Jan १९, २०२४ १९:४० Asia/Kolkata

सूरा ग़ाफ़िर आयतें 57-60

आइए पहले सूरए ग़ाफ़िर की आयत संख्या 57 और 59 की तिलावत सुनते हैं,

لَخَلْقُ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ أَكْبَرُ مِنْ خَلْقِ النَّاسِ وَلَكِنَّ أَكْثَرَ النَّاسِ لَا يَعْلَمُونَ (57) وَمَا يَسْتَوِي الْأَعْمَى وَالْبَصِيرُ وَالَّذِينَ آَمَنُوا وَعَمِلُوا الصَّالِحَاتِ وَلَا الْمُسِيءُ قَلِيلًا مَا تَتَذَكَّرُونَ (58) إِنَّ السَّاعَةَ لَآَتِيَةٌ لَا رَيْبَ فِيهَا وَلَكِنَّ أَكْثَرَ النَّاسِ لَا يُؤْمِنُونَ (59)

इन आयतों का अनुवाद हैः

सारे आसमान और ज़मीन का पैदा करना लोगों के पैदा करने की तुलना में यक़ीनन बड़ा (काम) है मगर अक्सर लोग (इतना भी) नहीं जानते [40:57] और अंधा और आंख वाला (दोनों) बराबर नहीं हो सकते और न मोमेनीन जिन्होने अच्छे काम किए और बदकार (ही) बराबर हो सकते हैं, बात ये है कि तुम लोग बहुत कम ग़ौर करते हो, क़यामत तो ज़रूर आने वाली है [40:58] इसमें किसी तरह का शक नहीं मगर अक्सर लोग (इस पर भी) ईमान नहीं रखते। [40:59]

पिछले कार्यक्रम में हमने बताया कि दीन के विरोधी पैग़म्बरे इस्लाम और मोमिनों से बहस करते थे और उनकी बात स्वीकार करने पर तैयार नहीं होते थे। यह आयतें कहती हैं कि आप ज़िद्दी विरोधियों के जवाब में कहिए कि आसमानों और ज़मीन की रचना ज़्यादा बड़ा काम है या क़यामत में इंसानों को दोबारा ज़िंदा कर देना? जिसके पास ताक़त है कि आकाशगंगाओं और विशाल आसमानी ग्रहों को पैदा कर दे और उनका संचालन करे क्या वह मुर्दा इंसान को दोबारा जीवित करने में अक्षम माना जा सकता है?

इस तरह की सोच की वजह जेहालत और नादानी है जो बहुत से लोगों में होती है जो अल्लाह की ताक़त की तुलना अपनी सीमित ताक़त से करने लगते हैं और यह समझते हैं कि अल्लाह की ताक़त सीमित है।

इन आयतों में आगे कहा गया है कि देखने की ताक़त रखने वाले और अंधे बराबर नहीं हो सकते। जाहिल इंसान अंधे व्यक्ति की तरह होता है जो बहुत सार तथ्यों को समझने में असमर्थ होता है। उसकी आंखों पर घमंड का पर्दा पड़ा होता है तो नतीजे में वह सच्चाई और तथ्यों को कभी भी उनके सही रूप में नहीं देख पाता। मगर गहरी नज़र रखने वाला इंसान ज्ञान और इल्म की रौशनी में सत्य को देखता है। क्या यह दोनों समूह बराबर हो सकते हैं? हरगिज़ नहीं। देखने वाली नज़र रखने वाला इंसान यह भी देखता है कि वह कितना छोटा और निर्बल है जबकि उसके इर्द गिर्द की दुनिया कितनी विशाल और ताक़तवर है। इसीलिए उसे अपनी सही स्थिति का ज्ञान होता है। वहीं जाहिल व्यक्ति का दिल अंधा होता है उसे न तो अपनी औक़ात पता होती है और न ही वह अपनी पोज़ीशन और दुनिया की महानता को समझ पाता है। यही वजह है कि वह अपना मूल्यांकन करने में ग़लती करता है और उससे बुरे काम होते हैं।

मगर कुछ लोग होते हैं खुली आंख से देखते हैं और सच्चाई को समझते हैं।

इन आयतों में आगे जाकर क़यामत के बारे में विरोधियों की बहस के बाद अल्लाह साफ़ शब्दों में और दो टूक अंदाज़ में कहेगा कि यक़ीनन क़यामत का वक़्त आ गया है जिसमें कोई संदेह नहीं है। हालांकि बहुत से लोगों का क़यामत पर ईमान नहीं है और विरोधी तो इसे झुठलाते भी हैं मगर इसका अल्लाह के वादों के पूरा होने पर कोई असर नहीं पड़ता।

इन आयतों से हमने सीखाः

अगर हम कायनात की महानता पर ग़ौर करें और सही प्रकार समझें तो हरगिज़ ख़ुद को बड़ा नहीं समझेंगे और कभी भी घमंड नहीं करेंगे।

क़यामत के इंकार की एक वजह अल्लाह के इल्म और शक्ति के बारे में लोगों की अनभिज्ञता होती है।

कुफ़्र और गुनाह इंसान की अक़्ल को ग़ैब की बातों के समझने में अक्षम बना देते हैं इस तरह के लोग केवल वही चीज़ें और बातें महसूस कर सकते हैं जो भौतिक हैं और नज़र आती हैं।

अल्लाह की ताक़त, तत्वज्ञान और इंसाफ़ की मांग यह है कि क़यामत का दिन आने के बारे में अल्लाह का वादा पूरा हो। इसके बारे में कोई भी शक करना उचित नहीं हैं।

अब आइए सूरए ग़ाफ़िर की आयत संख्या 60 की तिलावत सुनते हैं,

وَقَالَ رَبُّكُمُ ادْعُونِي أَسْتَجِبْ لَكُمْ إِنَّ الَّذِينَ يَسْتَكْبِرُونَ عَنْ عِبَادَتِي سَيَدْخُلُونَ جَهَنَّمَ دَاخِرِينَ (60)

इस आयत का अनुवाद हैः

और तुम्हारा परवरदिगार इरशाद फ़रमाता है कि तुम मुझसे दुआएं माँगो मैं तुम्हारी (दुआ) क़ुबूल करूँगा जो लोग हमारी इबादत से अकड़ते हैं वह अनक़रीब ही ज़लील व ख़्वार हो कर यक़ीनन जहन्नम में डाले जाएंगे। [40:60]

पिछली आयत में क़यामत का दिन आने के बारे में बात की गई और बताया गया कि यह अल्लाह का पक्का वादा है जो ज़रूर पूरा होगा। यह आयत कहती है कि जहन्नम में केवल गुनहगार और पापी मुजरिम ही नहीं डाले जाएंगे बल्कि वे भी जहन्नम का लुक़मा बनेंगे जिन्होंने अल्लाह को नहीं पहचाना और उसकी इबादत से इंकार करते रहे। क्योंकि इस अमल का मतलब है सब को पैदा करने वाले अल्लाह के सामने घमंड करना। जो व्यक्ति घमंड करे, ख़ुद को सबसे बड़ा समझे और अल्लाह की इबादत न करे क़यामत के दिन बहुत रुसवा और ज़लील होगा और जहन्नम उसका ठिकाना बनेगा।

इसका यह मतलब हरगिज़ नहीं कि अल्लाह को किसी की इबादत की ज़रूरत है और हमारे इबादत करने से अल्लाह की कोई ज़रूरत पूरी होती है। बल्कि इसकी वजह यह है कि जब इंसान में घमंड पैदा हो जाए तो इसका स्वाभाविक नतीजा यही है कि वह इंसान जहन्नम में डाला जाए। यह व्यक्ति अल्लाह की इबादत करने के बजाए अपनी इच्छाओं का ग़ुलाम होता है जिसके नतीजे में वह ग़लत दिशा में ही आगे बढ़ता जाता है।

आयत के शुरु में अल्लाह की इबादत का एक उदाहरण पेश किया गया है जिसमें अल्लाह से दुआ की जा रही है और उसे पुकारा जा रहा है। यानी नमाज़ और दूसरी इबादतों के साथ साथ जो इस्लाम में बयान की गई हैं इंसान को चाहिए कि हमेशा अल्लाह को याद करे और उसे पुकारे। चाहे कठिनाई का समय हो और बंदा अल्लाह से मदद मांगे या अपनी ज़रूरतें पूरी होने की दुआ करे या अल्लाह की दी हुई नेमतों का शुक्र अदा करे। अल्लाह ने वादा किया है कि वो अपने बंदों की आवाज़ सुनेगा। अल्लाह दुआएं पूरी करता है। अलबत्ता दुआ, दुआ करने वाले और जिस चीज़ की दुआ की जा रही है उनकी कुछ शर्तें हैं जिनका ख़याल रखना चाहिए।

अल्लाह का इल्म और शक्ति असीम है लेकिन फिर भी उसकी हिकमत इस बात की अनुमति नहीं देती कि बंदों की हर ख़्वाहिश को पूरा कर दे। अल्लाह इंसान और समाज की भलाई को मद्देनज़र रखते हुए दुआ करने वाले व्यक्ति के लिए बेहतरीन हालात पैदा कर देता है ताकि उसे ज़्यादा से ज़्यादा फ़ायदा और भलाई हासिल हो सके। अलबत्ता हो सकता है कि ख़ुद इंसान को इसका अंदाज़ा न हो।

यह भी ज़रूरी है कि दुआ शुरू करके इंसान मेहनत और काम करना छोड़ न दे। अगर इंसान ने काम और मेहनत करना छोड़ दिया तो इस ग़फ़लत की वजह से भी हो सकता है कि उसकी दुआ पूरी न हो। दरअस्ल बहुत सी दुआएं पूरी न होने की एक वजह यह है कि लोग अपनी भलाई और नुक़सान को समझ नहीं पाते और अल्लाह से उस चीज़ की दुआ करने लगते हैं जो उनके लिए उचित भी नहीं है। इस स्थिति में अल्लाह उनकी दुआ क़ुबूल नहीं करता।

इस आयत से हमने सीखाः

दुआ एक तरह की इबादत है और इसे छोड़ देना बंदगी छोड़ देने के अर्थ में है।

दुआ में हम केवल अल्लाह को पुकारें और अपनी हाजतें उससे बयान करें, उसके साथ किसी को शरीक न करें।

अल्लाह हमारी हाजतों को जानता है और उसे हमारी दुआ और इबादत की ज़रूरत नहीं है। दरअस्ल क़ुरआन में दुआ के लिए अल्लाह का फ़रमान ख़ुद इंसान के लिए बड़ी बरकतों का ज़रिया है। दुआ के नतीजे में इंसान हमेशा ख़ुद को अल्लाह का मोहताज समझता है और कभी भी घमंड में नहीं पड़ता जो सारी बुराइयों और बदनसीबी की जड़ है।

अल्लाह के सामने हर तरह का घमंड क़यामत में इंसान की रुसवाई और ज़िल्लत का सबब बनेगा।

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