Jan १६, २०१७ १४:१८ Asia/Kolkata

सलफ़ियों का एक मूल सिद्धांत आयतों और रिवायतों के समझने में बुद्धि की भूमिका को रद्द करना है।

सलफ़ियों या तकफ़ीरियों के निकट बुद्धि का कोई स्थान नहीं है। उनका मानना है कि क़ुरान और पैग़म्बरे इस्लाम (स) के आचरण में धर्म के पूर्ण सिद्धांत मौजूद हैं और इन्हें समझने और उनका पालन करने के लिए बुद्धि की कोई ज़रूरत नहीं है।

दाइश जैसे तकफ़ीरी गुट इस विचारधारा के कारण, शरीयत के आदेशों की प्राप्ति और उनकी जानकारी के लिए बुद्धि को कोई महत्व नहीं देते। यह ऐसी स्थिति में है, जब क़ुरान निरंतर इंसान से ज्ञान प्राप्ति, चिंतन मनन करने और बुद्धि से काम लेने का आहवान कर रहा है। पैग़म्बरे इस्लाम पर नाज़िल होने वाली सबसे पहली आयत में पढ़ाई, क़लम और ज्ञान का उल्लेख किया गया है। यह इस्लाम के लिए गौरव की बात है कि यह धर्म ज्ञान, संस्कृति, चिंतन और जानकारी को विशेष महत्व देता है। जानकारी प्राप्त करने की शैली के दृष्टिगत, तकफ़ीरी सलफ़ियों का मानना है कि हमारे पूर्वजों की समझ सर्वश्रेष्ठ थी और हमें उन्हीं की समझ का अनुसरण करना चाहिए। इसलिए कि हमारे पूर्वजों की समझ शुद्ध थी, उसके अलावा किसी भी समझ का इस्लाम से कोई संबंध नहीं है, बल्कि वह इंसान को सही रास्ते से भटकाती हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से सलफ़ शब्द का इस्तेमाल इब्ने तैमिया से पहले उसके सामान्य अर्थ पूर्वजों के लिए होता था। लेकिन इब्ने तैमिया ने इसके लिए एक नई परिभाषा गढ़ी। इसके बाद मोहम्मद इब्ने अब्दुल वह्हाब ने इसे अन्य मतों के अनुयाई मुसलमानों को काफ़िर कहने के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर दिया।

मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि सलफ़ से अभिप्राय अच्छे और नेक पूर्वज हैं, जिन्होंने इस्लाम के उदय के बाद तीन शताब्दियों के भीतर जीवन व्यतीत किया। इस परिभाषा का स्रोत पैग़म्बरे इस्लाम (स) की वह हदीस है, जिसे सही बुख़ारी, सही मुस्लिम और इब्ने मसऊद जैसी पुस्तकों ने ज़िक्र किया है, सर्वश्रेष्ठ लोग मेरी शताब्दी के लोग हैं, उसके बाद वे लोग जो इनके बाद आयेंगे। उनके बाद ऐसे लोग आयेंगे कि उनमें से प्रत्येक की गवाही उनकी क़सम और उनकी क़सम उनकी गवाही के विपरीत होगी।

इब्ने तैमिया और उसके अनुयाईयों ने इस हदीस के आधार पर इस्लाम की पहली तीन शताब्दियों को सही और ग़लत के लिए मापदंड मान लिया, जो कुछ इस अवधि में किया गया या पूर्वजों ने व्यवहारिक रूप से उसकी पुष्टि की है वे उसे पूर्ण रूप से स्वीकार करते हैं। इसलिए सलफ़ीवाद का अर्थ पैग़म्बरे इस्लाम के साथियों और उनके बाद आने वालों और दूसरी एवं तीसरी हिजरी शताब्दी के हदीस के विद्वानों का अनुसरण है। परिणाम स्वरूप यह मत केवल क़ुरान और आयतों के ज़ाहिरी अर्थ को पर्याप्त मानता है और उसकी व्याख्या में विश्वास नहीं रखता। सामाजिक दृष्टि से यह विचारधारा तकफ़ीरी और चरमपंथी गुटों के जन्म लेने का कारण बनी, जो अन्य इस्लामी मतों को ग़लत मानते हैं।

सलफ़ीवाद का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य ख़िलाफ़त की पुनः स्थानपना करना है, वह इसके अलावा किसी भी शासन को पूर्ण रूप से ग़लत मानता है और उन्हें बदलने पर बल देता है। इस आधार पर आज की समस्त संस्थाएं और शासन ग़ैर इस्लामी हैं, जिनका इनकार किया जाना चाहिए। इस सलफ़ीवाद के कारण ही आज दाइश भी पूर्वजों के अनुसरण का दावा करते हुए अपने अपराधों को सही ठहरा रहा है।

सलफ़ीवाद की कई आयामों से आलोचना की जा सकती है। पैग़म्बरे इस्लाम (स) की इस हदीस को सलफ़ियों द्वारा अपनी बात प्रमाणित करने के लिए आधार बनाने के बारे में कि सर्वश्रेष्ठ शताब्दी मेरी शताब्दी है, कुछ ध्यान योग्य बिंदु हैं। ख़ैरुल क़ुरून की व्याख्या तीन सौ साल के रूप में करने का कोई आधार नहीं है और यह इस हदीस की ग़लत व्याख्या है। इसलिए कि अरबी भाषा में क़र्न या शताब्दी का अर्थ वर्तमान के विपरीत, सौ साल नहीं है, बल्कि उसका अर्थ ऐसी जनसंख्या है, जो एक समय में जीवन व्यतीत करती हो और उसके बाद दूसरे लोग उनका स्थान ले लेते हैं। क़ुरान ने भी इस शब्द को इसी अर्थ में प्रयोग किया है। क़ुरून शब्द क़ुराने मजीद में 7 बार इस्तेमाल हुआ है और उसका अर्थ 100 साल नहीं है।

अहले सुन्नत के निकट इब्ने हजर अस्क़लानी सबसे बड़े विद्वान हैं। वे इतिहास, हदीस और हदीस से संबंधित अन्य विषयों में विशेषज्ञ समझे जाते हैं। हाफ़िज़ जलालुद्दीन सुयूती, इब्ने हजर अस्क़लानी का इस तरह से परिचय कराते हैः वे इमाम और हाफ़िज़ थे अपने समय के सर्वश्रेष्ठ क़ाज़ी थे। पूरी दुनिया से हदीस के ज्ञान के प्यासे उनके पास प्यास बुझाने पहुंचते थे। इब्ने हजरे अस्क़लानी ने ख़ैरुल क़ुरून की व्याख्या में क़र्न की लोगों के रूप में परिभाषा की है। हालांकि अगर पहली तीन हिजरी शताब्दियों को ही इसमें शामिल कर लें तो यहां यह सवाल पैदा होता है कि उन तीन शताब्दियों को किस प्रकार से सर्वश्रेष्ठ क़रार दिया जा सकता है, जबकि अहले हदीस जिन चीज़ों को बिदअत अर्थात धर्म में किसी ग़लत नई परम्परा की शुरूआत कहते हैं वह इसी एक शताब्दी या उससे कुछ अधिक समय में हुई है। ख़वारिज और अन्य कई मतों ने इसी काल में जन्म लिया। हालांकि यहां यह कहा जा सकता है कि पूर्वजों की समझ को सर्वश्रेष्ठ मानना और उसे वास्तविकता तक पहुंचने के लिए एकमात्र मार्ग क़रार देना ख़ुद एक बिदअत है। दूसरे यह कि ख़ुद उन्होंने पूर्वजों की बातों में अपनी बातों को शामिल कर दिया है और उन्हें पूर्वजों के विश्वासों के रूप में इस्लामी जगत में पेश कर रहे हैं।

अनेकेश्वरवाद, एकेश्वरवाद, इबादत और सलफ़ की उनकी परिभाषा का पूर्वजों के विश्वासों से कोई लेना देना नहीं है, बल्कि यह सलफ़ियों के ज़हन की उपज है, जिसकी विरोधियों ने ख़ूब आलोचना की है। इस संदर्भ में वरिष्ठ सुन्नी विद्वान रमज़ानुल बूती कि किताब सलफ़ीवाद, बिदअत या मज़हब की ओर संकेत किया जा सकता है। वे कहते हैं कि सलफ़ीवाद तो ख़ुद बिदअत है और इस्लामी समाज के लिए घातक है, इसलिए कि इसने धार्मिक विषयों में बुद्धि और ज्ञान की भूमिका को नकार दिया है और इस्लाम के विस्तार में रुकावट बन गया है।

सलफ़ीवाद केवल पूर्वजों को आधार बनाने का प्रयास करता है। इस प्रकार से यह पूर्वजों के हर आचरण और व्यवहार को धार्मिक आदर्श का नाम देकर आज के लिए आदर्श बनाना चाहता है और सोचने और चिंतन करने पर पाबंदी लगाता है। लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि पूर्वजों के अनुसरण से सलफ़ियों का तात्पर्य क्या है? सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और धार्मिक मामलों में उनके प्रत्येक व्यवहार और बात का अनुसरण। इस संदर्भ में सुन्नी मुसलमानों के एक वरिष्ठ विद्वान अबू हामिद ग़ज़ाली का मानना है कि जो कुछ पैग़म्बरे इस्लाम से हम तक पहुंचा, हमने उसे सिर आंखों पर रखा, जो कुछ उनके साथियों से हम तक पहुंचा उसमें से कुछ हमने लिया और कुछ छोड़ दिया। लेकिन जो कुछ उनके बाद आने वालों से हम तक पहुंचा, तो जान लो कि वे भी इंसान थे हम भी इंसान हैं।

सुन्नी मुसलमानों और सलफ़ियों के बीच सबसे पहला अंतर, पूर्वजों और अनुसरण की सीमा के निर्धारण में है। सलफ़ियों ने सुन्नी इस्लाम की समस्त सीमाओं का उल्लंघन करते हुए नया दृष्टिकोण पेश किया। सलफ़ या पूर्वजों का शिया इस्लाम में भी महत्व है। लेकिन शिया प्रत्येक सलफ़ को आदर्श नहीं मानते। सुन्नी मुसलमानों के विपरीत, जो पैग़म्बरे इस्लाम (स) के समस्त साथियों को न्याय करने वाला और अच्छा मानते हैं और आंखें बंद करके बिना किसी तर्क के उनका अनुसरण करते हैं। शिया मुसलमान क़ुरान के आधार पर और पैग़म्बरे इस्लाम के साथियों के बीच होने वाली लड़ाईयों के आधार पर उनके बीच चयन करते है। इसी प्रकार क़ुरान की कई आयतों में कुछ साथियों की उनके व्यवहार के कारण निंदा की गई है। इसी कारण, पैग़म्बरे इस्लाम के साथियों के बाद आने वाले लोगों की बात तो दूर ख़ुद उनके समस्त साथियों को आदिल या न्याय प्रेमी नहीं ठहराया जा सकता। इस प्रकार, शिया मुसलमान केवल उन साथियों को जो पैग़म्बरे इस्लाम (स) के परिजनों में शामिल हैं और ख़ुद पैग़म्बरे इस्लाम और क़ुरान ने उनके अनुसरण का आदेश दिया है, अनुसरण के योग्य मानते हैं।  शीया मुस्लमान पैग़म्बरे इस्लाम के उन साथियों को भी विश्वसनीय और अनुकरणीय भानते हैं जिन्होंने किसी पर अत्याचार नहीं किया और कुरआन तथा पैग़म्बरे इस्लाम की शिक्षाओं पर अमल करते रहै।                

 

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