Jan ०३, २०१७ १७:०४ Asia/Kolkata

ईरान की इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैय्यद अली ख़ामेनई अर्थव्यवस्था के आधारभूत ढांचे को मज़बूत बनाने पर काफ़ी बल देते हैं।

इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने पिछले कुछ ईरानी वर्षों का नामांकरण करते हुए इस प्रकार के नारे दिएः उपभोग के मानकों में सुधार, दोगुना साहस, दोगुना काम, आर्थिक जेहाद का वर्ष, राष्ट्रीय संकल्प और जेहादी प्रबंधन के साथ अर्थव्यवस्था और संस्कृति। इससे प्रतिरोधक अर्थव्यवस्था के आदर्श की रूपरेखा का पता चलता है। ईरानी जारी वर्ष के शुरू में भी वरिष्ठ नेता ने प्रतिरोधक अर्थव्यवस्था, क़दम और अमल का नारा दिया।

यह नारे आर्थिक विकास के आधारभूत ढांचो को मज़बूत बनाने की बुनियाद समझे जाते हैं और यह वास्तव में उस प्रक्रिया का भाग हैं जो आर्थिक स्थिरता को मज़बूती प्रदान करते हैं। वरिष्ठ नेता ने ईरान के ख़िलाफ़ दुश्मन के साथ आर्थिक युद्ध और उसके उद्देश्यों की पूर्ण रूप से जानकारी प्राप्त करने का अनेक बार उल्लेख किया है कि इस संवेदनशील दौर से गुज़रने और आर्थिक सुरक्षा तक पहुंचने के लिए प्रतिरोधक अर्थव्यवस्था को गंभीर लिया जाना ज़रूरी है। इसलिए आर्थिक सुरक्षा, चुनौतियों के मुक़ाबले में अर्थव्यवस्था को मज़बूत बनाने के लिए महत्वपूर्ण है।

आज राष्ट्रीय सुरक्षा को विभिन्न चुनौतियों का सामना है। इस परिप्रेक्ष्य में सॉफ़्ट वार, विदेशी मुद्रा बाज़ार के पतन के रूप में आर्थिक युद्ध, शेयर मार्केट का पतन, आर्थिक अशांति या नॉलेज बेस्ड आर्थिक प्रगति के मार्ग में रुकावटें डालना और आधुनिक तकनीक से रोकने के लिए प्रतिबंधों का लगाना जैसे क़दमों की ओर संकेत किया जा सकता है।

आर्थिक चुनौतियां अकसर सॉफ़्ट वार के रूप में प्रकट होती हैं। इसके लिए देशों को आर्थिक रूप से निर्भर बनाकर उन्हें निंयत्रित किया जाता है। हालांकि विश्व की आर्थिक परिस्थितियों में बदलाव और समाज की ज़रूरतों के अनुसार, इनमें परिवर्तन होता रहता है। उदाहरण स्वरूप, अतीत में देश अपनी ज़रूरतों को किसी हद तक घरेलू उत्पादन के ज़रिए पूरा करते थे, लेकिन जनसंख्या और ज़रूरतों में वृद्धि के साथ यह देश औद्योगिक अर्थव्यवस्था पर अधिक निर्भर हो गए है।

दूसरे विश्व युद्ध के बाद, विश्व के दो ध्रुवों में बंट जाने से यह निर्भरता और अधिक हो गई और व्यवहारिक रूप से देश दो भागों में बंट गए एक समृद्ध और दूसरे निर्धन। इस प्रकार कमज़ोर देशों के आर्थिक स्रोतों को स्पष्ट रूप से लूटा जाने लगा। विशेष रूप से मध्यपूर्व का तेल औद्योगिक देशों के विकास में अहम भूमिका निभाने लगा। इस विकास के परिणाम स्वरूप, औद्योगिक देशों में बनने वाली वस्तुओं से तीसरी दुनिया के देशों के बाज़ार पट गए, जिन्हें महंगे दामों पर बेचा जाने लगा। इससे औद्योगिक देशों के उत्पादन और धन में वृद्धि हुई।

पश्चिमी देशों की इस नीति ने तीसरी दुनिया के देशों को आर्थिक रूप से निर्भर बना दिया, समय बीतने के साथ साथ यह स्थिति अधिक जटिल होती गई। इसीलिए ज़रूरत इस बात की है कि इन चुनौतियों से निपटने के लिए सुरक्षा के दायरे को बढ़ाना होगा और सैन्य चुनौतियों के अलावा, इसमें आर्थिक एवं कृर्षि और भोजन की चुनौतियों को भी शामिल करना होगा।

मोटे तौर पर प्रतिरोधक अर्थव्यवस्था, दबावों और आर्थिक झटकों के मुक़ाबले के लिए आर्थिक विकास और मज़बूत स्थिति की प्राप्ति है। यह दोनों चीज़ें आर्थिक दबावों के मुक़ाबले के लिए ज़रूरी हैं। इस संदर्भ में प्रतिरोधक अर्थव्यवस्था के विभिन्न उद्देश्य हैं, उनमें से एक आधुनिक तकनीक के आधार पर उत्पादन को मज़बूत बनाना है। 

इस विषय के महत्व के दृष्टिकगत, प्रतिरोधक अर्थव्यवस्था की रणनीति में जिस बिंदु पर बल दिया गया है वह यह है कि नॉलेज बेस्ड अर्थव्यवस्था पर भरोसा किया जाए। शिक्षा की व्यवस्था में सुधार किया जाए और उत्पादन तथा निर्यात में वृद्धि करके क्षेत्र में पहला स्थान प्राप्त किया जाए।

विश्व में होने वाले शोध कार्यों में ईरान की भागीदारी के बारे में जो आंकड़ें प्राप्त हुए हैं, उससे पता चलता है कि विश्व में ईरान की भागीदारी 1.58 प्रतिशत है। इससे स्पष्ट होता है कि ईरान में प्रतिभा की कमी नहीं है, हालांकि अभी भी नॉलेज बेस्ड अर्थव्यवस्था तक पहुंचने के लिए काफ़ी दूरी तय करनी होगी।

आज नई तकनीक के आधार पर आर्थिक विकास हो रहा है और अर्थव्यवस्था के आधारभूत ढांचे में तेज़ी से परिवर्तन हो रहा है। वास्तव में ज्ञान से लाभ उठाने और उसके विस्तार से आर्थिक शक्ति में वृद्धि होती है। यही कारण है कि शोध और तकनीक में जिन देशों की भागीदारी अधिक है, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वे आर्थिक एवं राजनीतिक रूप में शक्तिशाली हैं। दूसरे शब्दों में आज की दुनिया में शोध कार्यों में निवेश और आर्थिक एवं राजनीतिक योग्यता के बीच सीधा संबंध है।

आज की दुनिया में आर्थिक विकास के लिए शोध और तकनीक केन्द्रों का होना ज़रूरी है। यही कारण है कि पिछले तीन दशकों के दौरान, विकसित देशों ने नॉलेज बेस्ड रोज़गार पर काफ़ी ध्यान दिया है। आज तकनीक आर्थिक विकास का महत्वपूर्ण आधार माना जाता है। विभिन्न समाजों में होने वाले शोधों से पता चलता है कि स्थिर आर्थिक विकास ज्ञान और तकनीक पर आधारित है। इसलिए कहा जा सकता है कि नॉलेज बेस्ड अर्थव्यवस्था में शोध कार्यों को अतीत की तुलना में अधिक महत्व दिया जाने लगा है।

अनेक अर्थशास्त्रियों का मानना है कि आज बाज़ार का आकार देशों के विकास में अहम भूमिका रखता है। यह बात ध्यान योग्य है कि नॉलेज बेस्ड अर्थव्यवस्था की प्राप्ति के लिए केवल सूचनाओं का आदान प्रदान करना काफ़ी नहीं है, बल्कि आर्थिक स्रोतों में उनका प्रयोग महत्वपूर्ण है।

प्रतिरोधक अर्थव्यवस्था में नॉलेज बेस्ड अर्थव्यवस्था के विकास की ज़रूरत के अलावा, अर्थव्यव्सथा को स्थिर बनाने के लिए आर्थिक संबंधों को विविधता प्रदान करना और उनमें संतुलन पैदा करना भी ज़रूरी है। आर्थिक सहयोग, संयुक्त बाज़ार के रूप लेने और आर्थिक रुकावटों को दूर करने के लिए अहम है, इसलिए आर्थिक सहयोग स्थिर अर्थव्यवस्था के लिए ज़रूरी है।

आर्थिक सहयोग का एक अनुभव, यूरोप का अनुभव है। यूरोप में आर्थिक सहोयग की शुरूआत डेन्यूब नदी में जहाज़रानी और पोस्ट संघ के आधार पर 1856 और 1874 में हुई, जो पहले विश्व युद्ध तक निरंतर जारी रही। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान, इस प्रक्रिया में तेज़ी आई और 1947 में मार्शल योजना के क्रियान्वयन से यूरोपीय आर्थिक सहयोग संगठन का गठन हुआ। दक्षिण पूर्वी एशिया में सहयोग की प्रक्रिया, एक दूसरा आर्थिक सहयोग का अनुभव है। दक्षिण पूर्वी एशिया के देशों के संघ, आसियान का गठन 1967 में आर्थिक सहयोग और क्षेत्रीय शांति व स्थिरता के उद्देश्य से थाइलैंड में हुआ और धीरे धीरे ग़ैर सदस्य देशों के साथ आर्थिक सहयोग में वृद्धि होती गई।

साठवें दशक को राष्ट्र संघ के विस्तार का दशक निर्धारित किए जाने के बाद, क्षेत्रीय आर्थिक सहोयग का विशेष महत्व हो गया। ईरान, पाकिस्तान और तुर्की ने भी इस आधार पर आर्थिक सहयोग में वृद्धि की। इस संदर्भ में, तीन क्षेत्रीय देशों ने आरसीडी संगठन की स्थापना की। ईरान की इस्लामी क्रांति की सफलता के बाद, आरसीडी का नाम बदलकर एको हो गया। 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद, उससे आज़ाद होने वाले नए देश और अफ़ग़ानिस्तान को भी इसकी सदस्यता मिल गई, जिसके बाद इसके सदस्यों की संख्या बढ़कर 10 हो गई।

गंभीर आर्थिक सहयोग, राजनीतिक सहयोग में बदल सकता है। इस वास्तविकता को भी स्वीकार किया जाना चाहिए कि आर्थिक उतार चढ़ाव और संकट एक स्पष्ट बात है। 2007 में अमरीका और यूरोप के आर्थिक संकट से पता चलता है कि इन देशों की अर्थव्यवस्था में उतार चढ़ाव आ सकता है। इस प्रकार, महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि किस तरह से कठिन परिस्थितियों का सामना किया जाए।

सफल देशों का अनुभव इस वास्तविकता को दर्शाता है कि आर्थिक मॉडल आर्थिक संकट का मुक़ाबला करने की भूमि प्रशस्त करता है। प्रतिरोधक अर्थव्यवस्था में वही देश अधिक सफल है  जो अपनी योग्यताओं का सही प्रयोग करे और दूसरों के साथ आर्थिक संबंधों में संतुलन बनाकर रखे।

अमरीकी लेखक एलविन टॉफ़लर इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए टेक्नॉलौजी की भूमिका को अहम क़रार देते हैं। उन्होंने बहुत सी किताबें और लेख लिखे हैं, लेकिन इस संदर्भ में उनकी तीन किताबें बहुत अहम हैं। 1970, 1980 और 1990 में प्रकाशित होने वाली उनकी इन किताबों में परिवर्तन एक अतंहीन वास्तविकता के रूप में उनके विचारों का उल्लेख है।

इन किताबों में उल्लेख किया गया है कि हमारे बारे में तेज़ी से परिवर्तन अचानक या अव्यवस्थित रूप में नहीं है, बल्कि उसके पीछे कारण होते हैं, जिसके आधार पर हमें स्ट्रैटेजिक रूप से परिवर्तनों का मुक़ाबला चाहिए और ख़तरनाक प्रतिक्रियाओं से बचना चाहिए। टॉफ़्लर तीसरी लहर नामक किताब में दूसरी लहर के तहत यूरोप में औद्योगिक क्रांति के उत्पन्न होने के बारे में लिखते हैं, दूसरी लहर इंसान के तीन सौ वर्षों पर आधारित है, इस दौरान औद्योगिक क्रांति उत्पन्न हुई और उसने मानव जीवन को प्रभावित किया और समाज में विशेष परिस्थितियां उत्पन्न कीं।

वास्तव में अनेक देशों ने अपने आतंरिक स्रोतों और दीर्घकालिक योजनाओं को लागू करके विश्व अर्थव्यवस्था में अहम स्थान प्राप्त किया है। इस प्रक्रिया में दो अहम बिंदु थे, एक आंतरिक योग्यताएं और दूसरे विदेशी योग्यताएं। उदाहरण स्वरूप, आसियान देशों में से इंडोनेशिया ने 2012 में 204 अरब डॉलर का निर्यात किया।

दूसरा उदाहरण जापान का है। विश्व में जीडीपी की दृष्टि से उसका स्थान दूसरा और पीपीपी की दृष्टि से तीसरा है। दूसरे विश्व युद्ध में जापान की अर्थव्यवस्था तबाह हो गई थी। लेकिन उसके बाद उसने मुआवज़ा अदा करने के बाद, तेज़ी से आर्थिक विकास किया। जापान ने विदेश निर्मित चीज़ों के आयात को रोक कर स्वदेश निर्मित चीज़ों को बढ़ावा दिया। इस देश के विशेषज्ञो ने 19वीं शताब्दी के दूसरे आधे भाग में नए उद्योगों की आधारशीला रखी, जिससे देश की अर्थव्यवस्था में तेज़ी से विकास हुआ।

इससे पता चलता है कि आर्थिक उद्देश्यों तक पहुंचने के लिए विभिन्न मार्ग मौजूद हैं। इनमें से कुछ मार्गों को दृष्टिकोण के रूप में पेश किया गया है। उनमें से कुछ अंतर्दर्शनात्‍मक हैं। भारत और ब्राज़ील जैसे देशों ने स्वदेशी उत्पादन को बढ़ावा दिया है। दक्षिण कोरिया औऱ तुर्की जैसे देशों ने बहिर्गामी मार्ग अपनाया और निर्यात पर विशेष ध्यान दिया। ईरान को भी भू राजनीतिक दृष्टि और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कट्टर दुश्मनों के कारण, विभिन्न स्तरों पर नए सिरे से योजनाएं तैयार करने की ज़रूरत है। प्रतिरोधक अर्थव्यवस्था, वास्तव में वही नई योजना है, जो वर्तमान परिस्थितियों में ईरान के लिए नई स्ट्रैटेजी हो सकती है।

आईएनएसएस ने प्रतिबंधों की समाप्ति के बाद, प्रतिरोधक अर्थव्यवस्था के बारे में अपनी रिपोर्ट में उल्लेख किया है कि ईरान की प्रतिरोधक अर्थव्यवस्था, एक रणनीतिक दृष्टिकोण है, जो न केवल अब तक प्रतिबंधों को सहन कर चुका है, बल्कि उसने लोगों की आर्थिक समस्याओं को कम किया है।

ईरान की प्रतिरोधक अर्थव्यवस्था के बारे में अमरीकन इंटरप्राइज़ थिंक टैंक का मानना है कि प्रतिरोधक अर्थव्यवस्था की नीति के कारण, ईरान परमाणु वार्ता की मेज़ पर अधिक आत्मविश्वास से उपस्थित हुआ, इसलिए कि वार्ता विफल होने की स्थिति में ईरान के पास विकल्प था और वह वही प्रतिरोधक अर्थव्यवस्था है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि प्रतिरोधक अर्थव्यवस्था की रणनीति राष्ट्रीय हितों और उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए महत्वपूर्ण है, जिसके परिणाम स्वरूप समस्त क्षेत्रों में सुरक्षा में वृद्धि होगी।                                                      

 

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