Oct ०१, २०१६ १२:५८ Asia/Kolkata

हमने इस्लाम में सलफ़ीवाद की जड़ों और उसके प्रचारकों के बारे में विस्तार से बताया था।

सलफ़ीवाद की विभिन्न शाख़ाएं हैं और कभी कभी तो इनके दृष्टिकोणों में काफ़ी अंतर पाया जाता है। सलफ़ीवाद की एक शाख़ा तकफ़ीरीवाद है। यह शाख़ा अपने अलावा किसी को स्वीकार नहीं करती और अन्य मतों के अनुयाईयों को ग़ैर मुस्लिम मानती है और उनका ख़ून बहाना जायज़ समझती है। हिजाज़ या वर्तमान सऊदी अरब में वहाबियत के जन्म लेने से पहले तकफ़ीरी और आतंकवादी सलफ़ी नहीं पाए जाते थे, यहां तक कि वहाबियों के नेता इब्ने तैमिया को इस्लाम की शिक्षाओं को ग़लत संदर्भ में पेश करने के कारण अपनी उम्र का बड़ा भाग क़ैद में बिताना पड़ा था। उसके बाद मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब ने इब्ने तैमिया के विचारों को पुनर्जीवित किया और इस्लाम की शिक्षाओं की ग़लत व्याख्या में वृद्धि हो गई। आले सऊद के साथ मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के जुड़ने और अंग्रेज़ों की फूट डालने की नीति के कारण हिजाज़ में आले सऊद का वर्चस्व हो गया।

आले सऊद जिस शहर या गांव पर क़ब्ज़ा करते, वहां लोगों का जनसंहार करते और उसे उजाड़ देते थे। वहां के लोगों को मोहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब के विचारों को स्वीकार करने या अपनी और अपने परिजनों की मौत के बीच किसी एक को चुनना होता था। आले सऊद ने वहाबियों के मुक़ाबले प्रतिरोध करने वाली बस्तियों को उजाड़कर पूरे हिजाज़ पर क़ब्ज़ा कर लिया और उसका नाम बदलकर सऊदी अरब रख दिया। इसके बाद आले सऊद ने अन्य मुस्लिम देशों पर वर्चस्व जमाने के लिए प्रयास शुरू कर दिया। सऊदी अरब में तेल की खोज और तेल निकालने के लिए ब्रिटेन एवं अमरीका की उपस्थिति ने पश्चिमी सरकारों के निकट इस देश का महत्व बढ़ा दिया। इस प्रकार अमरीका के नेतृत्व में पश्चिमी देशों का सऊदी अरब से रिश्ता जुड़ गया। आले सऊद जो मुस्लिम देशों में अपना प्रभाव बढ़ाना चाहते थे, मध्यपूर्व में पश्चिम की नीतियों के दलाल बन गए। तेल से हासिल होने वाले डॉलर, हथियार ख़रीदकर अमरीका और यूरोपीय उद्योगों को वापस लौटाए जाने लगे। सऊदी अरब पश्चिम को तेल की सप्लाई करने वाला सबसे बड़ा देश बन गया और उसने अमरीका एवं यूरोप से सबसे अधिक हथियार ख़रीदे। दूसरी ओर यही हथियार मुस्लिम देशों में अमरीका और पश्चिम की नीतियों को आगे बढ़ाने के लिए इस्तेमाल होने लगे।

क्षेत्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न शक्तियों के उभरने और डूबने के आंतरिक एवं विदेशी दो कारण होते हैं। पश्चिमी एवं पूर्वी ब्लाकों के बीच कड़ी प्रतिस्पर्धा का निर्धारण भी इसी परिप्रेक्ष्य में किया जाता था। 1970 के दशक में निक्सन ने अपनी नीति का आधार फ़ार्स खाड़ी के इलाक़े में दो स्तंभों पर रखा। इस नीति के आधार पर ईरान और सऊदी अरब की सरकारों ने इस इलाक़े में शक्ति की खाई को पाटने और अमरीकी योजनाओं को आगे बढ़ाने की ज़िम्मेदारी संभाली।

अमरीका इन दो देशों की आर्थिक एवं सैन्य मदद करता था और अपरोक्ष रूप से उपस्थित हुए बिना इलाक़े में अपने हितों को साधने के लिए इन्हें शक्तिशाली बना रहा था। निक्सन का मानना था कि फ़ार्स खाड़ी के देशों में आर्थिक विकास और सुधारों से ईरान और सऊदी अरब इस इलाक़े में शांति एवं स्थिरता बनाए रखने के लिए अपनी प्रतिबद्धता निभायेंगे।

इन दोनों स्तंभों में से ईरान को वरीयता प्राप्त थी और शांति योजनाओं को बजट की आपूर्ति के लिए सऊदी अरब पर ध्यान दिया जाता था। तेल से होने वाली मोटी आय के बावजूद कम जनसंख्या और औद्योगिक रूप से पिछड़े पन एवं कमज़ोर प्रशासनिक व्यवस्था के कारण सऊदी अरब जेनदार्म दरोग़ा नहीं बन सकता था। निक्सन अमरीका की दो स्तंभों की नीति में सऊदी अरब के दूसरे नम्बर की स्थिति का स्पष्ट रूप से उल्लेख करते हुए कहते हैं कि सऊदी रहस्यमयी घटक माने जाते हैं, इसलिए कि इस बात का भय है कि वे अरब की कट्टरपंथी सरकारों के सामने झुक सकते हैं।

अरब की रूढ़ीवादी सरकारों और ईरान के बीच पुरानी खींचतान एवं प्रतिस्पर्धा के दृष्टिगत, निक्सन की नीति में सऊदी अरब का महत्व इसे ख़ुश रखने के अलावा ईरान और फ़ार्स खाड़ी के दक्षिणी किनारे की अरब सरकारों के हितों में समनव्य बनाना था। निक्सन की नीति में प्रथम स्तंभ के रूप में ईरान ने इलाक़े में दरोग़ा की ज़िम्मेदारी संभाली। 1969 में ईरान के शाह ने एक ब्रितानी पत्रिका को इंटरव्यू देते हुए कहा था कि किसी विदेशी शक्ति को फ़ार्स खाड़ी के इलाक़े में प्रवेश का अधिकार नहीं है, ईरान जहाज़रानी को सुरक्षा प्रदान करेगा। 1970 के दशक में इलाक़े में नई नीति के साथ ही ईरान अभूतपूर्व ढंग से विभिन्न देशों से भांति भांति के और महंगे हथियार ख़रीदने लगा। निक्सन की नीति के आधार पर अमरीका इस ज़रूरत की आपूर्ति में सबसे प्रभावशाली स्रोत था। निःसंदेह 1970 से 1978 तक ईरान की विदेश नीति में अमरीका का अनुसरण सबसे महत्वपूर्ण था। अमरीका के अलावा ईरान, ब्रिटेन, सोवियत संघ, जर्मनी और इस्राईल से भी हथियार ख़रीद रहा था।

इस्लामी क्रांति की सफलता से पहले जो भूमिका ईरान ने निभाई उसे सऊदी अरब नहीं निभा सकता था, हालांकि उसने अपने तौर पर निक्सन की नीति के मुताबिक़ मुस्लिम देशों में अपना रोल अदा किया। वहाबियत के विचारों के विस्तार के मुक़ाबले के बावजूद, वहाबियों ने पाकिस्तान जैसे ग़रीब देशों में मदरसों की स्थापना की और इस्लाम के नाम पर ग़लत एवं कट्टरपंथी विचारों का प्रचार-प्रसार किया।

ईरान में इस्लामी क्रांति की सफलता के बाद, मध्यपूर्व में सऊदी अरब की भूमिका पहले से अहम हो गई। इस्लामी क्रांति की सफलता ने राजनीतिक भूकम्प की भांति मुस्लिम देशों और मध्यपूर्व में अमरीका की वर्चस्ववादी नीतियों की बुनियादें हिला दीं। ईरान की इस्लामी क्रांति ने मूल इस्लाम को पुनर्जीवित किया और कट्टरपंथी इस्लामी विचारधारा को हाशिए पर ला खड़ा किया, जिसका नेतृत्व सऊदी अरब कर रहा था। वंशवादी शासन व्यवस्था और मध्यपूर्व में अमरीकी नीतियों के परिवर्तन के साथ सऊदी अरब ने ख़ुद को ईरान की इस्लामी क्रांति के मुक़ाबले में ला खड़ा किया। इस्लामी क्रांति की सफलता के बाद आले सऊद ने अरब देशों को ईरान के ख़िलाफ़ एकजुट करने का प्रयास किया। सद्दाम के अतिक्रमण के बाद यह बात और स्पष्ट हो गई। ईरान पर थोपे गए आठ वर्षीय युद्ध के दौरान सद्दाम ने सऊदी अरब और अन्य अरब देशों के पैसों से हथियार ख़रीदे। इस युद्ध के अंत में सद्दाम की सेना ईरान पर अतिक्रमण आरम्भ करने के समय से अधिक हथियारों और उपकरणों से लैस थी। सद्दाम ने सऊदी अरब, कुवैत और कुछ अन्य अरब एवं पश्चिमी देशों की सहायता से अपनी सेना को इस प्रकार से लैस किया। सद्दाम ने यह सोचकर कि ईरान-इराक़ युद्ध के बाद उसके पास इलाक़े की सबसे बड़ी सैन्य शक्ति है और अरब देश उसके ख़िलाफ़ कोई क़दम नहीं उठायेंगे, कुवैत पर हमला कर दिया। परिणाम स्वरूप सद्दाम के शासन का पतन हो गया। ईरान की इस्लामी क्रांति की सफलता के बाद, मध्यपूर्व और विश्व में होने वाले हर उतार चाढ़ाव में सऊदी अरब ने न्याय, आज़ादी एवं उदार इस्लाम के मुक़ाबले का प्रयास किया। इसी परिप्रेक्ष्य में उसने मुस्लिम देशों यहां तक कि पश्चिमी देशों में मुस्लिम संगठनों में वहाबी विचारधारा के विस्तार की योजना बनाई। इन गतिविधियों के परिणाम स्वरूप, अल-क़ायदा और उसके बाद दाइश जैसे अन्य तकफ़ीरी आतंकवादी गुटों ने जन्म लिया।

वहाबी विचारधारा के विस्तार के बारे में जनवरी 2016 में अमरीका के एक डेमोक्रेटिक सेनेटर ने अमरीकी विदेश संबंधों की परिषद में ध्यान योग्य बयान दिया था। केन्टिकट राज्य से अमरीकी सेनेटर क्रिस मर्फ़ी ने कहा था कि पाकिस्तानी मदरसों में छात्रों को कट्टरपंथी किताबें पढ़ाई जाती हैं। इन किताबों में जो विषय पढ़ाए जाते हैं वह वहाबियत की विचारधारा पर आधारित हैं। उन्होंने उल्लेख किया कि इन मदरसों के छात्रों से कहा जाता है कि धार्मिक युद्धों का कोई अंत नहीं है और स्कूल, राहत पहुंचाने वाली संस्थाएं और सरकारी संगठन पश्चिम की इस्लाम के ख़िलाफ़ नई चाल है और हमारा धार्मिक कर्तव्य है कि काफ़िरों के ख़िलाफ़ जंग करें। पाकिस्तान, कोसोवो, नाइजीरिया और इंडोनेशिया समेत विश्व के विभिन्न इलाक़ों में इस तरह की शिक्षा दी जाती है।

मर्फ़ी का कहना था कि इस्लामी उदारता से ख़ाली यह शिक्षाएं लाखों मुसलमानों के ज़ेहन को दूषित करती हैं। 1956 में पाकिस्तान में क़रीब 244 मदरसे थे, लेकिन अब इनकी संख्या 24 हज़ार है। विश्व भर में इन मदरसों की संख्या बढ़ रही है। मेरी बात का ग़लत मतलब नहीं निकालिएगा। इन मदरसों में हिंसा नहीं सिखाई जाती है और यह कट्टरपंथी गुटों के बाज़ू नहीं हैं, बल्कि एक प्रकार का इस्लाम सिखाया जाता है, जिसका आसानी से शिया और पश्चिम विरोधी परिणाम निकलता है। उन्होंने आगे कहा कि वहाबियत, इस्लाम में विभिन्न प्रकार के ग़लत परिवर्तन लाने का प्रयास कर रही है। इन मदरसों में जो शिक्षा दी जाती है उसमें दूसरे से घृणा करना सिखाया जाता है और उन्हें काफ़िर बताया जाता है, वे यहूदी हों, ईसाई हों या यहां तक कि शिया, सूफ़ी और सुन्नी हों, वे अगर वहाबी नहीं हैं तो काफ़िर हैं। यह किसी शिया ईरानी धर्मगुरू का बयान नहीं है, बल्कि एक अमरीकी सेनेटर का बयान है।                       

 

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