Aug १४, २०१६ १३:५४ Asia/Kolkata

इब्ने तैमिया के बाद मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब ने उनके विचारों को पुनर्जीवित किया और उनमें इस्लाम की उच्च शिक्षाओं के बारे में अपने भ्रष्ट विचारों को भी जोड़ दिया।

मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब के विचार और आस्थाएं पूरी तरह उन इस्लामी शिक्षाओं से विरोधाभास रखती थीं जिनका प्रचार पैग़म्बरे इस्लाम किया करते थे। उनका मानना था कि केवल वे और उनके अनुयाई ईश्वर को मानने वाले व मुसलमान हैं जबकि अन्य इस्लामी मतों के अनुयाई काफ़िर व अनेकेश्वरवादी हैं। कुल मिला कर यह कि आस्था के मामले में मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब की किताबें जो शायद दो सौ पृष्ठों से अधिक न हों, ज्ञान से अधिक वाद पर आधारित हैं और उनमें ज्ञान की प्रचलित शैलियों को अपनाने और तर्कसंगत बातें करने के बजाए विरोधियों को काफ़िर सिद्ध करने और उनकी हत्या को वैध ठहराने पर है।

 

आज वहाबी धर्मगुरू मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब को बहुत बड़ा ज्ञानी दिखाने के लिए काफ़ी प्रयास करते हैं, उनके विचारों की समीक्षा में अनेक किताबें लिखी जा रही हैं और इसी तरह उनके बारे में विभिन्न प्रकार के सम्मेलन आयोजित होते हैं। राजनीतिक शक्ति से वहाबियत के रिश्तों के बारे में बात किए बिना वहाबियत को पहचानने का काम अधूरा रहेगा। अन्य इस्लामी मतों के विपरीत वहाबियत लोगों में लोकप्रियता के कारण नहीं फैली बल्कि तलवार की ताक़त और राजनीति से उसके रिश्तों ने उसके प्रसार का मार्ग प्रशस्त किया है।

 

दूसरी ओर वहाबियत की हिंसक व तकफ़ीरी प्रवृत्ति के कारण शक्ति और हिंसा इसमें रच बस गई है और विरोधियों के ख़िलाफ़, जिनमें सभी मुसलमान थे, राजनैतिक शक्ति के दुरुपयोग के संबंध में उसके विचार मज़बूत हुए हैं। इस आधार पर कहा जा सकता है कि अगर अहमद बिन हम्बल का सलफ़ीवाद, हदीसों के दुरुपयोग पर आधारित था और इब्ने तैमिया का सलफ़ीवाद आस्थाओं के ग़लत इस्तेमाल पर निर्भर था तो मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब के सलफ़ीवाद को, उसकी विशेषताओं के दृष्टिगत, राजनैतिक सलफ़ीवाद कहा जा सकता है। वहाबियत की उत्पत्ति की पहचान के संबंध में राजनीति व सत्ता की ओर संकेत करना आवश्यक है और इस स्थिति में इस अहम सवाल का जवाब दिया जा सकता है कि मुसलमानों में लोकप्रियता न रखने और उनके विरोध के बावजूद किस प्रकार वहाबियत अपना अस्तित्व जारी रखे हुए है?

 

मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब को अपने पिता की मृत्यु तक, जो हम्बली धर्मगुरुओं में से थे, अपनी आस्थाओं को प्रकट करने का अधिक अवसर नहीं मिला। उनके सबसे कड़े विरोधी व आलोचक उनके घर वाले और शहर के धर्मगुरू थे। मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब के पिता व भाई हमेशा इस बात की कोशिश करते थे कि उनसे व उनके विचारों से दूर रहे हैं। उनके भाई सुलैमान ने उनकी ग़लत आस्थाओं की कड़ी आलोचनाएं की हैं। मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब ने अपने पिता की मौत के बाद ब्रिटिश सरकार की सहायता से वर्ष 1153 हिजरी क़मरी में अपने विचारों को प्रकट करना शुरू किया। अलबत्ता पहले ही चरण में उन्हें हुरैमला क्षेत्र के आम लोगों की कड़ी प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ा और निकट था कि लोग उनकी हत्या कर देते। विवश हो कर उन्हें अपने पैतृक नगर उययना लौटना पड़ा।

 

उययना लौट कर उन्होंने अपनी आस्थाएं वहां के शासक उसमान बिन अहमद बिन मुअम्मर को बताईं। शासक ने उन्हें स्वीकार कर लिया और फिर दोनों ने समझौता किया कि इसके बाद वे दोनों एक दूसरे के सहायक रहेंगे। इस प्रकार शासक ने इस बात की अनुमति दी कि मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब खुल कर अपनी आस्थाओं को पेश करें। उययना के शासक से अपने संबंध को अधिक मज़बूत बनाने के लिए मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब ने उसकी बहन से विवाह कर लिया। इस तरह दोनों के रिश्ते बहुत मज़बूत हो गए। उस काल में उययना के आस पास अनेक मस्जिदें और सहाबियों अर्थात पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के साथियों के मज़ार मौजूद थे जिनमें से एक मज़ार दूसरे ख़लीफ़ा के भाई ज़ैद बिन ख़त्ताब का था।

 

मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब ने उसमान बिन अहमद के कुछ सिपाहियों को लेकर उन मज़ारों पर हमला कर दिया और उस स्थान को मिट्टी में मिला दिया। तारीख़े नज्द के लेखक का कहना है कि मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब ने अपने हाथों से ज़ैद बिन ख़त्ताब के मज़ार को ध्वस्त किया। इस पर क्षेत्र के लोगों ने कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की और उनके विरुद्ध उठ खड़े हुए था उनकी बातों को रद्द कर दिया। लोगों ने अलएहसा, बसरा और मक्के व मदीने के धर्मगुरुओं को पत्र लिख मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब की शिकायत की। उन धर्मगुरुओं ने उसमान बिन अहमद बिन मुअम्मर को पत्र लिखा और उसे शैख़ की हत्या का आदेश दिया। उययना के शासक ने विवश हो कर मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब को शहर से बाहर निकाल दिया।

 

वहाबियों के शैख़ ने इसके बाद दरईया के क्षेत्र को अपना ठिकाना बनाया जो पैग़म्बरी का झूठा दावा करने वाले मुसैलमए कज़्ज़ाब का जन्म स्थल था। इस क्षेत्र में जाने के बाद मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब ने दरईया के शासक और आले सऊद के पूर्वज मुहम्मद बिन सऊद से संपर्क किया और उससे भी वही समझौता किया जो उन्होंने उययना के शासक से किया था। मुहम्मद बिन सऊद इस समझौते से ख़ुश था लेकिन उसने शैख़ के सामने दो चिंताएं पेश कीं। एक यह कि अगर हम आपकी मदद करेंगे और कुछ नगरों पर क़ब्ज़ा कर लेंगे तो हमें भय है कि आप हमें छोड़ कर किसी और स्थान की ओर चले जाएंगे। दूसरे यह कि दरईया में हमारा एक क़ानून है और वह यह है कि जब फल पकने का मौसम आता है तो हम लोगों से कर लेते हैं, हमें भय है कि आप कर लेने पर प्रतिबंध लगा दें। मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब ने जवाब में कहा कि मैं कभी तुम्हें छोड़ कर नहीं जाऊंगा और ईश्वर हमें जो विजय प्रदान करेगा उसमें हमें इतना माल मिलेगा कि तुम इस प्रकार के साधारण से कर से आवश्यकतामुक्त हो जाओगे।

 

दरईया के शासक ने दोनों परिवारों के रिश्तों को मज़बूत बनाने के लिए अपने बेटे अब्दुल अज़ीज़ की शादी मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब की बेटी से कर दी और इस प्रकार उन दोनों के बीच पारिवारिक संबंध स्थापित हो गए जो आज भी एक बड़े क्षेत्र में बाक़ी हैं। इस समझौते के बाद मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब ने नज्द के सभी क़बीलों के सरदारों और लोगों को पत्र लिखा और उन्हें नया मत स्वीकार करने का निमंत्रण दिया। कुछ लोगों ने निमंत्रण स्वीकार किया जबकि कुछ ने इस पर ध्यान ही नहीं दिया। इसके बाद वहाबियों के शैख़ ने इब्ने सऊद की सहायता से कुफ़्र, अनेकेश्वरवाद और बिदअत कर्ताओं के विरुद्ध जेहाद के नाम पर एक लश्कर बनाया और मुसलमानों के ख़िलाफ़ लड़ाई शुरू कर दी। उन्होंने मुसलमानों के गांवों और शहरों पर हमले करके लोगों का जनसंहार किया और उनकी संपत्ति लूट ली।

 

इस प्रकार वहाबी मत अस्तित्व में आ गया लेकिन यह बात स्पष्ट है कि ये सारी लड़ाइयां उन लोगों के ख़िलाफ़ थीं जो सभी ला इलाहा इल्लल्लाह व मुहम्मद रसूलुल्लाह कहने वाले, ईश्वर की उपासना करने वाले और ईश्वरीय दायित्वों का पालन करने वाले थे। मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब ने “कश्फ़ुश्शुबहात” नामक एक पुस्तिका में कई बार मुसलमानों को काफ़िर, अनेकेश्वादी, मूर्ती पूजक, धर्मभ्रष्ट, मिथ्याचारी, ईश्वर के शत्रु, अज्ञानी और शैतान कहा है। उनका कहना है कि हम मुसलमानों के समय के अनेकेश्वरवादी, अतीत के अनेकेश्वरवादियों और मूर्ति पूजकों से अधिक कट्टर हैं क्योंकि वे लोग आराम के समय दूसरों को ईश्वर का समकक्ष ठहराते थे और कठिनाई के समय में एकेश्वरवादी हो जाते थे जबकि हमारे काल के अनेकेश्वरवादी दोनों परिस्थितियों में दूसरों को ईश्वर का समकक्ष ठहराते हैं।

 

वहाबी चार चीज़ों की बहुत अधिक बात करते हैं, कुफ़्र अर्थात ईश्वर का इन्कार, शिर्क अर्थात अनेकेश्वरवाद, किज़्ब अर्थात झूठ, बिदअत अर्थात धर्म में अपनी ओर से नई बातें जोड़ना। अगर कोई वहाबियों द्वारा वर्णित केवल कुफ़्र व शिर्क के शब्दों को एकत्रित करे तो उसी से पूरी एक किताब भर जाएगी। जब भी कोई मुसलमान उनके जवाब में किसी हदीस के माध्यम से उनकी बात को रद्द करता है तो वे उसके उत्तर में हर तर्क से अधिक, झूठ है, झूठ है वाक्य का सहारा लेते हैं। वे हर उस हदीस को झुठला देते हैं जो उनकी आस्थाओं से मेल नहीं खाती।

 

कुल मिला कर यह कि वहाबी अपनी चरमपंथी व खोखली आस्थाओं के चलते खुल कर या इशारों में अपने आपको और अपने अनुयाइयों को एकेश्वरवादी व मुसलमान बताते हैं और मुसलमानों के अन्य गुटों को अनेकेश्वरवादी व काफ़िर कहते हैं। इस आधार पर वे उनकी हत्या को वैध और उनके माल को हलाल समझते हैं। बहरहाल मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब और मुहम्मद बिन सऊद के आपसी रिश्तों से दोनों को काफ़ी लाभ पहुंचा। एक ओर मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब ने मुसलमानों की आस्थाओं से लड़ने के अपने लक्ष्य को प्राप्त किया तो दूसरी ओर मुहम्मद बिन सऊद ने इन हालात से अपनी शक्ति फैलाने के लिए लाभ उठाया। इस रिश्ते में जो बात रोचक है वह सीमाओं और अधिकारों का सटीक बंटवारा है। इस अर्थ में कि आरंभ से ही धार्मिक मामले मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब और उनके परिवार या आले शैख़ के हाथ में रहे और राजनीति व सरकार संबंधी मामले मुहम्मद बिन सऊद और उसके परिवार या आले सऊद के पास रहे।

 

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