Dec ३१, २०२३ १४:१२ Asia/Kolkata

दोस्तो ईरान के महान योद्धा जनरल क़ासिम सुलेमानी की शहादत की बरसी को मौक़े के पर विशेष कार्यक्रम की पहली कड़ी के साथ आपकी सेवा में हाज़िर हैं।

दोस्तो जैसाकि आप जानते ही हैं कि जनरल क़ासिम सुलेमानी का संबंध न किसी प्रसिद्ध परिवार से था और न ही किसी कुलीन वर्ग से था, वह एक समान्य परिवार से संबंध रखते थे। हालांकि प्रसिद्ध समाचार पत्र गार्जियन का उनके बारे में कहना है कि "जनरल क़ासिम सुलेमानी क्षेत्र के एक बहुत ही दूरदर्शी, बुद्धिमान और यथार्थवादी जनरल थे। वह पश्चिम में ईरान की तलवार थे, एक जनरल जो बेहद शांत था और एशिया में किसी भी अमेरिकी ऑपरेशन को हराने की क्षमता रखता था, पश्चिमी मीडिया उन्हें एक बेमिसाल कमांडर के नाम से याद करता था, लेकिन यह कमांडर इतना सादा था, इतना ज़्यादा ज़मीन से जुड़ा हुआ था कि अपनी वसीयत में, उन्होंने अनुरोध किया था कि उनकी क़ब्र पर केवल "सैनिक  क़ासिम सुलेमानी" ही लिखा जाए।"

जनरल क़ासिम सुलेमानी दुनिया की एक ऐसी महान हस्तियों में शामिल हो चुके हैं कि जिनके बारे में लोग जानना और सनना चाहते हैं। शहीद क़ासिम सुलेमानी न केवल एक महान कमांडर थे बल्कि आज के दौर में उनकी गिनती सबसे प्रभावशाली राजनीतिक और सैन्य शख़्सियतों में होती है। उनका जीवन काफ़ी उतार-चढ़ाव भरा रहा है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही है कि हर स्थिति को कैसे संभालना है और उससे कैसे निपटना है उनसे बेहतर कोई नहीं जानता था। शायद कम ही लोग जानते हैं कि जनरल क़ासिम सुलेमानी के व्यक्तित्व के गुणों की जड़ें, विशेषकर उनकी बहादुरी, जो हमेशा प्रसिद्ध रही है, जिसके बारे में हमेशा चर्चा भी होती है, यह बहादुरी उनके बचपन में ही उनके अंदर आ चुकी थी। वह भी एक सुदूर और वंचित गांव में, लेकिन एक दयालु और धार्मिक परिवार में परवरिश इसकी ख़ास वजह रही।

जनरल क़ासिम सुलेमानी का जन्म 11 मार्च 1957 को किरमान प्रांत के राबोर गांव के नज़दीक क़ानातुल मलिक नामक क्षेत्र में एक धार्मिक परिवार में हुआ था। वे स्वयं अपने संस्मरणों में कहते हैं "मुझे वसंत का आगमन बहुत पसंद था, हमारी सर्दियां बहुत कठिन थीं, हम प्लास्टिक की शर्ट पहनते थे जिन्हें हम "बेशूर बेपूशू" यानी धो और पहनो कहते थे और करामत साहब की पत्नी "ईरान ख़ानम" उन्हें बिना किसी कवर के सिलती थीं, हम वही पहना करते थे। कभी-कभी हम ठंड के कारण अपनी चादर के साथ-साथ अपनी मां की चादर भी ले लिया करते थे। मेरी मां मेरे सिर को अपने दुपट्टे से कसकर बाँध देती थी ताकि हवा मेरे कानों में न जाए, हम ठंड के कारण लगातार अपने दाँत पीस रहे होते थे, मेरी मां सर्दियों में कुछ सूखा खाना खाती थी,  जो पत्थर की तरह कठोर होता था। शलजम की तरह कोई चीज़ हुआ करती थी कि जिसे चबाने में हमें आधा दिन लग जाता था।

यह एक कठिन समय था, उन वर्षों में ठंडी और बर्फ़ीली सर्दियां थीं, मैं और मेरे भाई-बहन आग के कुंड के नीचे आलू खोदते, पकाते और खाते थे। मुझे याद है, मेरे पिता ने सर्दियों के लिए रबर के जूते की एक जोड़ी ख़रीदी थी, लेकिन गिरने वाली बर्फ़ मेरी कमर से ऊपर तक थी और रबर के जूतों से उसपर कोई असर नहीं होता था, क्योंकि वह रबर था, इससे ठंड और भी बदतर जाती थी। स्कूल का हीटर, मां द्वारा खाने के लिए जलाई जाने वाली अंगेठी की तरह था। जो हम सभ को एक साथ एक स्थान पर बैठने के लिए मजबूर करता था। मानो हम आग की इस भट्टी को गले लगाना चाहते हों। मेरे पिता नमाज़-क़ुरआन करने वाले व्यक्ति थे, शायद उस समय कुछ लोग और भी नमाज़ पढ़ा करते थे, लेकिन मेरे पिता अव्वल वक़्त यानी जैसे ही नमाज़ का समय होता था उसी समय उसको पढ़ने के लिए सख़्ती के साथ ज़ोर दिया करते थे।

जनरल क़ासिम सुलेमानी बताते हैं कि मेरे पिता सुबह की नमाज़ का समय आसमान के सितारों और दोपहर की नमाज़ के समय को सूरज से पड़ने वाले साए से पहचाना करते थे। जिस प्रकार मेरे पिता नमाज़ के प्रति समर्पित थे, उसी प्रकार वह हलाल और हराम के प्रति भी समर्पित थे। हमारे क़बीले के सभी लोग मेरे पिता को अच्छी तरह से पहचानते और जानते थे। मैं इस बात पर गर्व कर सकता हूं कि मेरे पिता के जीवन में एक भी हराम का गेहूं नहीं आया। बता दें कि क़ासिम सुलेमानी बचपन से ही एक निडर बालक थे। उन्होंने अपने नोट्स में लिखा, मुझे याद है कि मैं 10 साल का था। गर्मियों की छुट्टियां थीं, स्कूल बंद था, फ़सल की कटाई का समय था, मेरे पिता के पास एक ख़तरनाक सांड था, जिसके सींग मारने से हर कोई डरता था। लेकिन मैं उसपर सवार हो जाता था, एक बार तो मैं उसी पर बैठकर 15 किलोमीटर तक अपनी मौसी के घर भी पहुंच गया था।

जनरल क़ासिम सुलेमानी कम उम्र में रूबेला नामक एक बीमारी से संक्रमित हो गए थे, लेकिन वह इस बीमारी से उबरने में सफल रहे। उन्होंने बचपन में किरमान प्रांत के गर्म और ठंडे क्षेत्रों के बीच निरंतर प्रवास और खानाबदोश जीवन व्यतीत किया। क़ासिम सुलेमानी ने "क़ानातुल मलिक" गांव में पढ़ाई शुरू की और साथ ही कृषि और पशुपालन में अपने पिता की मदद की। वह बचपन से ही हर किसी की मदद करने की कोशिश करते थे। वह अपने परिवार का बहुत ख़्याल रखते थे। उस समय जीवन व्यतीत करना कोई आसान काम नहीं था। बहुत ही कठिन परिस्तिथियों से ग़ुज़रना पड़ता था। इस हद तक कि गेहूं की रोटी भी तैयार करना मुश्किल था और लोग जौ और यहां तक ​​कि बाजरे की रोटी से और कभी-कभी वसंत और गर्मियों में खेतों में सब्ज़ियां तोड़कर अपना जीवन यापन करते थे। अपनी युवावस्था की शुरुआत में, उन्हें एहसास हुआ कि उनके पिता ग्रामीण सहकारी बैंक के क़र्ज़ में डूबे हुए थे, इसलिए उन्होंने किरमान शहर जाकर अपने पिता का क़र्ज़ चुकाने और उन्हें क़र्ज़ न चुका पाने की वजह से होने वाली समस्याओं से बचाने के लिए काम करने का फ़ैसला किया।

क़ासिम सुलेमानी 13 वर्षीय आयु में काम की तलाश में किरमान शहर चले गए, लेकिन चूंकि वह काफ़ी पतले-दुबले थे इसलिए कोई उन्हें काम पर नहीं रख रहा था। अंत में, उन्होंने एक ठेकेदार से रो-रोकर आधे-अधूरे भवन में श्रमिक बनने के लिए गुहार लगाई और फिर उन्हें ठेकेदार ने काम पर रख लिया। कुछ समय बाद वह किरमान में एक होटल के कर्मचारी बन गए और पांच महीने के बाद उसने अपना सारा वेतन, जो एक हज़ार तूमान (ईरानी मुद्रा) था, अपने पिता को अपना क़र्ज़ चुकाने के लिए भेज दिया। क़ासिम सुलेमानी की किरमान की पहली यात्रा 9 महीने तक चली। उन्होंने अपनी अगली किरमान यात्रा में, ईरान के पारंपरिक व्यायाम "ज़ोरखाना" भी जाना शुरू कर दिया। होटल में काम करने के बाद, वह आमतौर पर या तो पढ़ाई करते थे या फिर "ज़ोरखाना" जाकर व्यायाम करते थे। जब किरमान में पहला कराटे स्कूल स्थापित हुआ, तो वह वहां जाने वाले पहले लोगों में से एक थे, और काम और पढ़ाई के साथ-साथ उन्होंने बॉडी बिल्डिंग के स्तर तक पेशेवर खेल भी जारी रखा।

जनरल शहीद क़ासिम सुलेमानी अपने संस्मरणों में कहते हैं: "मैंने व्यायाम करना शुरू किया, पहले मैं ज़ोरखाने अताई गया, फिर ज़ोरखाने जहान, खेल और धार्मिक विश्वास जो मेरे माता-पिता ने मेरे अंदर कूट-कूट कर भरा था, उसने मुझे उस समय समाज में फैले गंभीर भ्रष्टाचार की ओर जाने से रोका। वर्ष 1976 में मेरे एक दोस्त जिनका नाम अहमद था, उनके द्वारा दिए गए सुझाव की वजह से मैंने क़ायम नामक मस्जिद का दौरा किया, जहां श्री हक़ीक़ी पवित्र क़ुरआन पढ़ाया करते थे, मैं उनकी बातों से बहुत प्रभावित हुआ और धीरे-धीरे मेरा धर्म के प्रति झुकाव और अधिक होने लगा। जनरल क़ासिम सुलेमानी के भाई सोहरोब सुलेमानी अपने भाई के बारे में बताते हैं कि "आर्थिक समस्याओं को हल करने के लिए क़ासिम को किरमान में स्थानांतरित होने के लिए मजबूर होना पड़ा, लेकिन वह माता-पिता से बेहद प्यार करते थे और अपने व्यस्त कार्यक्रम के बावजूद अपने रिश्तेदारों और माता-पिता की स्थिति की उपेक्षा नहीं करने की कोशिश करते थे। वह अवसर मिलते ही पहली ही फ़ुर्सत में माता-पिता से मिलने आया करते थे। माता-पिता के प्रति उनके मन में विशेष सम्मान था। वह हमेशा पिता के हाथों और मां के पैरों को चूमते थे और मानते थे कि ईश्वर ने इस्लाम, मुसलमानों और दुनिया के पीड़ितों की सेवा के लिए अपना जीवन देने का एक कारण उनके पिता और मां की प्रार्थनाएं, उनका हलाल भोजन और उनकी धार्मिकता थी।"

क़ासिम सुलेमानी ने इंटरमीडिएट की डिग्री प्राप्त करने के बाद, "किरमान जल विभाग" में एक ठेकेदार के रूप में काम करना शुरू कर दिया। वर्ष 1979 में ईरान की इस्लामी क्रांति की महान सफलता के बाद किरमान जल विभाग में एक ठेकेदार के रूप में, वह आईआरजीसी किरमान कोर के मानद सदस्य बन गए। पवित्र पवित्र रक्षा की शुरुआत से पहले और कुर्द विद्रोह के साथ, वह देश के पश्चिमी क्षेत्रों में गए। ईरान की इस्लामी क्रांति की घटनाओं के दौरान, उनकी मुलाक़ात "रज़ा कामयाब" नामक मशहद के एक धर्मगुरु से हुई, जिन्होंने उन्हें इस्लामी क्रांति से और अधिक परिचित कराया। हालांकि रज़ा कामयाब का साथ बहुत दिनों तक नहीं रह पाया, क्योंकि आतंकवादी मुनाफ़ेक़ीन गुट ने उन्हें वर्ष 1981 में शहीद कर दिया।

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इस दौरान जनरल क़ासिम सुलेमानी की मशहद के एक और क्रांतिकारी धर्मगुरु सैयद अली ख़ामेनेई से मुलाक़ात हुई। इस्लामी क्रांति के सर्वोच्च नेता से मुलाक़ात ने शहीद जनरल क़ासिम सुलेमानी को इस्लाम और मातृभूमि का एक सैनिक होने के नाते और अधिक दृढ़ बना दिया। किरमान के दूरदराज़ के गांवों में एक ग्रामीण के रूप में जनरल क़ासिम की कहानी, जो अपने जीवन की कठिनाइयों के बाद समृद्धि और सशक्तिकरण के शिखर पर पहुंची और फिर, पवित्र रक्षा विश्वविद्यालय में भाग लेने से उसने कामयाबी की नई-नई ऊंचाईयों को छूआ। आज वह एक ऐसे नायक का आदर्श उदाहरण है जो अपने जीवन में बाधाओं और समस्याओं को दूर करने में सक्षम था, लेकिन गंभीर दृढ़ संकल्प और दृढ़ विश्वास के साथ, वह एक सच्चे और महान मुसलमान के ऊंचे पद तक पहुंच गया। (RZ)

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