तकफ़ीरी आतंकवाद-41
हमने कहा था कि सलफ़ी बुद्धि को आधार मानने की बात को नकार कर पैग़म्बरे इस्लाम के सभी सहाबियों तथा उनके बाद तीन शताब्दियों तक सहाबियों से ज्ञान अर्जित करने वालों और फिर उन लोगों से ज्ञान अर्जित करने वालों को पापों से पवित्र और धार्मिक आदेशों के निर्धारण का आधार मानते हैं।
इसी तरह इतिहास और शिया व सुन्नी धर्मगुरुओं की दृष्टि से इस विचार की समीक्षा की गई और इस बात का भी जायज़ा लिया गया कि किस प्रकार उन तीन शताब्दियों को सबसे पवित्र शताब्दियां माना जा सकता है जबकि अहले हदीस जिन चीज़ों को बिदअत कहते हैं वे इस्लाम के आगमन के आरंभिक सौ बरसों या उससे कुछ अधिक समय में ही अस्तित्व में आई हैं? ख़वारिज, मुरजेआ, क़दरिया, मोतज़ेला और कई अन्य भ्रष्ट मत इसी काल में अस्तित्व में आए हैं। अहले सुन्नत और सलफ़ियों के बिदअती विचारों के बीच पहला अंतर, सलफ़ या पूर्वज के आशय और अनुसरण की सीमा के बारे में है। सलफ़ियों ने अहले सुन्नत की सभी सीमाओं को पार कर दिया और नए दृष्टिकोण पेश किए।
स्वर्गीय हकीम के कथनानुसार जब दूसरे ख़लीफ़ा के निधन के बाद शूरा या परामर्श के दिन हज़रत अली अलैहिस्सलाम से ख़िलाफ़त के लिए पहले दो ख़लीफ़ाओं के चरित्र के पालन की शर्त रखी गई तो उन्होंने उसे अस्वीकार कर दिया। तीसरे ख़लीफ़ा उसमान बिन अफ़्फ़ान ने यह शर्त स्वीकार कर ली लेकिन व्यवहारिक रूप से उन्होंने अनेक मामलों में पहले दो ख़लीफ़ाओं के चरित्र का विरोध किया। हज़रत अली ने अपनी ख़िलाफ़त के काल में तीसरे ख़लीफ़ा के व्यवहार से पूरी तरह अलग शैली अपनाई और जनकोष की राशि लोगों के बीच बांटने, लोगों को पदों पर नियुक्त करने और शासन की शैली को पूरी तरह से बदल दिया। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि पहले दो ख़लीफ़ा भी चरित्र की दृष्टि से एकसमान नहीं थे। हज़रत अबू बक्र, करों की राशि को लोगों के बीच बांटने में समानता का पालन करते थे जबकि दूसरे ख़लीफ़ा इसमें अंतर रखे जाने के पक्षधर थे। अबू बक्र एक साथ दी गई तीन तलाक़ों को एक ही मानते थे जबकि उमर ने उन्हें तीन तलाक़ों के रूप में स्वीकार किया। इस प्रकार के मतभेद इतने अधिक हैं कि उन्हें गिनन संभव नहीं है। इस्लाम के पांच मूल आधारों में से एक, एकेश्वरवाद है और इस्लाम ने इसे विशेष महत्व दिया है। वह लोक-परलोक में लोगों के सौभाग्य और दुर्भाग्य को एकेश्वरवाद पर आधारित मानता है। एकेश्वरवाद को केवल इस्लाम में ही नहीं बल्कि सभी आसमानी धर्मों में विशेष स्थान प्राप्त है। यही कारण है कि हालिया शताब्दियों में वहाबी धर्मगुरुओं विशेष कर वहाबियत का आधार रखने वाले मुहम्मद इब्ने अब्दुल वहाब ने, जिनके विचार का आधार इब्ने तैमिया के विचार हैं, एकेश्वरवाद की अपनी परिभाषा के सहारे बहुत से मुसलमानों को काफ़िर घोषित किया और बहुत से मुसलमानों का रक्तपात किया।
सलफ़ी तकफ़ीरी एकेश्वरवाद और अनेकेश्वरवाद के बारे में अलग अलग आस्थाएं रखते हैं जो इस्लामी शिक्षाओं से विरोधाभास रखती हैं। एकेश्वरवाद इस्लाम का मूल आधार है और इसका अर्थ ईश्वर को अनन्य मानना है। इस्लामी शिक्षाओं के अनुसार एकेश्वरवाद को इस्लाम में शामिल होने की सीमा बताया गया है और इस्लाम को एकेश्वरवाद का धर्म कहा जाता है। एकेश्वरवाद के मुक़ाबले में शिर्क या अनेकेश्वरवाद है जो अक्षम्य पाप है और जो भी शिर्क करता है वह इस्लाम की परिधि से निकल जाता है। एकेश्वरवाद को वैचारिक और व्यवहारिक जैसी दो शाखाओं में विभाजित किया जाता हैं वैचारिक एकेश्वरवाद, ईश्वर की पहचान से संबंधित है और इस चरण में मनुष्य, ईश्वर और उसकी विशेषताओं को पहचानता है जबकि व्यवहारिक एकेश्वरवाद का अर्थ यह है कि मनुष्य, कर्म के चरण में भी एकेश्वरवादी रहे और उसके कर्मों में एकेश्वरवाद का रंग दिखाई पड़े तथा वह अपने आपको कर्म के माध्यम से अनन्य ईश्वर से जोड़ दे।
तकफ़ीरी सलफ़ी इब्ने तैमिया का अनुसरण करते हुए एकेश्वरवाद को तीन भागों में विभाजित करते हैं। ईश्वर के नामों व विशेषताओं में एकेश्वरवाद, रचयिता का एकेश्वरवाद और उपासना में एकेश्वरवाद। ईश्वर के नामों व विशेषताओं में एकेश्वरवाद, सलफ़ियों द्वारा ईश्वर के आकार में समाने के विचार का कारण बना है जो क़ुरआने मजीद की आयतों के विदित शब्दों को ही स्वीकार करने की उनकी आस्था के चलते है। उपासना में एकेश्वरवाद का अर्थ यह है कि उपासना केवल ईश्वर से विशेष है और उसके अतिरिक्त कोई भी उपासना योग्य नहीं है। तकफ़ीरी सलफ़ी, एकेश्वरवाद की केवल उपासना में एकेश्वरवाद के रूप में ही व्याख्या करते हैं मानो एकेश्वरवाद, उपासना का पर्याय है और इसी लिए वे बहुत से मुसलमानों को अनेकेश्वरवादी मानते हैं क्योंकि वे उपासना के अर्थ को अत्यंत व्यापक समझते हैं और नमाज़, रोज़े, ज़कात, हज के अतिरिक्त दूसरों से मदद मांगने, जानवर ज़िबह करने, मन्नत मांगने और दूसरों को माध्यम बनाने को उपासना में शामिल करते हैं और परिणाम स्वरूप इन्हें ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य के लिए अंजाम देने को शिर्क मानते हैं। तकफ़ीरी सलफ़ी मुहम्मद इब्ने अबदुल वहाब के विचारों के आधार पर मुसलमानों की ओर से इस प्रकार के अनेकेश्वरवाद को अनेकेश्वरवादियों से भी अधिक तीव्र बताते हैं और इसी कारण इस्लाम से पहले के अनेकेश्वरवादियों की तरह उनकी जान-माल और इज़्ज़त-आबरू को लूटना वैध समझते हैं।
तकफ़ीरी आतंकी गुट दाइश भी, जो वैचारिक दृष्टि से वहाबियत की सबसे अहम शाखा समझा जाता है, इन्हीं वैचारिक आधारों के अनुसार एकेश्वरवाद और अनेकेश्वरवाद की व्याख्या करता है। यह गुट ईश्वर के प्रिय बंदों की क़ब्रों की ज़ियारत और उनसे शिफ़ाअत या ईश्वर और व्यक्ति के बीच सिफ़ारिश का माध्यम बनने की प्रार्थना को ईश्वर के अतिरिक्त दूसरों की उपासना और अनेकेश्वरवाद मानता है। यह गुट उपासना में एकेश्वरवाद के बहाने किसी भी बात को पावन नहीं मानता, यहां तक कि इस गुट ने काबे को अनेकेश्वरवाद का प्रतीक बता कर घोषणा की है कि काबे को ध्वस्त कर दिया जाना चाहिए ताकि मुसलमान उसकी उपासना न करें। दाइश के स्वयंभू ख़लीफ़ा अबू बक्र अलबग़दादी ने कहा है कि इस्लामी आस्थाएं और सिद्धांत हमें पत्थरों की उपासना की अनुमति नहीं देते।
इस गुट ने कुफ़्र व शिर्क की अपनी परिभाषा के आधार पर इराक़ में एक फ़त्वा जारी करके लोगों के बीच जारी बीस शब्दों को कुफ़्र व अनेकेश्वरवाद का प्रतीक बताया है और इन शब्दों को ज़बान से अदा करने वालों को काफ़िर को दी जाने वाली सज़ा का पात्र बताया है। दाइश ने सीरिया के दैरुज़्ज़ूर शहर में लोगों के बीच इस आदेश की प्रतियां बांट कर घोषणा की है कि स्वागतम, पैग़म्बर के जीवन की सौगंध और पैग़म्बरों के क़ब्रों पर ईश्वर की रहमत हो जैसे शब्द कहने वाले को काफ़िर माना जाएगा। दाइश के इस फ़त्वे में इन बीस शब्दों को बड़ा कुफ़्र, बड़ा शिर्क, छोटा शिर्क और पाप जैसी श्रेणियों में बांटा गया है और इनमें से हर शब्द के लिए उसकी श्रेणी के अनुसार दंड निर्धारित किया गया है। दाइश के मुफ़्तियों के अनुसार केवल वहाबी लोग काफ़िर नहीं हैं और वे पूरी तरह सुरक्षित हैं और शिया व सुन्नी लोग काफ़िर हैं सिवाय इसके कि वे तौबा करें और दाइश के ख़लीफ़ा के आज्ञापालन का वचन दें।
तकफ़ीरियों द्वारा कुफ़्र व उसके प्रतीकों के अर्थ के बारे में कहना चाहिए कि क़ुरआने मजीद में कुफ़्र दो अर्थों में प्रयोग हुआ है। पहला, इस्लामी समुदाय से निकल जाना। सूरए बक़रा की 34वीं आयत में कहा गया है। और जब हमने फ़रिश्तों से कहा कि सजदा करो तो सबने सजदा किया सिवाय इब्लीस के कि उसने इन्कार व घमंड किया और वह काफ़िरों में से था। इसमें इब्लीस या शैतान के काफ़िर होने की बात कही गई है। सूरए माएदा की 17वीं और 73वीं आयत में तीन ईश्वरों की आस्था रखने वाले ईसाइयों के काफ़िर होने की बात कही गई है। दूसरा, इस्लामी समुदाय से न निकलना। अहले सुन्नत के अधिकतर धर्मगुरुओं का कहना है कि सूरए नम्ल की 40वीं आयत और कुछ अन्य आयतों में कुफ़्र का अर्थ कृतघ्नता या अकृतज्ञता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि क़ुरआने मजीद की आयतों में कुफ़्र का अर्थ अन्य आयतों से समझा जाता है और केवल कुफ़्र शब्द से किसी को काफ़िर समझ लेना, ईश्वरीय कथन के विपरीत है। इसी के साथ पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम और उनके परिजनों के कथनों में दूसरों को काफ़िर क़रार देने की निंदा की गई है। सूरए निसा की आयत नंबर 94 में कहा गया है। जो तुम्हारे सामने इस्लाम प्रकट करे उसके बारे में यह न कहो कि वह मुसलमान नहीं है। अब्दुल्लाह इब्ने उमर का कहना है कि मैंने पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम को कहते सुना कि इस्लाम के पांच आधार हैं। ला इलाहा इल्लल्लाह व मुहम्मदुर्रसूलुल्लह कहना, नमाज़ पढ़ना, ज़कात देना, हज करना और रमज़ान के रोज़े रखना।