Jan १९, २०२४ १९:३६ Asia/Kolkata

सूरा ग़ाफ़िर आयतें 53-56

आइए पहले सूरए ग़ाफ़िर की आयत संख्या 53 और 54 की तिलावत सुनते हैं,

وَلَقَدْ آَتَيْنَا مُوسَى الْهُدَى وَأَوْرَثْنَا بَنِي إِسْرَائِيلَ الْكِتَابَ (53) هُدًى وَذِكْرَى لِأُولِي الْأَلْبَابِ (54)

इन आयतों का अनुवाद हैः

और हम ही ने मूसा को हिदायत (की किताब तौरेत) दी और बनी इसराईल को (उस) किताब का वारिस बनाया [40:53] जो अक़्लमन्दों के लिए (पूरी की पूरी) हिदायत व नसीहत है। [40:54]

पिछले कार्यक्रम में हमने यह बात की कि अल्लाह साफ़ कह चुका है कि पैग़म्बरों और उनके अनुयाइयों की ज़रूर मदद करेगा। यह आयतें अल्लाह की तरफ़ से की जाने वाली मदद का उदाहरण पेश करते हुए कहती हैं कि जब हज़रत मूसा को हमने पैग़म्बर नियुक्त किया तो उन्हें हमने यह रास्ता दिखाया कि वे फ़िरऔन और बनी इस्राईल को एक अल्लाह की इबादत की दावत दें। इसी तरह हमने तौरैत किताब नाज़िल की ताकि हज़रत मूसा के बाद भी यह किताब बनी इस्राईल क़ौम के बीच हिदायत का ज़रिया रहे और उसे पढ़कर वे ग़फ़लत से बाहर निकलें और अपनी ज़िम्मेदारियों और दायित्वों को समझें।

आसमानी किताब अक़्लमंद इंसानों के लिए हिदायत और मार्गदर्शन का ज़रिया है। लेकिन बुद्धिहीन और ज़िद्दी लोगों को इससे कोई फ़ायदा नहीं मिलता। दरअस्ल आसमानी किताब से केवल उन लोगों को फ़ायदा पहुंचता है जिनके काम विवेक और अक़्ल व तर्क से समन्वित होते हैं, जज़्बात और इच्छाओं के दबाव में वे काम नहीं करते। यह सही है कि अक़्ल सभी इंसानों को दी गई है लेकिन बहुत से लोग ऐसे होते हैं जिन पर इच्छाओं का क़ब्ज़ा होता है अक़्ल और विवेक का नहीं। क़ुरआन के अनुसार बहुत से लोगों का ख़ुदा उनकी इच्छाएं होती हैं। इस तरह के लोग हमेशा इच्छाएं पूरी करने की फ़िक्र में रहते हैं और ज़्यादा से ज़्यादा फ़ायदा हासिल करना उनका मक़सद होता है।

इन आयतों से हमने सीखाः

हम सभी इंसानों यहां तक कि पैग़म्बरों को भी अल्लाह के मार्गदर्शन की ज़रूरत होती है। अलबत्ता पैग़म्बरों को यह हिदायत प्रत्यक्ष रूप से मिलती है और अन्य लोगों को पैग़म्बरों के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से मिलती है।

पैग़म्बरों की विरासत महल, बाग़ और धन दौलत नहीं बल्कि उनकी सबसे बड़ी विरासत वह किताब है जो वे इंसानों की हिदायत के लिए लाते हैं।

इंसान को हर हाल में टोकने वाले की ज़रूरत होती है, अगर टोका न जाए तो हिदायत को इंसान धीरे धीरे भूल जाता है।

अक़्ल इंसान को वहि का रास्ता दिखाती है और यह दोनों सहारे इंसान को नेक अंजाम तक पहुंचा देते हैं।

अब आइए सूरए ग़ाफ़िर की आयत संख्या 55 की तिलावत सुनते हैं,

فَاصْبِرْ إِنَّ وَعْدَ اللَّهِ حَقٌّ وَاسْتَغْفِرْ لِذَنْبِكَ وَسَبِّحْ بِحَمْدِ رَبِّكَ بِالْعَشِيِّ وَالْإِبْكَارِ (55)

इस आयत का अनुवाद हैः

(ऐ रसूल) तुम (उनकी शरारत) पर सब्र करो बेशक ख़ुदा का वायदा सच्चा है, और अपनी (उम्मत की) गुनाहों की माफ़ी माँगो और सुबह व शाम अपने परवरदिगार के गुणगान के साथ साथ तसबीह करते रहो। [40:55]

वैसे तो इस आयत में ख़ुद पैग़म्बर को मुख़ातिब किया गया है मगर इसके आदेश आम हैं। इस आयत में कई बिंदुओं का ज़िक्र है।

एक तो यह कि जब तुमने देख लिया कि पिछले पैग़म्बरों की हिदायत और उनकी मदद करने का अल्लाह का वादा सच्चा है तो तुम भी लोगों को सत्य के रास्ते पर बुलाने और उनका मार्गदर्शन करने के सिलसिले में संयम से काम लो। उनकी ज़िद और बार बार इंकार और उल्लंघनों को देखकर मायूस न हो। इसलिए कि सारे मैदानों में आपकी सफलता की कुंजी प्रतिरोध और डटे रहना और कठिनाइयों पर संयम दिखाना है। यक़ीनन अगर तुम डटे रहोगे तो मदद करने का अल्लाह का वादा भी पूरा होगा। अल्लाह के वादे पर यक़ीन इंसान को सत्य के रास्ते पर टिके रहने का हौसला देता है और कठिनाइयां बर्दाश्त करने की उसमें हिम्मत पैदा करता है।

दूसरा बिंदु यह है कि अगर आपने इस राह में कोताही की तो फ़ौरन अल्लाह से माफ़ी मांग कर और तौबा करके अपने दिल को गुनाह की गंदगी से साफ़ कीजिए।

यह ज़ाहिर है कि अल्लाह के पैग़म्बर मासूम होते हैं उनसे कोई भी गुनाह नहीं हो सकता। क्योंकि अगर वे अल्लाह की अवमानना करने वाले होते तो वे इंसानों को कैसे नसीहत करेंगे कि गुनाहों की तरफ़ न जाएं बल्कि पैग़म्बरों का अनुसरण करें। पैग़म्बर बनने के लिए मासूम और पाकीज़ा होना ज़रूरी है।

अगर क़ुरआन की आयतों में पैग़म्बरे इस्लाम के लिए गुनाह का शब्द इस्तेमाल हुआ है या दूसरे पैग़म्बरों के बारे में इस तरह की बात कही गई है तो इससे तात्पर्य वह गुनाह नहीं है जो आम लोग कर बैठते हैं। अल्लाह की अवज्ञा करना आम लोगों का गुनाह होता है मगर चूंकि पैग़म्बरों का मर्तबा बहुत ऊंचा होता है इसलिए उनके लिए यह मुनासिब नहीं कि एक लम्हे के लिए भी अल्लाह की याद से ग़ाफ़िल हों। अगर हुए तो यह उनके लिए एक प्रकार का गुनाह है। दरअस्ल पैग़म्बरों का गुनाह यह नहीं है कि उन्होंने अल्लाह के हुक्म की अवमानना की हो। बल्कि यह दरअस्ल उनका एहसास होता है कि जिस तरह उन्हें अल्लाह की फ़रमां बरदारी करनी चाहिए थी नहीं की, जिस ख़ूबी के साथ ज़िम्मेदारी पर अमल करना था उस ख़ूबी के साथ अमल नहीं किया। बिल्कुल उस मेज़बान की तरह जो किसी मेहमान को अपने घर बुलाता है और उसकी आवभगत के लिए पूरी जान लगा देता है। मगर आख़िर में उससे माफ़ी मांगता है क्योंकि उसने अपनी सकत भर तो पूरी आवभगत की लेकिन उसे महसूस होता है कि यह ख़ातिरदारी मेहमान की शान के मुताबिक़ नहीं थी।

आख़िरी बिंदु यह कि अल्लाह के ज़िक्र और उसके गुणगान और तस्बीह करने से इंसान अपने ईमान को मज़बूत बनाता है।

इस आयत से हमने सीखाः

अगर हमें अल्लाह के वादों पर यक़ीन है तो हमें धार्मिक दायित्वों को पूरा करने के लिए दृढ़ता और संयम से काम करना चाहिए और कठिनाइयां बर्दाश्त करने से नहीं घबराना चाहिए।

पैग़म्बरों सहित सारे इंसानों की ज़िम्मेदारी है कि तौबा करें क्योंकि इंसानों की कमियां या पैगम़्बरों की क्षमताओं की सीमितता कारण बनती है कि  अल्लाह की शान के मुताबिक़ अपनी ज़िम्मेदारी पर अमल न कर सकें।

ज़िक्र और तस्बीह दिन रात लगातार करते रहना चाहिए ताकि इंसान का उत्थान हो और उसके ईमान की जड़ें मज़बूत हों।

गुणगान के साथ तस्बीह दोनों ज़रूरी हैं। ताकि अल्लाह की नेमतों का शुक्र भी अदा होता रहे और उसे हम बंदों पर किसी भी तरह की ज़्यादती और अत्याचार से हम पाक समझें।

अब आइए सूरए ग़ाफ़िर की आयत संख्या 56 की तिलावत सुनते हैं,

إِنَّ الَّذِينَ يُجَادِلُونَ فِي آَيَاتِ اللَّهِ بِغَيْرِ سُلْطَانٍ أَتَاهُمْ إِنْ فِي صُدُورِهِمْ إِلَّا كِبْرٌ مَا هُمْ بِبَالِغِيهِ فَاسْتَعِذْ بِاللَّهِ إِنَّهُ هُوَ السَّمِيعُ الْبَصِيرُ (56)

इस आयत का अनुवाद हैः

जिन लोगों के पास (ख़ुदा की तरफ़ से) कोई दलील तो आयी नहीं और (फिर) वह ख़ुदा की आयतों में (बेवजह) झगड़े निकालते हैं, उनके दिल में बुराई (की बेजा हवस) के सिवा कुछ नहीं हालाँकि वह लोग उस तक कभी पहुँचने वाले नहीं तो तुम बस ख़ुदा की पनाह माँगते रहो बेशक वह बड़ा सुनने वाला (और) देखने वाला है। [40:56]

यह आयत दीन के इंकार और दीन के ख़िलाफ़ लड़ने की बुनियादी वजह बयान करती है। आयत कहती है कि जो लोग बिना किसी दलील और साक्ष्य के क़ुरआन की आयतों और पैग़म्बरों के चमत्कारों का इंकार कर देते हैं और बेबुनियाद बहसों और झगड़ों के ज़रिए दूसरों को दीन से दूर कर देने की कोशिश करते हैं उनके अंदर एक ही भावना घमंड और आत्म मुग्धता की होती है।

वे ख़ुद को बहुत महान और ईमान वालों को तुच्छा समझते हैं। इसलिए वे न तो पैग़म्बरों की दावत स्वीकार करते हैं और न ही चाहते हैं कि दूसरे भी पैग़म्बरों के रास्ते को स्वीकार करें ताकि अपने ख़याल में यह कामयाबी हासिल कर लें कि पैग़म्बरों को कोई ऊंचा मुक़ाम नहीं मिल रहा है। मगर अल्लाह ने वादा किया है कि सारी रुकावटों को अल्लाह दूर करेगा और विरोधियों को उनके दुष्ट उद्देश्यों में कामयाब नहीं होने देगा।

इस आयत से हमने सीखाः

बहुत से लोगों के कुफ़्र और इंकार की वजह सत्य के सामने उनका घमंड और अपने को ऊंचा समझना है। इंकार की वजह यह नहीं कि हक़ बात और अल्लाह की कलाम उनकी समझ में नहीं आया है।

घमंडी हमेशा समाज की बागडोर अपने हाथ में लेने की कोशिश में रहता है लेकिन उसे उसका लक्ष्य हासिल नहीं होता और अगर ज़ाहिरी तौर पर लक्ष्य मिल जाए तो भी उसे रुसवाई और बदनामी हाथ लगती है और समाज की नज़र से गिर जाता है।

हर हालत में अल्लाह से मदद मांगनी चाहिए ख़ास तौर पर जब दीन के दुशमनों के भांति भांति के मंसूबों और साज़िशों का सामना हो तब तो यह बहुत ज़रूरी है।

 

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