ईरान की सांस्कृतिक धरोहर-39
ईरान में जो हस्तकलाएं प्रचलित हैं उनमें से एक, “ज़ीलोबाफी” भी है।
ईरान में जो हस्तकलाएं प्रचलित हैं उनमें से एक, “ज़ीलोबाफी” भी है। यह वास्वत में छोटा गलीचा होता है जिसे ज़मीन पर बिछाने के लिए प्रयोग किया जाता है। जब हम “ज़ीलू” या छोटे गलीचे के इतिहास को जानना चाहते हैं तो इस बारे में हमें कहीं पर भी इसका उल्लेख एतिहासिक इमारतों से अलग नहीं मिलता अर्थात जब प्राचीन इमारतों का उल्लेख किया जाता है तो साथ ही ज़ीलू के बारे में भी पढ़ने को मिलता है।
अधिकांश पुरानी मस्जिदों में इसे देखा जा सकता है। जानकारों का कहना है कि ज़ीलू की बुनाई का काम, वास्तव में चटाई बुनने की कला से प्रेरित है और यह उसी के माध्यम से आगे बढ़ा है। कुछ जानकारों का कहना है कि ज़ीलू शब्द का प्रयोग यूरोपीय संस्कृति में भी मिलता है किंतु यह शब्द वास्तव में ईरानी संस्कृति से यूरोपीय संस्कृति में गया है।

ज़ीलू बनाने का काम ईरान के यज़्द प्रांत में अधिक है उसमें भी मैबुद नामक नगर, इसकी बुनाई का केन्द्र रहा है। कहते हैं कि यज़्द प्रांत के हस्तकर्धा उत्पादों में इसकी गणना होती है। मैबुद नगर में ज़ीलू बनाने या इसकी बुनाई का काम इस्लाम के उदय से पूर्व से है। कुछ लोगों का कहना है कि ज़ीलू की बुनाई का काम मैबुद नगर से ही आरंभ हुआ था और समय बीतने के साथ साथ यह अन्य क्षेत्रों में फैलता गया।
ज़ीलू को मरूस्थल के क़ालीन के नाम से भी जानते हैं। यह देखने में बहुत साधारण सा दिखाई देता है किंतु बहुत मज़बूत होता है और गर्मी में तरावट पहुंचाता है। कहते हैं कि मरूस्थलीय क्षेत्र में रात के समय रेत की गर्मी में यह ठंडक देता है और इसपर बैठने वाले को शांति का आभास होता है।
मैबुद वासियों का कहना है कि ज़ीलू की बुनाई उनके पूर्वजो का पेशा है। इस नगर और इसके आसपास के गावों में ज़ीलू की बुनाई का काम प्राचीनकाल से होता आया है। वर्तमान समय में इसे मशीनों से आधुनिक ढंग से बनाया जाता है। बताया जाता है कि मैबुद के ज़ीलू के उत्कृष्ट नमूने का संबन्ध 12 शताब्दी हिजरी क़मरी से है। ईरान की कुछ एतिहासिक मस्जिदों में प्राचीनकाल के ज़ीलू पाए जाते हैं।
इसको सूत से बनाते हैं। पुराने ज़माने में जिस स्थान पर इसे बुनते थे वहीं पर सूत को काता जाता था और उससे ज़ीलू की बुनाई की जाती थी। जो ज़ीलू सूत के धागे से बनाए जाते हैं वे अधिक मज़बूत होते हैं।

वैसे तो ज़ीलू को बुनने में कई रंगों का प्रयोग किया जाता है जैसे हरा, नारंजी, बैगनी, नीला सफेद, भूरा और पीला आदि किंतु इसमें सामान्यतः दो रंग पाए जाते हैं। साधारण होने और मज़बूत होने के कारण ज़ीलू को अधिक ख्याति मिली है। ज़ीलू में जिन रंगों का प्रयोग किया जाता है उनको उसी स्थान पर तैयार किया जाता है जहां पर इसे बुना जाता है। इसमें सामान्यतः प्राकृतिक रंगों का प्रयोग किया जाता है। क्योंकि यह रंग वनस्पतियों के होते हैं इसलिए यह लंबे समय तक बाक़ी रहते हैं। यही कारण है कि सूरज की रौशनी या धूप में भी इनके रंगों पर अधिक प्रभाव नहीं पड़ता। बताते हैं कि इस समय कुछ एसे ज़ीलू मौजूद हैं जो वर्षों पुराने हैं किंतु उनका रंग वैसा ही जैसा पहले था।
रंग और उपयोग की दृष्टि से ज़ीलू को तीन भागों में विभाजित किया गया है। इनमें पहले वे हैं जो नीले और सफेद रंग के होते हैं और अधिकतर इनको मस्जिदों या पवित्र स्थलों पर ही बिछाया जाता है। दूसरे प्रकार के ज़ीलू वे होते हैं जिनका प्रयोग घरों में किया जाता है और अपेक्षाकृत कुछ सस्ते होते हैं। तीसरे वे ज़ीलू होते हैं जिन्हें सजाने के उद्देश्य से बनाया जाता है जो बहुत ही सुन्दर और मंहगे होते हैं। कहा यह जाता है कि क्योंकि ज़ीलू को प्राकृतिक वस्तुओं से बनाया जाता है इसलिए यह उन रोगियों के बैठने के लिए बहुत उपयुक्त होते हैं जिन्हें एक्ज़िमा होता है।
ईरान में ज़मीन या फर्श पर जिन चीज़ों में बिछाया जाता है उनमें से एक सज्जादा भी है जिसे जानमाज़ भी कहा जाता है। इसको अधिक्तर नमाज़ के समय विशेषकर घरों और मस्जिदों में प्रयोग किया जाता है। सज्जादा या जानमाज़ वह चीज़ है जिसे मुसलमान नमाज़ के समय प्रयोग करते हैं। यह छोटा होता है और इस सरलता से एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जा सकता है।
कहते हैं कि इस्लाम के उदय के समय सज्जादे का चलन नहीं था। बाद में मुसलमानों को नमाज़ पढ़ने के लिए किसी एसी वस्तु की आवश्यकता का आभास हुआ जिसे ज़मीन पर बिछाया जा सके। ईरान में यह चलन है कि प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अलग जानमाज़ होती है जिसे केवल नमाज़ के समय बिछया जाता है और नमाज़ पढ़ने के बाद उसे लपेट कर रख दिया जाता है।
जानमाज़ पर मस्जिदों के मेहराब बनाने क चलन अधिक है। बताया जाता है कि ग्यारहवी हिजरी क़मरी में सज्जादा बनाने का काम अपने चरम पर था जो बाद में धीरे धीरे कम होता गया। ईरान में जो सज्जादे बनाए जाते हैं उनपर मस्जिदे नबवी ख़ानए काबा या इमामों के रौज़ों के चित्र होते हैं। बलोच, अफ़ग़ान और तुर्कमन लोग भी बहुत ही सुन्दर और रंगारंग सज्जादे बनाते हैं। यह सज्जादे अधिकतर मख़मल के होते हैं।

ईरान का दिज़फुल नगर भी एसा नगर है जहां पर हस्तकला उद्योग बहुत प्रचलित है। दिज़फल नगर दक्षिण पश्चिमी ईरान में स्थित है। यहां पर जानमाज़ बनाने का काम प्राचीनकाल से होता आया है। इस नगर में घर घर में जानमाज़ बनाने का काम होता है। कहते हैं कि देज़फुल में सज्जादा बनाने की कला प्राचीनकाल से एक पीढी से दूसरी पीढी तक हस्तानांतरित होती आ रही है। देज़फुल में कच्ची मिट्टी के घरों का चलन अधिक है इसलिए यहां पर बनी जानमाज़ों में इसकी झलक देखने को मिलती है।
दिज़फुल नगर की सज्जादा बनाने की सबसे प्राचीन कार्यशाला, इस नगर के “चूलियान” नामक क्षेत्र में स्थित है। यहां पर अभी भी काम होता है। यहांपर नाना प्रकार के सज्जादे बनाए जाते हैं। वर्तमान समय में जब से आधुनिक जीवन शैली आरंभ हुई है और लोगों की जीवनशैली बदली है इस प्रकार की पुरानी चीज़ें अब समाप्त होती जा रही हैं। नए युवा अब पुराने पेशों को सीखना नहीं चाहते और उनके भीतर इनके प्रति कोई लगाव नहीं है। इसके बावजूद हालिया कुछ वर्षों के दौरान यहां के युवाओं में इस कला के प्रति प्रेम जागृत हुआ है।
अब दिज़फुल में न केवल सज्जादे अधिक संख्या में बनाए जाने लगे हैं बल्कि हस्तकला से संबन्धित कुछ अन्य वस्तुओं को भी बनाया जाता है। विशेष बात यह है कि अब इनको बनाने के लिए जिन जिन वस्तुओं की आवश्यकता होती है उनको एक ही जगह पर एकत्रित किया जाता है और एक ही स्थान पर इन्हें तैयार करते हैं। सज्जादा बनाने वाले उस्ताद अपने शिष्यों को इस कला की बारीकियां सिखाते हैं ताकि उनके बाद यह सिलसिला समाप्त न होने पाए।