तकफ़ीरी आतंकवाद-49
जो चीज़ धर्म में नहीं है उसे धर्म का हिस्सा मान लेने को बिदअत कहते हैं।
वहाबी, शीया मुसलमानों पर बिदअत फैलाने का आरोप लगाते हैं और कहते हैं कि शीया मुसलमान नहीं हैं जबकि वहाबियों ने इस्लाम में जिन चीज़ों को बिदअत करार दिया है उसके लिए वे न तो कोई इतिहासिक साक्ष्य पेश करते हैं और न ही बौद्धिक व तार्किक प्रमाण। आतंकवादी और तकफीरी गुट जिन चीज़ों को बिदअत कहते हैं उनमें से एक पैग़म्बरे इस्लाम के सम्मान में सभाओं का आयोजन और जश्न मनाना है और इसके बारे में पिछले कार्यक्रम में चर्चा की गयी। तकफीरी वहाबी ऐसी स्थिति में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम और महान धार्मिक हस्तियों के सम्मान या शोक में आयोजित की जाने वाली सभाओं को अवैध समझते हैं जब पवित्र कुरआन में महान ईश्वर पैग़म्बरे इस्लाम की प्रशंसा करते हुए कहता है “हमने तुम्हारा नाम ऊंचा किया।“
मिस्र में तकफीरी वहाबियों के असामान्य फतवों की जांच करने वाले एक फत्वा केन्द्र उनके इस फत्वे की प्रतिक्रिया में घोषणा की है कि कुरआन करीम ने पैग़म्बरे इस्लाम के अस्तित्व को विश्व वासियों के लिए दया बताता है और यह दया किसी एक कार्य से विशेष नहीं है बल्कि इसमें शिक्षा, प्रशिक्षा और सीधे रास्ते की ओर इंसानों का मार्गदर्शन सब शामिल है और इसी तरह यह दया इतिहास के किसी दौर से विशेष नहीं है बल्कि वह समस्त काल में रही और आज भी है।“
पैग़म्बरे इस्लाम के जन्म दिवस के शुभ अवसर पर सऊदी अरब के अलावा समस्त इस्लामी देशों में छुट्टी होती है।
तकफीरी वहाबियों की एक ग़लत विचारधारा यह है कि वे शेफाअत अर्थात सिफारिश को शिर्क यानी अनेकेश्वरवाद मानते हैं। वहाबियों का मानना है कि इंसान का किसी प्रकार से पारलौकिक शक्ति से संबंध सही नहीं है और पारलौकिक शक्ति से संबंध रखने का दावा कुफ्र का कारण है क्योंकि पारलौक ईश्वर के अधिकार में है। वहाबी इस ग़लत आस्था पर बल देकर कहते हैं कि हम यह कहें कि शेफाअत करने वाला पारलौकिक शक्ति से संबंध रखता है और वह कार्यों में दूसरे की शफाअत कर सकता है तो यह ईश्वरीय शक्ति में भागीदारी है और इस प्रकार की आस्था रखने वाला मुश्रिक अर्थात अनेकेश्वरवादी है। तकफीरी आतंकवादी गुट पवित्र कुरआन और इस्लाम के किसी प्रकार के विश्वस्त प्रमाण के बिना इसी भ्रष्ट आस्था के आधार पर क़ब्रों के दर्शन, महान हस्तियों की समाधियों और उन पर लगी ज़रीह को चूमने और इसी प्रकार महान हस्तियों को माध्यम बनाकर ईश्वर से दुआ व सहायता मांगने से मना करते और उसे कुफ्र समझते हैं जबकि समस्त इस्लामी संप्रदाय सिफारिश के वैध होने और इस बात पर सहमत हैं कि प्रलय के दिन पैग़म्बरे इस्लाम सिफारिश करने वाले वालों में से हैं और केवल सिफारिश के कुछ आशिंक आयामों के बारे में ही मुसलमानों में मतभेद है।
तकफीरी वहाबियों का कहना है कि किसी का पारलौकिक शक्ति रखना एकेश्वरवाद से विरोधाभास रखता है और वह कुफ्र का कारण बनता है। उनके इस भ्रष्ट विश्वास को पवित्र कुरआन की आयतों के माध्यम से रद्द कर दिया गया है क्योंकि पवित्र कुरआन की विभिन्न आयतों में शफाअत और इंसानों विशेषकर पैग़म्बरों की पारलौकिक शक्ति से सम्पन्न होने की पुष्टि की गयी है। इस संबंध में पवित्र कुरआन में हज़रत यूसुफ की कहानी की ओर संकेत किया जा सकता है। सूरये यूसुफ में आया है कि जब हज़रत यूसुफ़ कुर्ता हज़रत याकूब के चेहरे पर मल दी जाती है तो वह देखने लगते हैं जबकि उनका रुई का थी। यह घटना इस बात की सूचक है कि हज़रत यूसुफ़ उस पारलौकिक शक्ति से सम्पन्न थे जो उन्हें दी गयी थी और जिस चीज़ से हज़रत याकूब की आंख सही हो गयी और वह देखने लगे वह स्वयं हज़रत यूसुफ का पवित्र अस्तित्व है न कि रुई की बनी उनकी कमीस।
तकफीरी वहाबी पवित्र कुरआन की कुछ आयतों को पेश करते और कहते हैं कि शेफाअत व सिफारिश ईश्वर से विशेष है। तकफीरी वहाबी पवित्र कुरआन के सूरये ज़ोमर की 44वीं आयत को प्रमाण के रूप में पेश करते हैं जिसमें कहा गया है कि हे पैग़म्बर कह दीजिये कि समस्त शफाअत ईश्वर के लिए है और ज़मीन और आसमान पर शासन उसी से विशेष है और इसके बाद तुम सब उसी की ओर पलटाये जाओगे।“
इस आयत के जवाब में कहना चाहिये कि शफाअत इंसान अपने से बड़े से करता है क्या इस ब्रह्मांड में कोई महान ईश्वर से भी बड़ा है कि ईश्वर उससे सिफारिश करे? जबकि वह समस्त वस्तुओं व प्राणियों से श्रेष्ठ है और उसी ने सबकी रचना की है और किसी ने भी उसकी रचना नहीं की है। वह किसी से भी सिफारिश नहीं करता। निश्चित रूप से इस प्रकार की बात की कल्पना भी महान व सर्वसमर्थ ईश्वर के बारे में नहीं की जा सकती। क्योंकि वह ज़मीन और आसमान के साथ- साथ ब्रह्मांड के कण- कण का शासक और रचयिता है। शेफाअत के इस अर्थ की कल्पना उसके बारे में नहीं की जा सकती। हां वह जिसे शफाअत करने का अधिकार व अनुमति दे वह शफाअत कर सकता है परंतु हर शेफाअत का सिल सिला उसी की ओर लौटता है और उसकी अनुमति के बिना शेफाअत संभव नहीं है। इसके अलावा पवित्र कुरआन ने शिफाअत को महान ईश्वर से विशेष नहीं किया है। सूरये मरियम की 87वीं आयत में आया है “कि कोई सिफारिश नहीं करेगा सिवाये उसके जिसने रहमान अर्थात ईश्वर के यहां से अनुमोदन प्राप्त कर लिया हो।“ इसी प्रकार पवित्र कुरआन के सूरये बकरा की 255वीं आयत में भी इंसान द्वारा की जाने वाली शिफाअत की पुष्टि की गयी है कि कौन है जो ईश्वर की अनुमति के बिना शिफाअत करे।“
तो नतीजा यह निकला कि महान ईश्वर की अनुमति से कुछ लोग दूसरों की शिफाअत कर सकते हैं। तकफीरी वहाबी सूरये ताहा की 109वीं आयत का हवाला देते हुए शिफाअत को प्रलय और महान ईश्वर से विशेष मानते हैं। यह उस स्थिति में है जब पवित्र कुरआन की आयतें इस बात की सूचक हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम इस दुनिया में भी लोगों की शिफाअत करते थे। सूरये निसा की 64वीं आयत में महान ईश्वर कहता है” मैंने किसी पैग़म्बर को नहीं भेजा किन्तु यह कि ईश्वर की अनुमति से उसकी आज्ञा का पालन किया जाये और यदि वे उस समय, जब इन्होंने स्वयं पर अत्याचार किया था, तुम्हारे पास आ जाते और ईश्वर से क्षमा की प्रार्थना करते तो निश्चय ही वे ईश्वर को अत्यंत क्षमाशील व दयावान पाते।“
तकफीरी वहाबी पैग़म्बर और ईश्वरीय दूतों व उसके भले बंदों की शिफाअत का इंकार करते हैं और मरे हुए इंसान से शिफाअत कराने को अर्थहीन कार्य समझते हैं। इस संबंध में वे सूरये नम्ल की आयत नंबर 80 को भी प्रमाण के रूप में पेश करते हैं कि” निश्चित रूप से आप अपनी बात मुर्दों को नहीं सुना सकते और न ही अपनी पुकार को बहरों को सुना सकते हैं विशेषकर उस समय जब वे पीठ फेर कर भाग रहे हों।“
पवित्र कुरआन के शब्दों में शहीद जीवित हैं और ईश्वर के पास से उन्हें उनकी आजीविका मिलती है। निश्चित रूप से पैग़म्बरे इस्लाम का स्थान महान ईश्वर के निकट बहुत ऊंचा है चाहे इस दुनिया में हो या चाहे इस दुनिया और स्वर्गवास के बाद। वह हमारी दुआओं और सिफारिश को सुनते हैं। जिस तरह से भले लोगों की आत्मायें मरने के बाद और प्रलय के समय से पहले वाली हालत में हमारी बातों और मांगों को सुनती हैं।
ध्यान योग्य बिन्दु यह है कि समस्त मुसलमान प्रतिदिन पांचों समय पढ़ी जाने वाली नमाज़ों में पैग़म्बरे इस्लाम पर सलाम भेजते हैं। अगर पैग़म्बरे इस्लाम ज़िन्दा लोगों के सलाम नहीं सुनते होते तो उन पर सलाम भेजना अर्थहीन कार्य था जबकि समस्त मुसलमान उन पर सलाम भेजते हैं तो हमारी दुआ और सलाम सब पैग़म्बरे इस्लाम तक पहुंचता है और वह हमारे बारे में शिफाअत भी कर सकते हैं।
सुन्नी मुसलमानों की प्रसिद्ध पुस्तक मुस्नदे अहमद बिन हंबल और सही बोखारी में पैग़म्बरे इस्लाम के हवाले से आया है और उसमें पैग़म्बरे इस्लाम के शफीअ अर्थात शफाअत कराने वाला होने की ओर संकेत किया गया है। उस हदीस अर्थात कथन में आया है जिसमें पैग़म्बरे इस्लाम फरमाते हैं” मुझे पांच चीज़ें प्रदान की गयी हैं जो मुझसे पहले किसी को नहीं दी गयीं। ज़मीन मेरे लिए सिजदागाह और पवित्र करार दी गयी। ग़नीमत अर्थात रणक्षेत्र में दुश्मनों से प्राप्त होने वाले माल को मेरे लिए वैध करार दिया गया। दुश्मनों के दिलों में रोब डालकर मेरी सहायता की गयी, कुरआन मुझे दिया गया और शफाअत मुझे दी गयी।“ इसी प्रकार अहमद बिन हंबल पैग़म्बरे इस्लाम के हवाले से लिखते हैं” पैग़म्बर उन लोगों की शिफाअत करेंगे जिन्होंने निष्ठा के साथ एकेश्वरवाद की गवाही दी है और उन्हें वह नरक से निकालेंगे।“ प्रसिद्ध सुन्नी धर्मगुरू अली बिन अहमद समहूदी की किताब “वफाउल वफा” में आया है कि ईश्वर के निकट पैग़म्बरे इस्लाम से शिफाअत कराना और मदद चाहना उनके जन्म से पहले भी वैध था और उनके पैदा होने के बाद, उनके निधन के बाद, इसी प्रकार बरज़ख अर्थात मरने के बाद और प्रलय से पहले के समय में और प्रलय में भी सही हैं।“
इसके बाद उन्होंने उमर बिन खत्ताब के हवाले से एक रवायत बयान की है जिसमें हज़रत आदम ने पैगम्बरे इस्लाम को माध्यम बनाया है। उस रवायत में है कि पैग़म्बरे इस्लाम के जन्म के बारे में हज़रत आदम को जो जानकारी थी उसके आधार पर उन्होंने ईश्वर से इस प्रकार विनती की” पालनहार मोहम्मद के सदक़े में तुझसे प्रार्थना करता हूं कि मुझे क्षमा कर दे।“
शिफाअत के लिए कुछ पूर्व शर्तें भी हैं। वह इंसान पैग़म्बरे इस्लाम और ईश्वरीय दूतों की शिफाअत से लाभांन्वित हो सकता है जो ईमानदार हो और भले कार्य किये हो और उसके अंदर शिफाअत से लाभान्वित होने की आवश्यक शर्त मौजूद हो। अतः जो व्यक्ति ईश्वर और धार्मिक शिक्षाओं पर आस्था न रखता हो और विभिन्न प्रकार की बुराइयां करे तो उसकी शिफाअत नहीं होगी। पवित्र कुरआन ने शिफाअत के बारे में अपनी आयतों में किसी बिन्दु को अस्पष्ट नहीं छोड़ा है परंतु तकफीरी वहाबी गुट व धड़े कमज़ोर प्रमाणों को आधार बनाकर शिफाअत का इंकार करते हैं।