Mar १२, २०२५ १७:२२ Asia/Kolkata
  • क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-964

सूरए हुजुरात, आयतें 6 से 9

सबसे पहले सूरए हुजरात की 6ठी आयत की तिलावत सुनते हैं

يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آَمَنُوا إِنْ جَاءَكُمْ فَاسِقٌ بِنَبَأٍ فَتَبَيَّنُوا أَنْ تُصِيبُوا قَوْمًا بِجَهَالَةٍ فَتُصْبِحُوا عَلَى مَا فَعَلْتُمْ نَادِمِينَ (6)

इस आयत का अनुवाद हैः

ऐ ईमान वालो अगर कोई बदकिरदार तुम्हारे पास कोई ख़बर लेकर आए तो ख़ूब तहक़ीक़ कर लिया करो (ऐसा न हो) कि तुम किसी क़ौम को नादानी से नुक़सान पहुँचाओ फिर अपने किए पर शर्मिंदा हो। [49:6]

जो ख़बरें हम सुनते हैं वे दो प्रकार की होती हैं कुछ ख़बरें ऐसी होती हैं जिनका हमारी ज़िन्दगी और काम से कोई संबंध नहीं होता है और वे उन घटनाओं की सूचक होती हैं जो हमारे समाज में घट रही होती हैं मगर कुछ ख़बरें ऐसी होती हैं जिनका हमारे कार्य और ज़िन्दगी से संबंध होता है और हम उनके आधार पर फ़ैसला करते हैं कि क्या अंजाम दें और क्या अंजाम न दें। 

सूरए हुजरात की 6ठी आयत इस प्रकार यानी दूसरी प्रकार की ख़बर के बारे में है। अल्लाह फ़रमाता है कि इस प्रकार की ख़बरों के संबंध में हर प्रकार का फ़ैसला करने से पहले जांच- पड़ताल कर लिया करो कि इस ख़बर का देने वाला सही कह रहा है या झूठ? या वह जो ख़बर दे रहा है किसी व्यक्तिगत लक्ष्य से ख़बर दे रहा है या जिस ख़बर की सूचना दे रहा है वह वास्तव में हुई है? जो ख़बर हमने सुना है अगर उसमें ध्यान न दें और चिंतन- मनन न करें तो संभव है कि उसके आधार पर हम अनुचित फ़ैसला कर बैठें और उसका परिणाम ऐसा हो जिसकी भरपाई न हो सके।

 इस आयत से हमने सीखाः

अल्लाह पर ईमान रखने का तक़ाज़ा यह है कि जो भी ख़बर हम सुनें तुरंत उसके बारे में फ़ैसला व उतावलेपन से काम नहीं लेना चाहिये। सबसे पहले उसके बारे में जांच- पड़ताल करना चाहिये। मोमिन किसी भी ख़बर को आंख बंद करके स्वीकार नहीं करता है। 

अगर ख़बर देने वाला भ्रष्टाचारी और गुनहगार ही क्यों न हो तो उसकी ख़बर को सुनते ही हमें न तो क़बूल करना चाहिये और न ही उसे रद्द करना चाहिये बल्कि उसके बारे में जांच -पड़ताल करना चाहिये क्योंकि कभी भ्रष्टाचारी और झूठे इंसान भी सही बोलते हैं। 

कुछ कुछ वेबसाइटें और लोग ग़लत और झूठी ख़बरें लोगों के मध्य फ़ैलाते हैं ताकि समाज में भय व तनाव फ़ैलायें और उसकी आड़े में अपने अवैध साध सकें। अतः सामाजिक क्षति को रोकने के लिए मोमिनों को चाहिये कि वे जो ख़बर सुनते हैं उसके बारे में पहले जांच- पड़ताल करें।

बिना सोचे समझे और जांच- पड़ताल किये बिना लिए निर्णय का अंजाम पछताने वाला होगा। अलबत्ता बहुत से अवसरों पर बाद में पछताने का भी कोई फ़ाएदा नहीं होता है। क्योंकि उसकी भरपाई नहीं हो सकती है। 

आइये अब सूरए हुजरात की 7वीं और 8वीं आयतों की तिलावत सुनते हैं,

وَاعْلَمُوا أَنَّ فِيكُمْ رَسُولَ اللَّهِ لَوْ يُطِيعُكُمْ فِي كَثِيرٍ مِنَ الْأَمْرِ لَعَنِتُّمْ وَلَكِنَّ اللَّهَ حَبَّبَ إِلَيْكُمُ الْإِيمَانَ وَزَيَّنَهُ فِي قُلُوبِكُمْ وَكَرَّهَ إِلَيْكُمُ الْكُفْرَ وَالْفُسُوقَ وَالْعِصْيَانَ أُولَئِكَ هُمُ الرَّاشِدُونَ (7) فَضْلًا مِنَ اللَّهِ وَنِعْمَةً وَاللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ (8)  

 इन आयतों का अनुवाद हैः 

और जान रखो कि तुम में ख़ुदा के पैग़म्बर (मौजूद) हैं बहुत सी बातें ऐसी हैं कि अगर रसूल उनमें तुम्हारा कहा मान लिया करें तो (उलटे) तुम ही मुश्किल में पड़ जाओ लेकिन ख़ुदा ने तुम्हें ईमान की मोहब्बत दे दी है और उसको तुम्हारे दिलों में ख़ूबसूरत कर दिखाया है और कुफ़्र और बदकारी और नाफ़रमानी से तुमको बेज़ार कर दिया है यही लोग हिदायत के रास्ते पर हैं [49:7] ख़ुदा के फ़ज़्ल व एहसान से और ख़ुदा तो बड़ा सर्वज्ञानी  और हिकमत वाला है। [49:8] 

 ये आयतें अल्लाह की दो बड़ी नेअमतों की ओर संकेत करती हैं। एक लोगों की हिदायत व मार्गदर्शन के लिए पैग़म्बरों का भेजना और दूसरे वह पाक प्रवृत्ति जिसे अल्लाह ने समस्त इंसानों के अस्तित्व में रखा है। पैग़म्बर अपनी तार्किक बातों से लोगों का मार्गदर्शन करते हैं और अपने सदाचरण से दूसरे समस्त इंसानों के लिए आदर्श होते हैं। इसी वजह से अल्लाह पर ईमान रखने वाले लोग पैग़म्बरों का अनुसरण करते हैं। 

दूसरी बात यह कि अल्लाह ने इंसानों को इस प्रकार पैदा किया है कि वे अच्छे कार्यों को पसंद और बुरे कार्यो को नापसंद करते हैं। मिसाल के तौर पर जो इंसान चोरी करता है वह भी इस बात को जानता है और उसकी अंतरआत्मा यह कहती है कि चोरी करना ग़लत है।

इन आयतों से क्या सीखाः

अगर हम यह चाहते हैं कि पछताना और शर्मिन्दा न होना पड़े तो हमें अल्लाह के पैग़म्बरों की शिक्षाओं पर अमल करना चाहिये। हमें इस बात की अपेक्षा नहीं रखनी चाहिये कि अल्लाह के भेजे हुए पैग़म्बर हमारी इच्छाओं का पालन करेंगे। इस प्रकार की अपेक्षा अतार्किक और ग़लत है। 

धर्म की तरफ़ झुकाव प्राकृतिक चीज़ है और प्रकृति व फ़ितरत वह चीज़ है जिसे अल्लाह ने समस्त इंसानों के अस्तित्व में रखा है और अल्लाह ने समस्त इंसानों की रचना इस प्रकार की है कि वे अच्छाई को पसंद और बुराई को नापसंद करते हैं। 

मानव समाज का वास्तविक विकास पैग़म्बरों द्वारा लायी गयी शिक्षाओं के अनुसरण में है। इसी प्रकार इंसानी समाज का विकास उन चीज़ों से दूरी में है जिनसे पैग़म्बरों ने मना किया है।

इंसान की वास्तविक ख़ुबसूरती और सुन्दता ईमान और आध्यात्मिक एवं नैतिक परिपूर्णता में है न कि वस्त्र, मकान और सवारी आदि में।  

आइये अब सूरए हुजरात की 9वीं आयत की तिलावत सुनते हैं,

وَإِنْ طَائِفَتَانِ مِنَ الْمُؤْمِنِينَ اقْتَتَلُوا فَأَصْلِحُوا بَيْنَهُمَا فَإِنْ بَغَتْ إِحْدَاهُمَا عَلَى الْأُخْرَى فَقَاتِلُوا الَّتِي تَبْغِي حَتَّى تَفِيءَ إِلَى أَمْرِ اللَّهِ فَإِنْ فَاءَتْ فَأَصْلِحُوا بَيْنَهُمَا بِالْعَدْلِ وَأَقْسِطُوا إِنَّ اللَّهَ يُحِبُّ الْمُقْسِطِينَ (9)   

 इस आयत का अनुवाद हैः  

और अगर मोमिनीन में से दो समूह आपस में लड़ पड़ें तो उन दोनों में सुलह करा दो फिर अगर उनमें से एक (पक्ष) दूसरे पर ज़्यादती करे तो जो (समूह) ज़्यादती करे तुम (भी) उससे लड़ो यहाँ तक वह ख़ुदा के हुक्म की तरफ़ लौट आए फिर जब लौट आए तो दोनों पक्षों में बराबरी के साथ सुल्ह करा दो और इन्साफ़ से काम लो बेशक ख़ुदा इन्साफ़ करने वालों को दोस्त रखता है। [49:9] 

यह आयत समाज को नुक़सान व क्षति पहुंचाने वाली एक अन्य चीज़ की ओर संकेत करती है। इस आयत में अल्लाह कहता है कि कभी लोगों या समाज की क़ौमों के मध्य विवाद व लड़ाई हो जाती है और लोग एक दूसरे पर विजय हासिल करने के लिए अपने दोस्तों और निकट संबंधियों को बुलाते हैं। पवित्र क़ुरआन इस संबंध में बल देकर कहता है कि समाज के दूसरे लोगों को विवाद या लड़ाई का हिस्सा बनने के बजाये दोनों पक्षों के मध्य शांति करानी चाहिये ताकि लड़ाई और तनाव को फ़ैलने से रोका जाये मगर अगर दोनों पक्षों में से कोई एक पक्ष विवाद और लड़ाई के जारी रखने पर आग्रह करता है और न्याय के आधार पर शांति को क़बूल नहीं करता है तो सभी लोगों का दाइत्व है कि वे अत्याचारी गिरोह का मुक़ाबला करें ताकि समाज में फ़ित्ने को फ़ैलने से रोका जाये। 

इस आयत से हमने सीखाः

समाज की सुरक्षा के प्रति सभी ज़िम्मेदार हैं। अतः लड़ाई व विवाद हो जाने की स्थिति में चुप बैठना या लापरवाह रहना स्वीकार नहीं है। लोगों को चाहिये कि वे उन लोगों के मध्य सुलह करायें जिनके मध्य विवाद और लड़ाई हो रही है न कि आग में घी डालें। हां अगर विवाद व लड़ाई का जो पक्ष लड़ाई को जारी रहने पर आग्रह करे तो उसके साथ दूसरे लोगों को मुक़ाबला करना चाहिये यहां तक कि शांति क़ाएम हो जाये।

अत्याचारी पक्ष के मुक़ाबले में चुप रहना सही नहीं है। अत्याचारी और समाज को नुक़सान पहुंचाने वाला व्यक्ति मुसलमान ही क्यों न हो तब भी उसका मुक़ाबला किया जाना चाहिये और उसका ख़ून हराम नहीं है।

दो लोगों या पक्षों के मध्य सुलह कराने में न्याय को ध्यान में रखना चाहिये और मज़लूम के हक़ की अनदेखी व उपेक्षा नहीं की जानी चाहिये। जिस सुलह व शांति का आधार न्याय न हो वह अपमान है।

श्रोताओ कार्यक्रम का समय यहीं पर समाप्त...