Dec ३१, २०१६ १७:१७ Asia/Kolkata

इससे पहले के कार्यक्रमों में यह बताया गया कि तकफ़ीरी आतंकी गुट विशेष कर दाइश किस प्रकार अस्तित्व में आया।

इन गुटों का वहाबियत से लगाव और इनको अस्तित्व में लाने तथा मज़बूत बनाने में पश्चिमी सरकारों विशेष कर अमरीका व ब्रिटेन की भूमिका, पश्चिमी राजनेताओं के बयानों में पूरी तरह से स्पष्ट है। इस कार्यक्रम में हम तकफ़ीरी गुटो के वैचारिक आधारों और उनके शुद्ध इस्लामी शिक्षाओं के विरुद्ध होने के बारे में बात करेंगे। सलफ़ियों के विचारों का एक अहम आधार हदीस को बुद्धि पर प्राथमिकता देना है। पैग़म्बरे इस्लाम के निधन के बाद ही इस प्रकार के विचार सामने आने लगे थे कि ईश्वर की किताब हमारे लिए काफ़ी है और हमें बुद्धि इस्तेमाल करने या हदीस को आधार बनाने की ज़रूरत नहीं है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम के विरुद्ध उठ खड़े होने वाले पथभ्रष्ट गुट ख़वारिज का भी यही विचार था। ख़वारिज के लगभग दो सौ साल बाद तीसरी शताब्दी हिजरी में अहले हदीस के प्रमुख धर्मगुरू अहमद इब्ने हम्बल ने भी इसी प्रकार की विचारधारा अपनाई और आयतों और हदीसों के ज़ाहिरी अर्थ को अत्यधिक महत्व दिया।

तकफ़ीरी गुटों द्वारा बुद्धि से दूरी और हदीसों पर अत्यधिक बल, आयतों और हदीसों के विदित अर्थों पर आंख बंद करके भरोसा करने का कारण बनता है। इस संबंध में वे इस्लाम के मूल सिद्धांतों से भी हट जाते हैं और ईश्वर को साक्षात भी मान लेते हैं। एक वहाबी मुफ़्ती सालेह बिन फ़ौज़ान का कहना है कि ईश्वर ने अपने लिए जो भी शब्द प्रयोग किया है या पैग़म्बरे इस्लाम ने ईश्वर की जो भी विशेषता बयान की है उसका वही अर्थ है जो विदित रूप में मौजूद है। दयालु ईश्वर अर्श पर बैठा हुआ है जैसी आयतों के आधार पर वहाबी, ईश्वर के एक विशेष स्थान पर होने की आस्था रखते हैं और उसे हर स्थान पर मौजूद होने की बात मानने वाले को काफ़िर कहते हैं।

अगर अर्थ पर शब्द की प्राथिकता की आस्था रखने वाले गुटों को तलाश किया जाए तो उनमें ख़वारिज सबसे पहले आते हैं। ये लोग, अपनी संकीर्ण दृष्टि और क़ुरआने मजीद की आयतों की विदित व्याख्या की आस्था के कारण इस्लामी जगत में एक बड़ी पथभ्रष्टता और हज़रत अली अलैहिस्सलाम की हत्या का कारण बने। इन लोगों ने सिफ़्फ़ीन के युद्ध में मुआविया के धूर्त मंत्री अम्रे आस की शैतानी चाल में आते हुए, क़ुरआन की आयत ला हुक्मा इल्ला लिल्लाह की ग़लत व्याख्या की। अम्रे आस ने पराजित हो रही मुआविया की सेना के सिपाहियों से कहा कि वे अपने भालों पर क़ुरआन उठा लें और यही आयत पढ़ें। इस आयत का अर्थ है कि ईश्वर के आदेश के अलावा कोई आदेश नहीं है। उन्होंने कहा कि हम चाहते हैं कि हमारे बीच क़ुरआन फ़ैसला करे। हज़रत अली की सेना के कुछ सिपाही जो बाद में ख़वारिज कहलाए, इस चाल में आ गए और हज़रत अली अलैहिस्सलाम के बहुत समझाने के बावजूद उन्होंने मुआविया की सेना से लड़ने से इन्कार कर दिया। इन्हीं में से एक ने आगे चल कर हज़रत अली को मस्जिद में नमाज़ की अवस्था में शहीद कर दिया।

ईश्वर के कथन के मूल अर्थ की ओर ध्यान न देना, वह शैली है जिसे दाइश व ख़वारिज जैसे गुट समय तथा राजनैतिक व सामाजिक परिस्थितियों को दृष्टिगत रखे बिना लागू करना चाहते हैं। इस प्रकार के लोग क़ुरआने मजीद की तफ़सीर या व्याख्या, आयत के नाज़िल होने की परिस्थिति, उसके तात्पर्य, उसके संबंध में पैग़म्बर की शैली और शिष्टाचारिक नियमों पर ध्यान दिए बिना इब्ने तैमिया के दृष्टिकोणों पर आधारित क़ुरआने मजीद की एक हिंस छवि पेश करते हैं जो पश्चिम की इस्लामोफ़ोबिया की नीतियों के परिप्रेक्ष्य में है। तकफ़ीरी, क़ुरआने मजीद की आयतों की तफ़सीर व तावील पर ध्यान दिए बिना उसकी विदित शब्दों को आधार बना कर अन्य मुसलमानों को काफ़िर ठहराने का आदेश जारी करते हैं। वे सूरए निसा की आयत क्रमांक 17 के विदित अर्थ को आधार बना कर घोषणा करते हैं कि अगर किसी मुसलमान ने छोटा सा भी पाप किया और तुरंत तौबा न की तो वह काफ़िर हो जाता है क्योंकि क़ुरआने मजीद कहता है कि निश्चय ही ईश्वर उन्हीं लोगों की तौबा स्वीकार करता है जो अनजाने में कोई बुराई कर बैठें फिर जैसे ही उस काम की बुराई को समझे तो तुरंत ही तौबा कर लें तो ऐसे ही लोग हैं जिन्हें ईश्वर क्षमा करता है। दाइश के तकफ़ीरी आतंकियों ने इसी तरह सूरए नहल की 126वीं आयत को आधार बना कर जॉर्डन के एक पकड़े गए पायलट को पाश्विक ढंग से जला दिया था। आयत का अनुवाद है। और अगर तुम दंडित करो तो उसी तरह दंडित करो जैसे तुम्हें दंडित किया गया था।

क़ुरआने मजीद की हर प्रकार की तफ़सीर व तावील को नकारना और शब्दों व आयतों के अंदर पाए जाने वाले अर्थों पर ध्यान दिए बिना केवल शब्दों के विदित अर्थ को पर्याप्त समझ लेना, दाइश जैसे आतंकी गुटों की पाश्विक कार्यवाहियों के लिए माध्यम का काम करता है। यह ऐसी स्थिति में है कि जब क़ुरआने मजीद की आयतों व हदीसों के अनुसार, आयतों के अनेक अर्थ होते हैं जिनमें से कुछ विदित होते हैं और कुछ भीतरी होते हैं जिन्हें हर व्यक्ति अपनी समझ और आध्यात्मिक गुंजाइश के अनुसार समझता है। उदहारण स्वरूप सूरए निसा की 78वीं आयत में कहा गया कि इन लोगों को क्या हो गया है कि यह बात के अर्थ को नहीं समझते हैं। इसी तरह सूरए निसा की आयत क्रमांक 82 में कहा गया है कि क्या वे क़ुरआन में गहराई से चिंतन नहीं करते? अगर यह ईश्वर के अलावा किसी और की तरफ़ से होता तो इसमें अत्यधिक विरोधाभास पाते। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की विश्वस्त हदीसों में भी आयतों के ज़ाहिर व बातिन अर्थात विदित व भीतरी रूप होने की बात कही गई है।

दाइश जैसे तकफ़ीरी गुट सूरए निसा की 17वीं आयत को आधार बनाते हैं जिसमें अज्ञानता के चलते पाप करने पर जल्द ही तौबा करने पर बल दिया गया है जबकि अन्य आयतों व हदीसों के अनुसार इस प्रकार का अर्थ निकालना ग़लत है। जैसा कि सुन्नी मुसलमानों की हदीस की विश्वस्त किताबों में पैग़म्बरे इस्लाम की यह हदीस बयान की गई है कि जो भी प्रलय के चिन्ह सामने आने से पहले सूर्योदय से पहले तौबा कर ले तो उसकी तौबा स्वीकार्य है। इस आधार पर इस आयत में तौबा करने के समय का अर्थ मरने से पहले या प्रलय की निशानियां सामने आने से पहले तौबा करना है।

सलफ़ी तकफ़ीरियों का एक वैचारिक आधार, आयतों और हदीसों का अर्थ समझने में बुद्धि का इस्तेमाल न करना है। शिया व सुन्नी मुसलमानों के बीच धार्मिक आदेशों को समझने का एक स्रोत बुद्धि है जिसका अर्थ यह है कि बुद्धि, कर्मों के अच्छे व बुरे होने को भली भांति समझती है लेकिन सलफ़ियों ने आरंभ से लेकर अब तक इस बात को स्वीकार नहीं किया है। उनका मानना है कि क़ुरआने मजीद और पैग़म्बर के चरित्र में धर्म के सभी आदेश मौजूद है और बुद्धि के इस्तेमाल की कोई ज़रूरत नहीं है। इब्ने तैमिया का कथन है कि पैग़म्बरे इस्लाम ने धर्म के आधारों व आदेश, बाह्य रूप और भीतरी रूप और ज्ञान व कर्म सबको एकत्रित कर दिया है और यह ईमान का आधार है, जिसने भी इस सिद्धांत को स्वीकार किया वही अहले सुन्नत है और अनुसरण के लिए प्राथमिकता रखता है। इब्ने तैमिया तर्कशास्त्र व दर्शनशास्त्र के इतने विरोधी थे कि उन्होंने इस संबंध में कई किताबें भी लिखी हैं। वे बुद्धिवाद को नकारते हुए कहते हैं कि जो लोग बुद्धि के इस्तेमाल का बचाव करते हैं वास्तव में एक मूर्ति की सराहना करते हैं जिसे उन्होंने बुद्धि का नाम दे रखा है। बुद्धि कभी भी अकेल लोगों के मार्गदर्शन के लिए पर्याप्त नहीं है और अगर ऐसा होता तो ईश्वर कभी भी पैग़म्बरों को नहीं भेजता।

बुद्धि का एक अहम अर्थ, मानव का बौद्धिक ज्ञान है जो तकफ़ीरी गुटों की दृष्टि में एक ऐसा फ़ितना है जो मनुष्य को ईश्वर से आवश्यकतामुक्त बना देता है। इस प्रकार के वैचारिक आधारों के साथ दाइश जैसे तकफ़ीरी गुट, धार्मिक आदेशों की पहचान के स्रोत के रूप में बुद्धि को कोई भी स्थान नहीं देते। यह ऐसी स्थिति में है कि जब क़ुरआने मजीद लोगों को निरंतर सोच-विचार और चिंतन-मनन का निमंत्रण देता है। क़ुरआने मजीद में इल्म अर्थात ज्ञान और उससे निकलने वाले शब्दों की संख्या 780 है, अक़्ल अर्थात बुद्धि और उससे निकलने वाले शब्दों का प्रयोग 49 बार किया गया है जबकि तफ़क्कुर या चिंतन शब्द 18 बार आया है और बुदिमान शब्द 16 बार आया है। इसी तरह पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम पर जो पहली आयत नाज़िल हुई है उसमें क़लम और इल्म की ओर संकेत किया गया है। इससे पता चलता है कि इस्लाम, ज्ञान, संस्कृति, बुद्धि और सोच-विचार को विशेष महत्व देता है।

 

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