Aug २८, २०१६ ११:१७ Asia/Kolkata

हमने यह बताया था कि अरब प्रायद्वीप पर अपने प्रभाव को मज़बूत और उसे विस्तृत करने के लिए आले सऊद, वहाबियत और ब्रिटेन ने किस तरह एक दूसरे से गठजोड़ किया।

जो चीज़ ब्रिटेन और अब्दुल अज़ीज़ बिन सऊद के संबंधों को बयान करती है उसे अरब प्रायद्वीप में ब्रिटेन के दो बुनियादी लक्ष्यों के परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है।

ब्रिटेन का पहला लक्ष्य एक ऐसे घटक की खोज थी जो अरब प्रायद्वीप में उसके हितों की पूर्ति करे और भविष्य में समूचे प्रायद्वीप को भी अपने वर्चस्व में कर सके। ब्रिटेन का दूसरा लक्ष्य क्षेत्र में उसमानी साम्राज्य के प्रभाव से मुकाबला करना था और विदित में आले रशीद और मक्का और मदीना के बड़े लोग उसके प्रतिनिधि थे। उस समय ब्रिटेन के लिए बेहतरीन विकल्प वहाबियत था और आले सऊद वहाबियत का प्रतिनिधित्व करता था। अब्दुल अज़ीज़ बिन सऊद अच्छी तरह जानता था कि क्षेत्र के मुसलमानों के मध्य उसका कोई स्थान नहीं है यहां तक कि अरब प्रायद्वीप के लोग भी उसे और उसकी विचार धारा को स्वेच्छा से स्वीकार नहीं करेंगे।  इस वास्तविकता को इससे पहले मिलने वाली पराजयों में वह समझ चुका था। इसी प्रकार वह यह भी समझ गया था कि लोग उसकी सरकार को पसंद नहीं कर रहे हैं। इस आधार पर अपनी सत्ता को सुनिश्चित बनाने के लिए उसने ब्रिटेन के अनुसरण को स्वीकार कर लिया।

मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब आरंभ में है समझ गया था कि केवल सरकार और ज़ोर ज़बरदस्ती से ही वह वहाबियत की विचारधारा का प्रचार- प्रसार कर सकता है और इसी कारण वह आले सऊद से जुड़ गया। वित्तीय और शस्त्रों की दृष्टि से ब्रिटेन वहाबियत का समर्थन करता था और क्षेत्र में वहाबियत की शक्ति को मान्यता देता था। इसके बदले में आले सऊद भी अरब प्रायद्वीप में ब्रिटेन के हितों को पूरा करता था और क्षेत्र में उसमानी घटकों से युद्ध करता था। ब्रिटेन इस बात से संतुष्ट होने के लिए कि अब्दुल अज़ीज़ उसकी नीति का अनुसरण कर रहा है, हेनरी विलियम शेक्सपियर नाम के अपने पुरानी व अनुभवी सैनिक और राजनीतिक सलाहकार को उसके पास भेज दिया। ब्रिटेन अरब प्रायद्वीप के दूसरे भाग अर्थात हिजाज़ के क्षेत्र से बेखबर नहीं था। इस आधार पर उसने थॉमस एडवर्ड लॉरेन्स नाम के अपने एक जासूस को पवित्र नगर मक्का में शरीफ़ हुसैन के पास भेजा और चूंकि उसमानियों के साथ शरीफ़ हुसैन के निकट संबंध थे इसलिए लॉरेन्स ने उससे वादा दिया कि उसमानियों के पराजित हो जाने की स्थिति में इस्लामी जगत में उनके स्थान को सुरक्षित रखा जायेगा और खिलाफत की बाग़डोर शरीफ और बड़े लोगों के हाथ में रहेगी। शरीफ हुसैन, लॉरेन्स के इसी वादे की जाल में फंस गया और वह ब्रिटेन के हथकंडे में परिवर्तित हो गया। दूसरे शब्दों में ब्रिटेन दोनों पक्षों की सुरक्षा के  प्रयास में था वह यह चाहता था कि भविष्य में जो ब्रिटेन की नीतियों का अच्छा अनुसरण करेगा उसे सुरक्षित रखेगा और जो अच्छी तरह से उसकी नीतियों का अनुपालन नहीं करेगा उसे आसानी से रास्ते से हटा देगा। इस आधार पर उसमानी साम्राज्य की पराजय के बाद शरीफ हुसैन ने इस कोरी कल्पना के साथ कि ब्रिटेन ने उसे उसमानी ख़लीफा बना दिया है, स्वयं को मुसलमानों का ख़लीफा घोषित कर दिया जबकि वह इस बात से बेखबर था कि इस प्रकार के साम्राज्य का गठन ब्रिटेन की नीति के परिप्रेक्ष्य में नहीं है। इस आधार पर ब्रिटेन ने अब्दुल अज़ीज़ का समर्थन करके और उसका हाथ खुला छोड़कर कर बहुत ही आसानी से शरीफ़ हुसैन और उसके परिवार को रास्ते से हटा दिया।

हेनरी विलियम शेक्सपियर के प्रयास उसमानी साम्राज्य के ख़िलाफ़ अब्दुल अजीज की सेवा और वहाबियों के माध्यम से ब्रिटिश इस्लाम की परिभाषा के बारण, वर्ष 1915 में पेर्सी कॉक्स और अब्दुल अज़ीज़ की अध्यक्षता में जो एक साम्राज्यवादी समझौता हुआ था। इस समझौते के अनुसार इब्ने सऊद अरब प्रायद्वीप के उन क्षेत्रों पर हमला नहीं करेगा जिन्हें ब्रिटेन का समर्थन प्राप्त है और नज्द में ब्रिटेन के दुश्मन को कोई विशिष्टता नहीं देगा और ब्रिटेन के दुश्मनों में से अपने उत्तराधिकारी का चयन नहीं करेगा और अपनी विदेश नीति को ब्रिटेन की नीति से समन्वित करेगा। इसके बदले में ब्रिटेन प्रतिवर्ष इब्ने सऊद को 60 हज़ार लीरा देना।

वर्ष 1932 का समय था जब अब्दुल अज़ीज़ ब्रिटेन की बहुत अधिक सहायता के बाद अरब प्रायद्वीप में अपनी पकड़ बना सका और सऊदी अरब के नाम से इस क्षेत्र को अपनी व्यक्तिगत सम्पत्ति समझने लगा। वहाबियों और पवित्र नगर मक्का के बड़े लोगों के मध्य चयन में ब्रिटेन इस परिणाम पर पहुंचा कि मक्का और मदीना पर वर्चस्व जमाने में वहाबी मक्का के बड़े लोगों से बेहतर हैं। ब्रिटेन द्वारा इस चयन के बहुत से कारण थैं जैसे पहला कारण यह कि इस्लामी जगत के मध्य वहाबियों का कोई स्थान नहीं है और बाकी रहने के लिए वे ब्रिटेन से जुड़े रहने पर बाध्य हैं। ब्रिटेन के इस चयन का दूसरा महत्वपूर्ण कारण यह था कि इस्लाम का जो रूप वहाबियों ने पेश किया था वह इस्लाम की विशुद्ध शिक्षाओं से भिन्न था और स्वयं इससे मुसलमानों के मध्य मतभेद और फूट पड़ने की भूमि समतल होती है। यद्पि ब्रिटेन ने मक्का और मदीना पर वहाबियों और आले सऊद के वर्चस्व जमाने की भूमि प्रशस्त कर दी थी परंतु वहाबियों के प्रभाव में वृद्धि हेतु मुसलमानों के साथ उनके हिंसात्मक व्यवहार की कदापि अनदेखी नहीं की जानी चाहिये।

वहाबियों और दूसरे मुसलमानों में एक बुनियादी अंतर इस पथभ्रष्ट विचारधारा के प्रचार- प्रसार की शैली है। अगर इस्लाम के इतिहास पर नज़र डालें तो यह बात स्पष्ट हो जायेगी कि प्रायः समस्त धर्मों ने अपने प्रचार- प्रसार में तर्क से काम लिया है और वहाबियत के अलावा किसी भी धर्म ने मुसलमानों की जान और इज्ज़त पर हमले को वैध करार नहीं दिया है। यहां तक कि सलफी विचारधारा की बुनियाद रखने वाले इब्न तय्यमिया ने भी इस प्रकार का आदेश नहीं दिया है जबकि वह हिंसात्मक और तकफीरी प्रवृत्तिका था और वह तवस्सुल अर्थात ईश्वरीय दूतों व भले बंदों को साधन बनाये जाने आदि का मुखर विरोधी था। इस्लामी इतिहास में जिस गुट ने इस्लाम के आरंभ में मुसलमानों को काफिर करार दिया वह ख़वारिज नाम का गुट था। इस धर्मभ्रष्ट गुट का मानना था कि बड़ा पाप करने वाला मुसलमान, काफिर है और कुफ्र का दड मौत है। यहां तक कि इस गुट के ख़्वारिज का मानना था कि अगर किसी का बाप काफिर है तो उसके छोटे बच्चे और बच्चियां भी काफिर हैं और उनकी हत्या सही है किन्तु खवारिज का यह दृष्टिकोण इस्लाम की मूल शिक्षाओं से स्पष्ट विरोधाभास रखता था इसलिए समस्त मुसलमानों ने उन्हें धर्मभ्रष्ट बताया और उन्हें खवारिज और कुछ समय के बाद इतिहास के पन्नों के अलावा इस गुट का कोई चिन्ह बाक़ी नहीं रहा और अबाज़िया जैसे जो तत्व इस गुट के रह गये उन्होंने अपने दृष्टिकोणों को संतुलित किया। ख़वारिज के बाद केवल वहाबी हैं जो अपने विरोधी मुसलमानों के साथ इस प्रकार का व्यवहार कर रहे हैं। वहाबी समस्त मुसलमानों की पद्धति और इस्लाम की शुद्ध शिक्षाओं के विरुद्ध दूसरे मुसलमानों को काफिर कहकर उनकी हत्या करते हैं। इसी कारण मुसलमानों ने वहाबियों की उपमा ख़वारिज से दी है। उदाहरण स्वरूप ख़वारिज हज़रत अली अलैहिस्सलाम को शहीद किये जाने को वैध समझते थे क्योंकि ख़वारिज की भ्रष्ट आस्था के अनुसार हज़रत अली अलैहिस्लाम ने यह स्वीकार कर लिया था कि दोनों पक्ष जो फैसला करेंगे वे उसे स्वीकार करेंगे जबकि आरंभ से ही हज़रत अली अलैहिस्सलाम उस पक्ष के फैसले के विरोधी थे। बहरहाल ख़वारिज की भ्रष्ट आस्था के अनुसार हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने बड़ा पाप किया तो उसने उनकी हत्या को वैध ठहराया और 21 रमज़ान को रोज़े की हालत में सुबह की नमाज़ पढ़ाते समय हज़रत अली अलैहिस्सलाम पर प्राणघातक आक्रमण किया जिससे वह शहीद हो गये।

वहाबियों ने भी ऊययना शहर के शासक की कुफ्र के दोष में हत्या कर दी जबकि वह जुमा की नमाज़ से फारिग़ हुआ था। आज भी वहाबियों की एक शाखा, जो वही तकफीरी वहाबी है, कुफ्र और अधर्मी होने का आरोप मढ़ कर शीया और सुन्नी महिलाओं और बच्चों की हत्या कर रही है। इस घिनौनो कृत्य को अंजाम देने के लिए तकफीरी वहाबी गली, बाज़ार यहां तक मस्जिद जैसे पवित्र स्थलों पर हमले करते और उनमें से कुछ का सिर कलम करते हैं। जिस चीज़ ने भ्रष्ट वहाबी विचार धारा के फैलने का मार्ग प्रशस्त किया वह बल व शक्ति थी। इतिहास में कभी भी एसे किसी समय को नहीं देखा जा सकता जब वहाबियों ने पैसा और शक्ति का प्रयोग किये बिना अपने सत्ता क्षेत्र में विस्तार किया हो। इस आधार पर वहाबी विचारधारा का नाम तलवार और शक्ति की विचारधारा का नाम दिया जाना चाहिये। अगर हालिया कुछ वर्षों में इस धर्मभ्रष्ट गुट द्वारा अंजाम दिये गये अपराधों पर दृष्टि डाली जाये तो यह वास्तविकता भलीभांति स्पष्ट हो जायेगी।

वहाबियों के युद्ध के इतिहास के दृष्टिगत किसी अतिशयोक्ति के बिना कहा जा सकता है कि वहाबियों का कोई भी युद्ध दुश्मनों और काफिरों से नहीं हुआ है बल्कि उनका सारा युद्ध मुसलमानों से रहा है और उनमें से अधिकाशं युद्ध हंबली धर्म के मानने वालों से रहा है। साथ ही जिस चीज़ ने वहाबियत के फैलने की भूमि समतल की है वह काफिरों द्वारा इस प्रक्रिया का निःसंकोच समर्थन है।

युद्धों व लड़ाइयों में वहाबियों का एक महत्वपूर्ण लक्ष्य अपनी भ्रष्ट विचारा धारा में मौजूद ग़लतियों व कमियों को दूर करना नहीं रहा है बल्कि एक एकेश्वरवाद के प्रचार की आड़ में मुसलमानों की संपत्ति को लूटना रहा है। इस प्रकार की स्थिति को वहाबियों और उनके दुश्मनों ने  नहीं बयान किया है बल्कि वहाबी विचारधार से संबंध रखने वाले इब्ने बशर और इब्ने ग़नाम जैसे इतिहासकारों ने अच्छी तरह बयान किया है। इन इतिहासकारों के कथनानुसार वहाबी जहां भी जाते थे वहां के लोगों की हत्या करते थे और लोगों की सम्पत्ति की लूट- खसोट करते थे और महिलाओं को दासी बना लेते थे। वहाबियों की सेना जिस क्षेत्र में भी पहुंचती थी मुसलमानों की कम से कम सम्पत्ति को भी लूट लेती थी और जो बहुत से लोग वहाबियों की तलवार से सुरक्षित बच जाते थे वे भूख- प्यास से दम तोड़ देते थे। जो भी क्षेत्र या क़बीला वहाबियों के समक्ष नतमस्तक नहीं होता था उसे तबाह कर दिया जाता था और जो क्षेत्र भय से भ्रष्ट वहाबी विचारधारा को स्वीकार कर लेता था वह दरइया की सरकार को नक़दी टैक्स देने पर बाध्य था।

बहुत से अवसरों पर सऊद परिवार लोगों के घरों और ज़मीनों को हड़प लेता था। वर्ष 1187 हिजरी क़मरी में जब अब्दुल अज़ीज़ ने रियाज़ पर विजय प्राप्त की तो कुछ को छोड़कर समस्त घरों और खजूर के बाग़ों पर क़ब्ज़ा करके उसे उसने अपनी व्यक्तिगत सम्पत्ति में शामिल कर लिया।

 

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