तकफ़ीरी आतंकवाद -48
तकफ़ीरी आतंकवादी गुट का मानना है कि शिया मुसलमान, अधर्मी हैं।
इसके लिए वह शियों पर बिदअत या धर्म में किसी नई चीज़ के शामिल करने का आरोप लगाते हैं। तकफ़ीरी विचारधारा इस शब्द की व्याख्या इस्लामी शिक्षाओं के बिल्कुल विपरीत करती है। वह तर्क देते हैं कि जो चीज़ पैग़म्बरे इस्लाम (स) के काल में या उनके बाद इस्लाम की आरम्भिक तीन शताब्दियों में मौजूद नहीं थी, उसे इस्लाम में शामिल करना बिदअत है। दूसरे शब्दों में जो चीज़ भी क़ुरान या सुन्नत में मौजूद नहीं थी, उसका कोई धार्मिक आधार नहीं है।
वहाबियत या तकफ़ीरी विचारधारा के निकट बिदअत के दायरे के विस्तार का एक कारण, इस्लाम के एक मुख्य सिद्धांत मुबाह अर्थात किसी चीज़ को जायज़ या वैध ठहराने का विरोध करना है। इस्लाम के मुताबिक़, जब तक किसी चीज़ से इस्लाम की ओर से रोका न जाए और उसे हराम क़रार नहीं दिया जाए, वह चीज़ जायज़ और मुबाह है। सूरए अनाम की 119वीं आयत के मुताबिक़, उन चीज़ों की व्याख्या की ज़रूरत है, जो वर्जित या हराम होती हैं, मुबाह या जायज़ चीज़ों के उल्लेख की ज़रूरत ही नहीं है। इस्लाम में जायज़ या मुबाह का दायरा काफ़ी विस्तृत है और हर नई चीज़ को बिदअत समझना भी बिदअत है। वहाबियत और उससे जन्म लेने वाले तकफ़ीरियों की बिदअतों में से एक ईश्वरीय दूतों और इमामों के लिए शोक सभाओं का आयोजन करना और अज़ादारी करना है। उनका मानना है कि ईश्वरीय दूतों और उनके उत्तराधिकारियों के लिए शोक सभाओं का आयोजन और इसी प्रकार उन्हें श्रद्धांजलि देना जायज़ नहीं है, बल्कि यह धर्म में एक नई और ग़लत शुरूआत है।
तकफ़ीरियों के निकट पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स) के जन्म दिवस पर जश्न मनाना हराम और बिदअत है। तकफ़ीरी आतंकवादी गुट दाइश ने इराक़ के शहर मूसिल में मीलादे पैग़म्बर पर जश्न मनाने को हराम और बिदअत घोषित किया और मस्जिदों में एलान कर दिया कि पैग़म्बरे इस्लाम के शुभ जन्म दिवस पर कोई जश्न न मनाए और इस आदेश का पालन न करने वाले को सज़ा दी जाएगी। वास्तव में यहां यह कहा जा सकता है कि तकफ़ीरियों की यह धारणा ही ग़लत है और बिदअत है। क़ुराने मजीद ने ईश्वरीय दूतों और महान व्यक्तियों को श्रद्धांजलि देने या उनके लिए अज़ादारी करने से मना नहीं किया है। इस ईश्वरीय किताब के सूरए यूसुफ़ की 84वीं और 85वीं आयतों में उल्लेख है कि ईश्वरीय दूत हज़रत याक़ूब अपने बेटे हज़रत यूसुफ़ की जुदाई में विलाप करते हैं। और कहा, दुख है यूसुफ़ के लिए, और उनकी दोनों आंखें ग़म और रोने से सफ़ैद हो गईं, हालांकि वह अपना ग़म पी रहे थे, कहा ईश्वर की सौगंध तुम हमेशा यूसुफ़ को याद करते हो, कहीं बीमार नहीं पड़ जाओ या तुम्हारी मौत न हो जाए। उन्होंने कहा, मैं अपने दुख और दर्द के बारे में केवल ईश्वर से शिकायत करता हूं और ईश्वर के बारे में तुमसे अधिक जानता हूं।
हां यूसुफ़ की जुदाई में याक़ूब इतना रोए कि उनकी आंखों से दिखना बंद हो गया। क़ुरान ईश्वरीय दूत हज़रत याक़ूब की इस घटना का उल्लेख करता है। क़ुरान उनके इस कर्म को बिदअत क़रार नहीं देता है और न ही उन्हें ऐसा करने से रोकता है। इसका अर्थ यह है कि क़ुरान के निकट अपने किसी प्रिय या साथी की जुदाई या उसके निधन पर रोना जायज़ है। अपन किसी परिजन या साथी की मौत पर रोना और दुखी होना, इंसान की स्वाभाविक प्रक्रिया है। इस्लाम इंसान के स्वभाव या प्रकृति पर आधारित है, इसलिए वह इस प्रकार की किसी घटना पर प्राकृतिक एवं स्वभाविक प्रक्रिया से इंसान को रोकता नहीं है। पैग़म्बरे इस्लाम (स) भी अपने परिजनों और साथियों की मौत पर रोते थे।
तकफ़ीरी वहाबी ऐसी स्थिति में पैग़म्बरे इस्लाम और महान धार्मिक हस्तियों को श्रद्धांजलि देने को बिदअत बताते हैं, जब क़ुरान पैग़म्बरे इस्लाम (स) की प्रशंसा करते हुए कहता है कि हमने तुम्हारे ज़िक्र को ऊंचा किया। सूरए शूरा की 23वीं आयत में क़ुरान पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों से मोहब्बत का आहवान करता है: कह दो कि मैं तुमसे अपने निकट संबंधियों से मोहब्बत के अलावा कोई नमाना नहीं चाहता हूं। क़ुरान ने स्पष्ट रूप से हमने कहा है कि पैग़म्बर के परिजनों से मोहब्बत करें। मोहब्बत ज़ाहिर करने का एक तरीक़ा यह है कि उनके जन्म दिवस पर और परलोक सिधारने पर सभाओं का आयोजन करें और उनकी शिक्षाओं और प्रयासों का गुणगान करें। वास्तव में इस प्रकार की सभाओं का आयोजन पैग़म्बरे इस्लाम और उनके परिजनों से मोहब्बत के इज़हार के लिए ही किया जाता है। इन सभाओं में लोग इस्लाम की वास्तविकता से और क़ुरान व ईश्वरीय दूतों व प्रतिनिधियों की शिक्षाओं से अवगत होते हैं। क्या यह काम बिदअत और ग़लत है।
सूरए हज की 32वीं आयत में उल्लेख है, और जो कोई भी ईश्वरीय संस्कारों का सम्मान करता है, वह दिल की पवित्रता से करता है। पैग़म्बरे इस्लाम (स) का सम्मान, ईश्वरीय संस्कारों में से ही है, इसलिए कि इससे लोगों का ईमान मज़बूत होता है। पैग़म्बरे इस्लाम के शुभ जन्म दिवस पर जश्न मनाना इसका एक रूप है। पैग़म्बरे इस्लाम ने ख़ुद भी इसकी पुष्टि की है। इस संदर्भ में सुन्नी मुसलमानों की प्रसिद्ध किताब सही मुस्लिम में उल्लेख है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) से सोमवार के दिन रोज़ा क़बूल होने के बारे में पूछा गया, आपने फ़रमाया, इसका यह कारण है कि इस दिन मेरा जन्म हुआ है और इसी दिन मुझ पर क़ुरान नाज़िल हुआ।
मिस्र के सलफ़ी नेता शेख़ सईद अब्दुल अज़ीम ने गत वर्ष पैग़म्बरे इस्लाम (स) के शुभ जन्म दिवस पर जश्न मनाने को हराम क़रार दिया और दावा किया कि ऐसा करना बिदअत है। अब्दुल अज़ीम का दावा था कि पैग़म्बरे इस्लाम के शुभ जन्म दिवस पर जश्न मनाना बिदअत है, पैग़म्बर के साथियों के काल में शताब्दियों तक ऐसा नहीं हुआ, अगर ऐसा होता भी तो वह भी बिदअत होता। तकफ़ीरियों के असामान्य फ़तवों की जांच करने वाले मिस्र के एक केन्द्र ने इस फ़तवे के जवाब में घोषणा करते हुए कहा, चौयी हिजरी से आज तक समस्त मुस्लिम विद्वान मीलादे पैग़म्बरे इस्लाम पर जश्न मनाने को वैध मानते रहे हैं, यहां तक कि उनकी एक बड़ी संख्या इसे मुस्तहब या धार्मिक रूप से अच्छा कार्य मानते हैं और उन्होंने इसके लिए तर्क भी पेश किए हैं।
यह केन्द्र आगे कहता है, क़ुरान ने पैग़म्बरे इस्लाम को पूरे संसार के लिए रहमत बताया है और यह रहमत किसी एक विशेष कार्य से सीमित नहीं है, बल्कि इसमें शिक्षा दीक्षा और लोगों का सीधे मार्ग की ओर मार्गदर्शन शामिल है और यह किसी एक ज़माने से सीमित नहीं है, बल्कि यह हर ज़माने में जारी है। वहाबियों के अलावा, इस्लाम के समस्त मत मीलाद पर जश्न मनाने को बिदअत नहीं मानते हैं, बल्कि उसके आयोज पर विश्वास रखते हैं। यही कारण है कि मीलादे पैग़म्बर पर सऊदी अरब के अलावा समस्त इस्लामी देशों में आधिकारिक छुट्टी होती है।
पैग़म्बरे इस्लाम (स) मुसलमानों के बीच एकता का ध्रुव व आधार हैं। यही कारण है कि पैग़म्बरे इस्लाम का नाम और उनकी याद और मुसलमानों के दिलों में उनकी मोहब्बत और सम्मान, उनके बीच एकता का ध्रुव है। यही कारण है कि हालिया वर्षों में इस्लाम के दुश्मनों ने बार बार हज़रत का अपमान करने का प्रयास किया है। यूरोप में सलमान रुश्दी की अपमानजनक किताब, कारटून और फ़िल्में बनाकर इस्लाम के दुश्मनों ने पैग़म्बरे इस्लाम (स) की महान हस्ती के अपमान का जघन्य अपराध अंजाम दिया है। उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम (स) के न्याय प्रेमी व्यक्तित्व को निशाना बनाने की कोशिश की है। वास्तव में मीलादे पैग़म्बर पर जश्न मनाने को बिदअत बताना इस्लाम विरोधियों की हां में हां मिलाना है।