Apr २४, २०१८ १५:२६ Asia/Kolkata

सऊदी अरब में जब से सलमान बिन अब्दुल अज़ीज़ सत्ता में पहुंचे हैं तब से इस देश ने इराक़ से अपने संबंधों को पुनः बेहतर बनाने की कोशिश शुरू कर दी है।

इसी परिप्रेक्ष्य में सऊदी अरब के युवराज मुहम्मद बिन सलमान मार्च या अप्रैल 2018 में इराक़ की यात्रा करने वाले थे लेकिन इराक़ी जनता के कड़े विरोध के कारण उनका यह दौरा रद्द हो गया।

इराक़ व सऊदी अरब दो बड़े अरब देश हैं। इराक़ का क्षेत्रफल चार लाख सैंतीस हज़ार वर्ग किलोमीटर से अधिक है जबकि उसकी जनसंख्या तीन करोड़ नब्बे लाख से ज़्यादा है और यह मध्यपूर्व के बड़े अरब देशों में से एक माना जाता है। इराक़ में 75 से 80 प्रतिशत तक अरब, 15 से 20 प्रतिशत तक कुर्द और लगभग पांच प्रतिशत तुर्कमन, आशूरी और अन्य जाति के लोग रहते हैं। अगर धार्मिक दृष्टि से देखा जाए तो इस देश की 95 से 98 प्रतिशत जनसंख्या मुसलमानों पर आधारित है जिनमें लगभग 65 प्रतिशत शिया, 32 प्रतिशत सुन्नी, एक प्रतिशत ईसाई और एक से चार प्रतिशत अन्य धर्मों के मानने वाले रहते हैं। अतीत में इस देश का नाम मेसोपोटामिया था और प्रथम विश्व युद्ध और उसमानी साम्राज्य के पतन के बाद ब्रिटेन ने इसका नाम इराक़ रखा। इराक़ तीन अक्तूबर वर्ष 1932 को एक स्वाधीन देश बना और दिसम्बर 1945 में उसने संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता ग्रहण की।

मेथ्यू कलवर और ब्लेयर जोन्ज़ का मानना है कि इराक़ की अहमियत की एक वजह इस देश के तेल भंडार हैं। इराक़ ओपेक का सदस्य है और पास 153 अरब बेरल तेल के भंडार के साथ वह संसार में तेल के भंडार रखने वाला पांचवां सबसे बड़ा देश है। इराक़ हर दिन औसतन 45 लाख बैरल तेल पैदा करके ओपेक का दूसरा और संसार का छठा सबसे अधिक तेल पैदा करने वाला देश है। अपनी स्वाधीनता से लेकर वर्ष 2003 में अमरीका के साथ युद्ध तक इराक़ के केवल सात शासक रहे हैं। फ़ैसल प्रथम व फ़ैसल द्वितीय इस देश के तानाशाह थे जबकि अब्दुल करीम क़ासिम, अब्दुस्सलाम आरिफ़, अब्दुर्रहमान आरिफ़, अहमद हसन अलबक्र और सद्दाम हुसैन ने राष्ट्रपति के नाम पर देश में तानाशाही शासन चलाया। बास पार्टी ने 1968 में इराक़ की सत्ता संभाली और सद्दाम हुसैन ने जुलाई 1979 से लेकर 2003 तक इराक़ के राष्ट्रपति के रूप में इस देश पर एकछत्र राज किया।

 

सऊदी अरब का क्षेत्रफल लगभग 21 लाख 50 हज़ार वर्ग किलो मीटर और जनसंख्या तीन करोड़ 25 लाख से अधिक है जिसमें से दो करोड़ चार लाख अर्थात 62 दशमलव 6 प्रतिशत सऊदी अरब के मूल नागरिक हैं। इस जनसंख्या में 90 प्रतिशत अरब और दस प्रतिशत अफ़्रीक़ी व एशियाई हैं। धार्मिक दृष्टि से देखा जाए तो इस देश की शत प्रतिशत आबादी मुसलमानों पर आधारित है जिनमें 85 से 90 प्रतिशत सुन्नी और 10 से 15 प्रतिशत शिया हैं। नवीन सऊदी अरब भी इराक़ की तरह 1930 के दशक में सऊद परिवार के हाथों गठित हुआ और इस देश में धार्मिक दृष्टि से वहाबियत की शिक्षाएं और आस्थाएं प्रचलित हैं।

यह देश वर्ष 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बना। सऊदी अरब के प्रथम नरेश अब्दुल अज़ीज़ बिन सऊद का निधन 1953 में हुआ और उसके बाद से अब तक उनके छः बेटों ने इस देश पर राज किया है। शाह सऊद, शाह फ़ैसल, शाह ख़ालिद, शाह फ़हद, शाह अब्दुल्लाह और वर्तमान नरेश शाह सलमान इस देश के शासक हैं। एक रोचक समानता यह है कि इराक़ और सऊदी अरब दोनों ही देशों में 1930 के दशक से अब तक सात शासक रहे हैं। सऊदी अरब के महत्व का एक मुख्य कारण यह है कि इस देश के पास पूरे संसार के तेल स्रोतों का लगभग 22 प्रतिशत भाग है और यह संसार में सबसे अधिक तेल निर्यात करने वाला देश है। तेल निर्यात करने वाले देशों की संस्था ओपेक के संस्थापकों में से एक सऊदी अरब है।

 

इराक़ और सऊदी अरब के संबंध 1930 के दशक से ही जटिल थे। दोनों देशों के संबंध भौगोलिक निकटता, वैचारिक तनाव और धार्मिक मतभेदों से प्रभावित रहे हैं सऊदी अरब की सबसे अधिक ज़मीनी सीमा इराक़ से ही मिलती है। 1930 के दशक में दोनों देशों के बीच सीमावर्ती विवाद काफ़ी गहरा था और सऊदी अरब की सरकार इराक़ के कुछ भागों को हड़पने के चक्कर में थी लेकिन ब्रिटेन की ओर से इराक़ के समर्थन के चलते सऊदी अरब की यह इच्छा पूरी न हो सकी। 90 के दशक में इराक़ द्वारा कुवैत पर हमला करके उस पर क़ब्ज़ा कर लेने के कारण सऊदी अरब इराक़ की बास पार्टी की सरकार के भूमि लोभ की ओर से चिंतित हो गया।

 

सद्दाम के पतन के बाद इराक़ से सऊदी अरब की काफ़ी लम्बी संयुक्त सीमा के कारण इस देश के बहुत से नागरिक इराक़ में प्रविष्ट हो गए। जोज़फ़ मैकमिलन ने अमरीका के पीस सेंटर के लिए लिखे गए एक लेख में कहा है कि यद्यपि इराक़ में विदेशी लड़ाकों का प्रतिशत कम ही है लेकिन इराक़ में आत्मघाती बम धमाके करने वाले मुख्य रूप से विदेशी हैं और टीकाकारों के अनुमान के अनुसार उनमें से 75 प्रतिशत सऊदी नागरिक हैं।

अरब जगत की दो बड़ी शक्तियों के रूप में इराक़ और सऊदी अरब के संबंधों में वैचारिक तनावों की अहम भूमिका रही है। पिछले दशकों में अरब जगत के नेतृत्व को लेकर इन दोनों देशों में काफ़ी प्रतिस्पर्धा रही है। जोज़फ़ मैकमिलन ने इस संबंध में लिखा है कि इराक़ और सऊदी अरब शीत युद्ध के काल में विरोधी ख़ैमों में थे। दोनों देशों के बीच वैचारिक तनाव में इराक़ में बास पार्टी के सत्ता में आने के बाद काफ़ी वृद्धि हो गई। सऊदी अरब पश्चिमी ब्लॉक में और इराक़ पूर्वी ब्लॉक में था। इराक़, पुनर्विचार की नीति पर अमल कर रहा था जबकि सऊदी अरब रुढ़िवाद और यथा स्थिति को बाक़ी रखने का इच्छुक था। इराक़ विदेश नीति में कट्टर था और इसी लिए इराक़ की बास पार्टी की सरकार, दक्षिणी यमन में मार्क्सवादी सरकार, सऊदी अरब में वामपंथी विरोधियों और ओमान तथा फ़ार्स की खाड़ी के कुछ देशों में स्वतंत्रता आंदोलनों का समर्थन करती थी। इसी लिए वर्ष 1981 में ईरान व इराक़ का मुक़ाबला करने के लिए फ़ार्स की खाड़ी सहयोग परिषद का गठन किया गया जिसका नेतृत्व एक तरह से सऊदी अरब के हाथ में है।

 

ईरान के ख़िलाफ़ इराक़ का युद्ध बग़दाद और रियाज़ के संबंधों में मज़बूती का कारण बना। जोज़फ़ मैकमिलन के अनुसार अरब देशों ने ईरान के ख़िलाफ़ इराक़ के युद्ध में इस देश को 40 अरब डॉलर के हथियार दिए जिनमें से 28 अरब केवल सऊदी अरब ने ही दिए। इसके बावजूद कुवैत पर इराक़ का हमला, सऊदी अरब और इराक़ के बीच दुश्मनी और कूटनैति संबंध समाप्त होने का कारण बना। कुवैत पर इराक़ के हमले से लेकर वर्ष 2003 में इराक़ पर अमरीका के हमले तक जिसके परिणाम स्वरूप सद्दाम की बासी सरकार का पतन हो गया, सऊदी अरब इराक़ के मुक़ाबले में अमरीका का सबसे अहम अरब घटक रहा।

90 के दशक में सऊदी अरब, इराक़ को नियंत्रित करने का इच्छुक था। हुतीफ़ा फ़य्याज़ ने अलजज़ीरा की वेबसाइट पर एक लेख में लिखा है कि सऊदी अरब और इराक़ के संबंध वर्ष 1990 में इराक़ द्वारा कुवैत पर हमले के बाद समाप्त हो गए। उसी साल से बग़दाद में सऊदी अरब का दूतावास बंद पड़ा रहा और सऊदी अरब ने इराक़ से मिलने वाली अपनी सीमाओं को बंद कर दिया। दोनों देशों के संबंधों में बहाली के आरंभिक चिन्ह वर्ष 2015 में दिखाई दिए और बग़दाद में सऊदी अरब का दूतावास पुनः खुल गया। सऊदी अरब के विदेश मंत्री आदिल अलजुबैर ने फ़रवरी 2017 में बग़दाद की यात्रा की और यह 27 साल बाद किसी सऊदी विदेश मंत्री की पहली इराक़ यात्रा थी।

 

सऊदी अरब और इराक़ के धार्मिक ढांचे में अंतर भी इन दोनों देशों के संबंधों में एक अहम कारक है। जोज़फ़ मैकमिलन ने इस संबंध में लिखा है। आले सऊद परिवार के लोग अपने को दूसरों से अलग समझते हैं और उनका मानना है कि उनकी व्यवस्था, इतिहास और संस्कृति बेजोड़ और केवल उन्हीं से संबंधित है। यहां यह बात भी उल्लेखनीय है कि सऊदी अरब और इराक़ के बीच अरब जगत के नेतृत्व को लेकर प्रतिस्पर्धा थी लेकिन सऊदी अरब, इराक़ में बासी सरकार के पतन से अप्रसन्न था क्योंकि इसके चलते इराक़ में शिया सत्ता में आ गए जिनकी इस देश में बहुसंख्या है।

 

दूसरी ओर सऊदी अरब को अपनी सीमा के उस पार एक शिया सरकार के गठन से भी चिंता है क्योंकि उसकी जनसंख्या में भी दस से पंद्रह प्रतिशत शिया हैं। इराक़ में प्रजातंत्र के सीमा पार परिणामों से भय इस बात का कारण बना कि बग़दाद और रियाज़ के संबंध वर्ष 2003 से वर्ष 2014 में हैदर अलएबादी के सत्ता में आने तक तनावग्रस्त रहे। इराक़ के पूर्व प्रधानमंत्री नूरी मालेकी ने कई बार स्पष्ट रूप से अपने देश के विभिन्न क्षेत्रों में आतंकवादी कार्यवाहियों और आत्मघाती हमलों में सऊदी अरब का हाथ होने की बात कही और इराक़ में धार्मिक कट्टरपंथ फैलाने की रियाज़ की कोशिशों की ओर से सचेत किया था। बहरहाल इराक़ में हैदर अलएबादी को प्रधानमंत्री चुने जाने के बाद से सऊदी अरब ने इराक़ के साथ अपने संबंधों की बहाली का रास्ता चुना जिसके बारे में हम अगले कार्यक्रम में चर्चा करेंगे, सुनना न भूलिएगा। (HN)

 

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