपोर्ट में स्वीकार किया है। बहरहाल 15 खुर्दाद के आंदोलन ने यह सिद्ध कर दिया कि जनता और लोग अपने भविष्य का निर्धारण स्वंय कर सकते हैं और एकजुट रहकर बड़ी से बड़ी तानाशाही सरकार का अंत भी कर सकते हैं यद्यपि उन सरकारों को दुनिया की वर्चस्ववादी शक्तियों का समर्थन ही क्यों न प्राप्त हो।

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