तकफ़ीरी आतंकवाद-30
ईरान में इस्लामी क्रांति की सफलता के बाद से सऊदी अरब, मध्यपूर्व में सदैव ही इस क्रांति और उसके मूल्यों का विरोधी रहा है।
इस्लामी क्रांति का आरंभ से ही यह नारा था कि वह किसी भी महाशक्ति के साथ नहीं है। यही कारण है कि विश्व की महाशक्तियों के रूप में अमरीका और रूस आरंभ से ही इस्लामी क्रांति के विरुद्ध रहे हैं। ईरान की इस्लामी क्रांति अपने काल की एक अद्वितीय घटना थी। इसकी विशेषता यह रही कि यह तत्कालीन दोनो महाशक्तियों अर्थात रूस या अमरीका में से किसी भी एक पर निर्भर नहीं रही। इसीलिए पूर्वी और पश्चिमी ब्लाकों पर निर्भर गुटों और देशों ने इस्लामी क्रांति के विरुद्ध शत्रुता आरंभ कर दी जो अब भी जारी है।
उदाहरण स्वरूप पूर्वी एवं पश्चिमी दोनों ब्लाकों पर निर्भर सद्दाम ने रूस और अमरीका के समर्थन से सन 1980 में ईरान पर हमला कर दिया। इस्लामी क्रांति के विरुद्ध शत्रुता निभाने के लिए सऊदी अरब को विशेष भूमिका अदा करने का दायित्व सौंपा गया। ईरान पर थोपे गए युद्ध के दौरान सऊदी अरब के अधिकारी सदैव ही सद्दाम के साथ संपर्क में रहे जो युद्ध के लिए सद्दाम को उकसाया करते थे। इस बात को एसे समझा जा सकता है कि 25 सितंबर सन 1980 को सऊदी अरब के तत्कालीन शासक शाह ख़ालिद ने सद्दाम को फोन करके उसे हर प्रकार के समर्थन का आश्वासन दिया था। ईरान पर थोपे गए आठ वर्षीय युद्ध के दौरान सऊदी अरब, सद्दाम का मुख्य समर्थक रहा है। इस युद्ध के दौरान फ़ार्स की खाड़ी के देशों ने सद्दाम की कम से कम 70 अरब डालर की सहायता की थी। इस 70 अरब डालर की सहायता में से 30 अरब डालर, सऊदी अरब ने दिये थे।
सऊदी अरब पर शासन करने वाली वहाबी विचारधारा ने ईरान की इस्लामी क्रांति को सदैव ही अपने शत्रु के रूप में देखा। वास्तविकता यह है कि ईरान में इस्लामी क्रांति की सफलता के बाद अतिवादी वहाबी विचारधारा को न केवल इस्लामी देशों बल्कि पश्चिमी देशों के इस्लामी समुदायों में भी इंजेक्ट किया जाने लगा था। पश्चिम में इस्लाम के शत्रुओं ने जो धन-दौलत, हथियारों और कूटनैतिक माध्यमों से ईरान की इस्लामी व्यवस्था को गिराने के प्रयास में लगे हुए थे, अब धर्म को हथकण्डे के रूप में प्रयोग करना आरंभ कर दिया। अमरीकी राजनेताओं का मानना था कि ईरान की इस्लामी क्रांति के मूल्यों को दूसरों तक पहुंचने से रोकने के लिए यह अति आवश्यक है कि इस्लाम की छवि को ख़राब किया जाए और यह योजना बनाई गई कि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इस्लाम की छवि को धूमिल किया जाए। इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अतिवादी वहाबी विचारधारा का चयन किया गया।
मुसलमान देशों में जो विचारधाराएं प्रचिलत थीं उनमें केवल वहाबी विचारधारा ही वह एकमात्र विचारधारा थी जिसमें हत्या एवं जनसंहार को वैध माना गया है। वहाबी विचारधारा के अनुसार जो भी व्यक्ति इस विचारधारा को मानने से इन्कार करे उसे काफ़िर बताकर उसकी हत्या की जा सकती है। वहाबियत ने पैट्रो डालर की सहायता से मुसलमानों के बीच मतभेद उत्पन्न करने आरंभ कर दिये। वहाबी विचारधारा ने ग़रीब मुसलमान देशों में मदरसे खोलकर अपने विचार फैलाने आरंभ किये। इसके साथ ही ग़रीब मुसलमान देशों के युवाओं को पैसों का लालच देकर उन्हें इस्लाम के नाम पर इस्लाम विरोधी गतिविधियों के लिए तैयार किया गया। इस प्रकार सऊदी अरब पर शासन करने वाली वहाबी विचारधारा, क्षेत्र के मुसलमान देशों के बीच मतभेद फैलाने के साथ ही साथ वास्तव में मध्यूपर्व में पश्चिम की नीतियों को व्यवहारिक बना रही थी।
इसी बीच पश्चिम ने मध्यपूर्व के देशों में मतभेद और अशांति फैलाकर हथियारों के व्यापार को गति प्रदान की। पिछले कई वर्षों के दौरान मध्यूपर्व, हथियारों की बिक्री के बड़े केन्द्र के रूप में परिवर्तित हो चुका है। दूसरे देशों को हथियार बेचने के लिए यह आवश्यक है कि देशों के बीच मतभेद फैलाकर उन्हें एक दूसरे से भयभीत किया जाए। खेद की बात यह है कि वर्तमान समय में मध्यपूर्व, में यहीं नीति स्पष्ट रूप में दिखाई दे रही है और वह मंहगे हथियारों की बहुत बड़ी मंडी बन चुका है।
अमरीका और उसके पश्चिमी घटक चाहते हैं कि इस्लामोफ़ोबिया और ईरानोफ़ोबिया के माध्यम से ईरान को अलग-थलग कर दिया जाए। वे यह नहीं चाहते कि ईरान, क्षेत्र विशेषकर इस्लामी देशों में आदर्श के रूप में उभरे। अपनी इसी सोच को व्यवहारिक बनाने के लिए पश्चिम ईरान के विरुद्ध नित नए षडयंत्र रचता रहता है।
पूर्व सोवियत संघ तथा पूर्वी ब्लाक के विघटन ने अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था को परिवर्तित कर दिया। अमरीका का सबसे बड़ा विरोधी, सोवियत संघ अब समाप्त हो चुका था। अपने सबसे बड़े शत्रु के रास्ते से अलग हो जाने के बाद अमरीका, अब निश्चिंत होकर अपनी मनमानी करने लगा। इस प्रकार सोवियत संघ के विघटन के बाद से अमरीका का एकक्षत्र राज आरंभ को गया।
इन नई परिस्थितियों में अमरीका और उसके घटकों ने इस्लामोफ़ोबिया को बढ़ावा देना शुरू कर दिया। इस काम के लिए पश्चिम को एक एसी कठपुतली की आवश्यकता थी जो उसकी इस नीति को लागू करने में सहायक सिद्ध हो। उन्हें किसी एसे की ज़रूरत थी जो इस्लाम को हिंसक धर्म के रूप में दर्शाए और आम जनमत में इस्लाम विरोधी सोच पैदा कर सके। पश्चिम की नज़र में इस्लाम को बदनाम करने के लिए वहाबी विचारधारा से अच्छा कोई अन्य हथकण्डा मौजूद नहीं था। पश्चिम के लिए एक सकारात्मक बात यह भी थी कि मध्यपूर्व में सऊदी अरब उनका एक अच्छा राजनैतिक घटक था जिससे अमरीका की भी निकटता थी। इस समय अमरीका के इस्लाम विरोधी लक्ष्यों को साधने के लिए उसके पास वहाबी विचारधारा ही सबसे अच्छा साधन है।
अमरीका, ब्रिटेन, सऊदी अरब और पाकिस्तान की गुप्तचर सेवाओं के परस्पर सहयोग से अलक़ाएदा नामक आतंकवादी गुट को अस्तित्व दिया गया। इसका नेतृत्व ओसामा बिन लादेन को सौंपा गया। वे लोग जो मुजाहेदीन के नाम से अफ़ग़ानिस्तान में पूर्व सोवियत संघ की लाल सेना से युद्धरत थे अब उनके लिए नई ज़िम्मेदारियां निर्धारित की गईं। इसी बीच पाकिस्तान के मदरसों से शिक्षा प्राप्त हिंसक विचारधारा वालों से प्रभावित तालेबान नाम के एक संगठन का गठन किया गया। अफ़ग़ानिस्तान पर तालेबान के नियंत्रण के बाद अलक़ाएदा को अपनी आतंकवादी गतिविधियां करने का खुला अवसर मिल गया। अलक़ाएदा और तालेबान ने इस्लाम के नाम पर जिस प्रकार से इस्लामी विरोधी कार्यवाहियां आरंभ कीं उन्होंने अमरीका और उसके इस्लाम विरोधी मित्रों के हाथों यह मौक़ा उपलब्ध कराया कि वे तथाकथित आतंकवाद विरोधी अभियान आरंभ करें। इस बहाने उन्होंने इस्लाम को लक्ष्य बनाना आरंभ कर दिया। उधर इस्लामी गणतंत्र ईरान ने विश्व में इस्लामी लोकतंत्र का एक एसा आदर्श प्रस्तुत कर दिया है जिसके कारण मध्यपूर्व की तानाशाही सरकारों और अलोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के लिए गंभीर ख़तरा आरंभ हो गया है। वे इसको दबाने या समाप्त करने के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं। वास्तविकता यह है कि तालेबान और अलक़ाएदा, अमरीकी उपज हैं जिन्हें धर्म के नाम पर इस्लाम को बदनाम करने के लिए बनाया गया है। बहुत से टीकाकारों और जानकारों का कहना है कि अलक़ाएदा और तालेबान को इस्लाम को बदनाम करने के लक्ष्य से ही अस्तित्व दिया गया है।
(बहुत से जानकारों ने अफ़ग़ानिस्तान में तालेबान और अलक़ाएदा के वुजूद आस्तेत्व में आने की प्रक्रिया को सूत हवाला देकर 11 सितंबर की घटना पेश आते के बारे में अमेरिकी विमान पर संदेह जताया। यह शंका उस समय और अधिक हो जाती है जब अमरीका ने ग्यारह सितंबर की घटना के बहाने अफ़ग़ानिस्तान और इराक़ पर चढ़ाई कर दी। इसके बाद उसने आतंकवाद से मुक़ाबले के नाम पर विश्व स्तर पर बहुत से अन्तर्राष्ट्रीय नियमों का खुलकर उल्लंघन किया।
यहां पर ध्यानयोग्य बिंदु यह है कि जिन 19 लोगों ने चार विमानों का अपचालन करके उन्हें न्यूयार्क के विश्व व्यापार केन्द्र और वाशिग्टन में पेंटागन की बिल्डिंग से टकरा दिया था उनमें से 15, सऊदी नागरिक थे। इससे पता चलता है कि सऊदी अरब पर शासन करने वाली वहाबी विचारधारा, व्यवहारिक रूप में मध्यपूर्व में अमरीकी नीतियों की संचालनकर्ता है। सऊदी शासक अर्थात आले सऊद को यह भलि भांति पता है कि उनका जीवन, अमरीका और पश्चिम के समर्थन में ही सुरक्षित है अन्यथा उनका अंत हो जाएगा।