क़ुरआन ईश्वरीय चमत्कार-966
सूरए हुजुरात, आयतें 13 से 18
आइये अब सूरए हुजरात की 13वीं आयत की तिलावत सुनते हैं,
يَا أَيُّهَا النَّاسُ إِنَّا خَلَقْنَاكُمْ مِنْ ذَكَرٍ وَأُنْثَى وَجَعَلْنَاكُمْ شُعُوبًا وَقَبَائِلَ لِتَعَارَفُوا إِنَّ أَكْرَمَكُمْ عِنْدَ اللَّهِ أَتْقَاكُمْ إِنَّ اللَّهَ عَلِيمٌ خَبِيرٌ (13)
इस आयत का अनुवाद हैः
लोगो! हमने तो तुम सबको एक मर्द और एक औरत से पैदा किया और हम ही ने तुम्हारे क़बीले और बिरादरियाँ बनायीं ताकि एक दूसरे की शिनाख़्त कर सको इसमें शक़ नहीं कि ख़ुदा के नज़दीक तुम सबमें बड़ा सम्मानीय वही है जो बड़ा परहेज़गार हो बेशक ख़ुदा बड़ा वाक़िफ़कार ख़बरदार है।[49:13]
मान लीजिये कि दुनिया में जितने भी इंसान हैं सब रंग-रूप भाषा आदि समस्त विशेषताओं में एक जैसे होते तो उस समय लोगों को एक दूसरे से पहचानना कठिन नहीं हो जाता? अल्लाह की एक नेअमत यह है कि उसने समस्त इंसानों को एक दूसरे से भिन्न बनाया है जो लोगों की विभिन्न जातियों, भाषाओं और क़ौमों आदि के अस्तित्व में आने का कारण बनी है। इसके अलावा हर जाति में हर इंसान की एक दूसरे से भिन्न विशेषतायें होती हैं यहां तक कि जो बच्चे जुड़वां होते हैं वे भी समस्त आयामों व पहलुओं से समान नहीं होते हैं। उनको भी उनके पिता- पिता और निकट संबंधी एक दूसरे से भिन्न रूप से पहचान लेते हैं।
पवित्र क़ुरआन इस आयत में शारीरिक व जातीय दृष्टि से इंसानों के अंदर मौजूद अंतर की ओर संकेत करता और कहता हैः इस अंतर का रहस्य यह है कि लोग एक दूसरे को पहचान सकें और सामाजिक संबंधों व लेनदेन में एक दूसरे को समस्या का सामना न हो। अलबत्ता कुछ जातियां व क़ौमें इस अंतर को अपनी श्रेष्ठता समझती हैं जबकि अल्लाह पवित्र क़ुरआन की इस आयत में कहता है कि तुम सब एक मां-बाप से हो तुम सबकी जड़ व मूल आदम और हव्वा हैं। तो गर्व का कोई कारण नहीं है और केवल वे लोग श्रेष्ठता के पात्र हैं जो सदगुणों से सुसज्जित हैं और अल्लाह के निकट उन्हें विशेष स्थान प्राप्त हैं।
इस आयत से हमने सीखाः
अरब को ग़ैर अरब पर और गोरे को काले पर कोई श्रेष्ठता प्राप्त नहीं है। सबके सब इंसान हैं और सबके माता-पिता एक ही हैं।
महिला या पुरूष होना या रंग व रूप और जाती आदि में जो अंतर दिखाई देता है वह पहचान के लिए है न कि एक दूसरे पर गर्व के लिए।
पवित्र क़ुरआन हर प्रकार के अंतर को रद्द करता है यानी उसे कोई महत्व नहीं देता है चाहे वह जातीय, क़बाएल, क़ौमी और सामाजिक ही क्यों न हो और इंसान की श्रेष्ठता का मापदंड केवल तक़वा है।
आइये अब सूरए हुजरात की 14वीं और 15वीं आयतों की तिलावत सुनते हैं,
قَالَتِ الْأَعْرَابُ آَمَنَّا قُلْ لَمْ تُؤْمِنُوا وَلَكِنْ قُولُوا أَسْلَمْنَا وَلَمَّا يَدْخُلِ الْإِيمَانُ فِي قُلُوبِكُمْ وَإِنْ تُطِيعُوا اللَّهَ وَرَسُولَهُ لَا يَلِتْكُمْ مِنْ أَعْمَالِكُمْ شَيْئًا إِنَّ اللَّهَ غَفُورٌ رَحِيمٌ (14) إِنَّمَا الْمُؤْمِنُونَ الَّذِينَ آَمَنُوا بِاللَّهِ وَرَسُولِهِ ثُمَّ لَمْ يَرْتَابُوا وَجَاهَدُوا بِأَمْوَالِهِمْ وَأَنْفُسِهِمْ فِي سَبِيلِ اللَّهِ أُولَئِكَ هُمُ الصَّادِقُونَ (15)
इन आयतों का अनुवाद हैः
अरब के देहाती कहते हैं कि हम ईमान लाए (ऐ रसूल) तुम कह दो कि तुम ईमान नहीं लाए बल्कि यूँ कहो कि इस्लाम लाए हालॉकि ईमान का अभी तक तुम्हारे दिल में गुज़र हुआ ही नहीं और अगर तुम ख़ुदा की और उसके रसूल की फ़रमाबरदारी करोगे तो ख़ुदा तुम्हारे अमल (के पारितोषिक) में से कुछ कम नहीं करेगा - बेशक ख़ुदा बड़ा बख़्शने वाला मेहरबान है। [49:14] (सच्चे मोमिन) तो बस वही हैं जो ख़ुदा और उसके रसूल पर ईमान लाए फिर उन्होंने उसमें किसी तरह का शक़ व संदेह न किया और अपने माल से और अपनी जानों से ख़ुदा की राह में जेहाद किया यही लोग (ईमान के दावे में) सच्चे हैं। [49:15]
पवित्र क़ुरआन की ये आयतें उन लोगों के दावे की ओर संकेत करती हैं जो अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान लाने का दावा करते हैं और उसे दूसरों पर गर्व और श्रेष्ठता का कारण समझते हैं जबकि अल्लाह कहता है कि ये लोग केवल ज़बान से ईमान लाने का दावा करते हैं मगर अमल में अल्लाह और उसके रसूल के आदेशों के समक्ष नतमस्तक नहीं हैं जबकि ईमान और अमल एक संबंधित हैं और कोई भी एक दूसरे के बिना कोई महत्व नहीं रखता।
पवित्र क़ुरआन की ये आयतें लोगों के ईमान की दो अलामतों की ओर संकेत करती हैं। अल्लाह इन आयतों में कहता है कि वास्तविक व सच्चा मोमिन वह है जो सच व हक़ के मार्ग में लेशमात्र भी शक नहीं करता है और धर्म की राह में जान व माल की क़ुर्बानी देने के लिए तैयार रहता है।
इन आयतों से हमने सीखाः
जो शख्स़ दीनदार होने और ईमान लाने का दावा करता है परंतु उसका अमल अल्लाह और उसके रसूल के आदेशों के अनुसार नहीं है तो ऐसे इंसान को दुनिया में मुसलमान होने का फ़ाएदा प्राप्त है परंतु परलोक में उसको कोई भी फ़ायेदा नहीं मिलेगा।
ईमान की जगह दिल है न कि ज़बान और ईमान उस वक़्त फ़ायेदा देगा जब उस पर अमल किया जाये ज़बान से ईमान के इज़्हार का कोई फ़ायेदा नहीं है। दूसरे शब्दों में इंसान का अमल उसकी दिली आस्था की पुष्टि करता है।
पवित्र क़ुरआन और अल्लाह की बातों के अलावा पैग़म्बरे इस्लाम के आदेशों पर भी अमल करना ज़रूरी व अनिवार्य है।
धर्म की राह में क़ुर्बानी का लाज़ेमा धर्म की सही पहचान है। दूसरे शब्दों में धर्म की राह में वही क़ुर्बानी देगा जो यह समझेगा कि धर्म सही है और जो लोग केवल ज़बान से ईमान का दावा करते हैं वे कभी भी धर्म की राह में क़ुर्बानी नहीं देंगे।
आइये अब सूरए हुजरात की 16वीं से 18वीं तक की आयतों की तिलावत सुनते हैं,
قُلْ أَتُعَلِّمُونَ اللَّهَ بِدِينِكُمْ وَاللَّهُ يَعْلَمُ مَا فِي السَّمَاوَاتِ وَمَا فِي الْأَرْضِ وَاللَّهُ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيمٌ (16) يَمُنُّونَ عَلَيْكَ أَنْ أَسْلَمُوا قُلْ لَا تَمُنُّوا عَلَيَّ إِسْلَامَكُمْ بَلِ اللَّهُ يَمُنُّ عَلَيْكُمْ أَنْ هَدَاكُمْ لِلْإِيمَانِ إِنْ كُنْتُمْ صَادِقِينَ (17) إِنَّ اللَّهَ يَعْلَمُ غَيْبَ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ وَاللَّهُ بَصِيرٌ بِمَا تَعْمَلُونَ (18)
इन आयतों का अनुवाद हैः
(ऐ रसूल इनसे) पूछो तो कि क्या तुम ख़ुदा को अपने ईमान लाने की बात जताते हो और ख़ुदा तो जो कुछ आसमानों मे है और जो कुछ ज़मीन में है (ग़रज़ सब कुछ) जानता है और ख़ुदा हर चीज़ से आगाह है। [49:16] (ऐ रसूल) तुम पर ये लोग (इस्लाम लाने का) एहसान जताते हैं तुम (साफ़) कह दो कि तुम अपने इस्लाम का मुझ पर एहसान न जताओ (बल्कि) अगर तुम (ईमान के दावे में) सच्चे हो तो समझो कि, ख़ुदा ने तुम पर एहसान किया कि उसने तुमको ईमान का रास्ता दिखाया। [49:17] बेशक ख़ुदा तो सारे आसमानों और ज़मीन की छिपी हुई बातों को जानता है और जो तुम करते हो ख़ुदा उसे देख रहा है। [49:18]
पैग़म्बरे इस्लाम के ज़माने में कुछ लोग पैग़म्बरे इस्लाम पर एहसान जताते और कहते थे कि हम थे जो आप पर ईमान लाये और आपकी मदद की। पवित्र क़ुरआन इन लोगों को संबोधित करते हुए कहता है कि यह कैसी अनुचित व बेतुकी बात है जो यह लोग करते हैं? अल्लाह और रसूल ने तुम पर एहसान किया कि तुम्हारी हिदायत की और गुमराही के अंधकार से निकाला और ईमान की ओर मार्गदर्शन किया।
इसके अलावा अगर तुम अपने दावे में सच्चे हो तो कहने की ज़रूरत नहीं है वह भी पैग़म्बरे इस्लाम पर एहसान जताने के साथ। क्योंकि अल्लाह आसमान और ज़मीन में जो कुछ भी है सबसे अवगत है तो तुम्हारे दिल से भी पूरी तरह अवगत है और जानता है कि तुम किस हद तक उसके धर्म के प्रति कटिबद्ध हो।
इन आयतों से हमने सीखाः
अपने ईमान और अमल की वजह से अल्लाह और उसके रसूल पर एहसान नहीं जताना चाहिये। क्योंकि उन्हें इंसान के ईमान और अमल की कोई ज़रूरत नहीं है बल्कि अल्लाह का इंसान को अज्ञानता के अंधकार से निकालना उस पर एहसान है और यह अल्लाह की बहुत बड़ी नेअमत है। तो अल्लाह और उसके रसूल का इंसान पर एहसान है न कि इंसान का अल्लाह और उसके रसूल पर।
समाज में हमें ईमान का दावा करने वालों से सावधान रहना चाहिये और उनके ज़बानी दावे और विदित छलावे में नहीं आना चाहिये।
आसमान और ज़मीन में बहुत से रहस्य पोशिदा हैं जिनसे केवल अल्लाह अवगत है।