Jun २०, २०१६ १५:२० Asia/Kolkata

मध्य युगीन का हज़ार वर्षीय इतिहास, पांच से पंद्रहवीं शताब्दी के बीच का काल है जो वर्ष 476 में पश्चिमी रोम के पतन से आरंभ हुआ और वर्ष 1451 में उसमानी साम्राज्य द्वारा क़ुस्तुंतुनिया पर विजय तक जारी रहा।

मध्य युगीन का हज़ार वर्षीय इतिहास, पांच से पंद्रहवीं शताब्दी के बीच का काल है जो वर्ष 476 में पश्चिमी रोम के पतन से आरंभ हुआ और वर्ष 1451 में उसमानी साम्राज्य द्वारा क़ुस्तुंतुनिया पर विजय तक जारी रहा। इस काल की विशेषताओं में, ईसाई धर्म के प्रचार और धर्मगुरूओं की शक्ति, राजा और रंक व्यवस्था की स्थापना और इसके परिणाम स्वरूप अधिकारों की सीमित्ता और लोगों की स्वतंत्रता विशेषकर आस्था संबंधी स्वतंत्रताओं की ओर संकेत किया जा सकता है।  अलबत्ता वर्ष 1251 में ब्रिटिश शासक जॉन द्वारा महा घोषणा जारी किए जाने को इस काल के इतिहास में बड़े परिवर्तन के रूप में याद किया जा सकता है।

 

ईसाई धर्म के प्रकट होने और उसके विस्तार से तथा ईश्वरीय धर्मों की मानवीय शिक्षाओं के दृष्टिगत जो नैतिकता, भाईचारे, प्रतिष्ठा और उच्च मानवीय स्थान पर बल देती है, तीसरी और चौथी सहस्त्राब्दी में बहुत से लोगों ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया और चर्चों के पादरियों का विश्वास प्राप्त करने और उनके मध्य अपना सम्मान पैदा करने में सफल रहे और शीघ्र की उन्होंने राजनैतिक व धार्मिक स्थान प्राप्त कर लिया। ईसाई पादरियों ने अपना प्रभाव प्रयोग करते हुए दास व्यवस्था को रद्द किया और राजा व रंक व्यवस्था का विकल्प पेश किया तथा दासों को अपने मालिकों का अनुसरण करने के लिए प्रेरित करके बहुत अधिक धन संपत्ति एकत्रित की और इस प्रकार से पश्चिम में नये वर्गभेद को अस्तित्व देने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। दूसरी ओर इन धर्म गुरूओं ने यह विचार फैलाकर कि वे ईश्वर द्वारा चुने गये सेनापति हैं, जनता का समर्थन प्राप्त करके राजनैतिक ढांचे में ध्यानयोग्य प्रभाव पैदा करने में सफलता प्राप्त की।

 

 

तेरहवीं शताब्दी में चर्च के शक्तिशाली होने और पोप की शक्ति के चरम पर पहुंचने से, मनुष्य के प्राकृतिक अधिकार का जो पहली बार यूनानियों विशेषकर रवाक़ियान या Stoicism स्टोइक दर्शन ने पेश किया था, महत्व कम होता जा रहा था और लोगों के प्राकृतिक अधिकारों का स्थान ईश्वरीय अधिकार ले रहे थे। वास्तव में चर्च के शासकों और यूनान तथा रोम के क़ानूनी बुद्धिजीवियों के मध्य सबसे बड़ा अंतर यह था कि चर्च के शासक, सत्ता और सरकार को ईश्वर के आदेश से उत्पन्न मानते थे और लोगों के धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते थे और स्वयं को शासक से बड़ा समझते थे और हर मामले में हस्तक्षेप करते थे। इसके परिणाम स्वरूप, आस्था की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे आज़ादी के मूल प्रतीकों से लोग वंचित रह जाते हैं किन्तु यूनानी सत्ता शक्ति को ईश्वरीय इरादे से उत्पन्न नहीं मानते थे बल्कि लोगों को सत्ता का मुख्य स्रोत समझते थे।

 

 

ब्रिटेन में उच्च वर्ग और निम्न वर्ग की वर्गीय व्यवस्था का इतिहास बहुत पुराना है। इसके बावजूद अतीत में राजशाही व्यवस्था में दरबारी, धर्मगुरु और शाही परिवार के लोग शामिल होते थे और इनकी विश्वसनीयता और प्रभाव बहुत अधिक था। यहां तक कि शाही परिवार में सत्ता को लेकर गुप्त प्रतिस्पर्धाएं भी दिखाई पड़ती थीं। यही कारण है कि वह गुट जिसने राजा के आदेश पर इन वर्गों के लिए सीमित्ताएं पैदा की, प्रतिरोध और बदले की भावना का शिकार भी हुआ।

 

 

तेरहवीं शताब्दी की आरंभिक घटनाओं को इस प्रतिरोध का स्पष्ट उदाहरण समझा जा सकता है जिसमें राजा दूषित वातावरण को बदलने के लिए आदेश जारी करने पर विवश हुआ जिससे सत्ता की बागडोर की पकड़ किसी सीमा तक समिति हो गयी और इसके बदले में उच्च वर्ग के लोगों और प्रभावित लोगों के लिए विशिष्टताओं का अवसर प्रशस्त हुआ। यह आदेश वर्ष 1215 में तत्कालीन ब्रिटिश शासक जॉन ने बड़े आदेश शीर्षक के अंतर्गत जारी किया। उक्त आदेश में जिसका जारी होना इतिहास में एक बड़ा मोड़ समझा जाता है, बावजूद कि इसका मुख्य संबोधक उच्च वर्ग के लोग थे, कुछ व्यक्तिगत अधिकार और स्वतंत्रता को शामिल किया गया था जो उच्च वर्ग को शामिल करने के साथ उसने आम लोगों को भी अपनी चपेट में ले लिया।

 

 

मध्ययुगीन काल में अत्याचारी व्यवस्था के अस्तित्व में आने से मानवाधिकार के लिए संघर्ष आरंभ हो गया जिसके परिणाम स्वरूप सतरहवीं शताब्दी के आरंभ और अट्ठारहवीं शताब्दी में महा राजनैतिक क्रांतियां अस्तित्व में आईं थीं। उन दिनों मानवाधिकार के आयाम जिस पर उस समय तक हमले होते रहते थे, मानवाधिकार के घोषणापत्र या शिलालेख की परिधि में बनाए गये और उसके बाद देशों के संविधानों में इसको शामिल किया गया।

 

 

पुनर्जागरण या REFOM आंदोलन के शुरु होने से धीरे धीरे यह विचारधारा पैदा होने लगी कि मनुष्य दुनिया की सबसे बेहतरीन सृष्टि है और अपनी बुद्धि द्वारा ईश्वरीय इरादों को समझ सकता है और सरकार तथा मानवीय समाज को व्यवस्थित करने के लिए उचित क़ानून बनाने में सक्षम है और परिणाम स्वरूप इस युक्तिपूर्ण सोच से प्राकृतिक अधिकारों का अर्थ प्रचलित हुआ और समाज की विभिन्न पुस्तकों विशेषकर प्रोस्टेस्टेंट बाहुल्य देशों में यह विचारधारा बहुत अधिक प्रचलित हो गयी।

 

 

पुनर्जागरण या ज्ञान व साहित्य के पुनर्जागरण का काल, पश्चिमी इतिहास का काल है जो वैज्ञानिक आंदोलन की विभूति तथा विज्ञान के क्षेत्र में विश्व ख्याति प्राप्त लोगों के उदय से यूरोप में महत्वपूर्ण घटना का कारण बना। कहा जाता है कि दक्षिणी यूरोप पर मुसलमानों के नियंत्रण और स्पेन में वैचारिक स्वतंत्रता की मशाल जलने के परिणाम स्वरूप तथा उस्मानी तुर्कों द्वारा क़ुस्तुनतुनिया के अतिग्रहण के कारण यूनान के बुद्धिजीवियों का यूरोप की ओर पलायन और इसके परिणाम स्वरूप यूरोपीयों की प्राचीन ज्ञान तक पहुंच तथा उस काल में उनकी जागरूकता में वृद्धि के कारण यूरोप में नई आडियालाजी फैल गयी और बुद्धिजीवियों ने विभिन्न प्राकृतिक अधिकारों के विचार, सामाजिक समझौते और नागरिक सरकार के विचार प्रचलित किए।

 

पुनर्जागरण आंदोलन जो पंद्रहवी शताब्दी में ईटली में शुरु हुआ शीघ्र ही उसने पूरे यूरोप के राजनैतिक विचारों और साहित्यों को अपनी चपेट में ले लिया और समाजिक व्यवस्था तथा राजनैतिक ढांचों के आधार पर मनुष्यवाद का आधार रखा गया।

 

 

 

वर्ष 1215 में महा घोषणापत्र के जारी होने के बाद से कई शताब्दियां बीत चुकी हैं, ब्रिटेन ने सतरहवीं शताब्दी में समाज के वैचारिक विकास और आत्याचारी शासकों के मुक़ाबले में स्वतंत्रता प्रेमियों के निरंतर संघर्ष के कारण, दो घोषणापत्रों का अर्थात अधिकार की मांग और अधिकार का घोषणापत्र का अनुभव किया जो अमरीका, फ़्रांस और अन्य यूरोपीय देशों में स्वतंत्रता प्रेमियों और स्वतंत्रता के मतवालों की क्रांतियों से प्रेरित रहा है।

 

 

लोगों के संबंध में चार्लस प्रथम के अवांछित व्यवहार, उनके द्वारा संसद का अपमान, उसके द्वारा दिए गये नारों जिसमें वह बिना किसी संकोच के लोगों द्वारा उनके अनुसरण पर बल देते थे तथा संसद और उसके भविष्य को वह अपनी शक्ति के अधीन समझते था, इस देश में राजनैतिक संकट के पैदा होने का कारण बने। सांसदों ने इस अत्याचारी शैली के मुक़ाबले में अपनी व्यवहारिक व क़ानूनी प्रतिक्रिया व्यक्त की और राजा ने तुरंत ही संसद को भंग करने का आदेश दे दिया। इसके  बाद धार्मिक व राजनैतिक हल्क़ों की अप्रसन्नता तथा संवैधानिक सारकार के समर्थकों और मध्य वर्गीय लोगों के नराज़ होने के कारण ब्रिटिश नरेश “अधिकार की मांग” दस्तावेज़ को स्वीकार करने पर विवश हुआ जिसके आधार पर नरेश के कुछ अधिकार सीमित हो गये।

 

 

चार्ल्स प्रथम को फांसी दिए जाने के बाद चार्ल्स द्वितीय और उसके बाद उसके बाद जेम्स द्वितीय 1685 में ब्रिटिश राजगद्दी पर बैठे । जेम्स द्वितीय ने चार्ल्स प्रथम की भांति इस दावे के साथ कि राजशाही शक्ति का आयाम ईश्वरीय होता है और नरेश ईश्वर की ओर से चुना जाता है और उसे किसी के प्रश्नों का जवाब देने का अधिकार नहीं है, लोगों के अधिकारों का जमकर हनन किया और समाज पर अत्याचारों की झड़ी  लगा दी। इसी चीज़ ने जनता और सांसदों का क्रोध बढ़ा दिया। नरेश ने सैन्य शक्ति का प्रयोग किया और फ़्रांसीसी सरकार की सहायता से अपने विरोधियों का दमन किया और उन्हें फांसी दे दी। धार्मिक मतभेदों के बढ़ जाने और राजनैतिक विरोध की आवाज़ उठने तथा क्रांति का वातावरण उत्पन्न होने से अंततः 1688 में जेम्स फ़्रांस भागने पर विवश हो गया।

 

 

यह ऐतिहासिक घटना जिसे महाक्रांति के नाम से याद किया जाता है, एक बड़े परिवर्तन की भूमिका थी जिससे ब्रिटेन में राजशाही का बोरिया बिस्तरा बांध दिया और संवैधानिक राजशाही व्यवस्था लागू हो गयी जो राजशाही सरकार के स्थान पर हुई, इस सरकार की क्षमताओं को बढा दिया गया तथा सांसदों को और अधिक अधिकार दे दिए गये। इसी परिधि में संसद ने अधिकारियों का एक मसौदा तैयार किया और महीनों चर्चा के बाद, उसका अंतिम रूप 13 फ़रवरी वर्ष 1689 में संसद में पास हुआ। इस मसौदे में मूलभूत नागरिक व राजनैतिक अधिकारों को बयान किया गया था जो बाद में बीसवीं शताब्दी के अंतर्राष्ट्रीय दस्तावेज़ों में प्रयोग हुआ।

 

 

सोलहवीं शताब्दी के मध्य में पुनर्जागरण आंदोलन की समाप्ति के वर्षों में, धार्मिक सुधार आंदोलन ने सांस्कृतिक, वैज्ञानिक और ईश्वरीय शोध के संबंध में होने में आंदोलन को परिपूर्ण कर दिया। मार्टिन लूथर और जेन कैलविन जैसे बुद्धिजीवियों और विचारकों ने कैथोलिक चर्च से लोगों की स्वतंत्रता तथा कुछ सीमित लोगों द्वारा अर्थात धर्म गुरुओं द्वारा धर्म की व्याख्या के एकाधिकार को समाप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। धार्मिक सुधार के विचारक, बुद्धिवाद और व्यक्तिगतवाद के आविष्कारक समझे जाते हैं। बुद्धिवाद, समस्त सामाजिक आस्थाओं और व्यक्तिगत मूल्यों में अंतर्रात्मा की भूमिका को बढ़ा देता है और दूसरी ओर व्यक्तिगतवाद आलोचक की भूमिका को बढ़ाता है और हर उस चीज़ का इन्कार कर देता है जिसे ईरान ने अपनी अंतर्रात्मा के अतिरिक्त किसी और चीज़ से चुना हो।

 

 

ब्रिटेन में सतरहवीं शताब्दी में स्वतंत्रताप्रेमी उमंगों और राजनैतिक घटनाओं को अमरीकी जनता की स्वतंत्रता प्रेमी मांगों और उमंगों से प्रेरित कहा जा सकता है।  

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