ईरानी संस्कृति और कला-28
हमने बताया था कि ईरान में पारंपरिक बाज़ार कैसे बनाए जाते थे और समय के साथ-साथ उनकी निर्माण शैली में कैसे परिवर्तन हुए।
ईरान के प्राचीन बाज़ारों में से कुछ आज भी मौजूद हैं जिनमें व्यापार होता है किंतु आधुनिक व्यापारिक सेंटर और दुकानें भी यहां पाई जाती हैं।
मस्जिदें, मुसलमानों का उपासना स्थल हैं जहां पर मुसलमानों की मूल उपासना अर्थात नमाज़ का आयोजन किया जाता है। इनको इस्लाम के प्रतीक के रूप में भी देखा जाता है। इस्लाम की शिक्षाओं में नमाज़, रोज़ा, हज, ज़कात और जेहाद जैसी इबादतों का उल्लेख किया गया है। इस्लामी शिक्षाओं के अनुसार प्रत्येक मुसलमान का दायित्व है कि वह इन बातों को अपनाए। कहते हैं कि वास्तुकला का दो इस्लामी उपासनाओं से निकट का संबन्ध है अर्थात नमाज़ और हज। नमाज़ के लिए मस्जिद की आवश्यकता है जिसमें व्यक्तिगत और सामूहिक रूप में मुसलमान एकत्रित होते हैं। इसके अतिरिक्त हज भी ऐसी उपासना है जिसका वास्तुकला से संबन्ध है क्योंकि इसके लिए मुसलमान पवित्र नगर मक्के में स्थित काबा में एकत्रित होते हैं।
पूरे संसार के मुसलमान नमाज़ के समय काबे की ओर मुंह करके नमाज़ पढ़ते हैं। इस्लाम के उदय के आरंभिक काल से ही मुसलमान नमाज़ पढ़ने के लिए एक स्थान पर एकत्रित हुआ करते थे जिसे मस्जिद कहा जाने लगा। इस स्थान के महत्व के कारण इसके निर्माण की ओर विशेष ध्यान दिया जाने लगा। धीरे-धीरे संसार में मस्जिदों की संख्या में वृद्धि होने लगी। जैसे-जैसे मस्जिदों की संख्या में वृद्धि हुई उसी अनुपात में उनके निर्माण की शैलियों में भी परिवर्तन होता गया। आरंभिक काल में मस्जिदों को बनाने में सादगी की ओर विशेष धयान दिया जाता था।
वास्तविकता यह है कि मस्जिद एक इस्लामी इमारत है। यही कारण है कि इसके क्रियाकलाप हमको इस्लामी संस्कृति और इस्लामी मूल्यों से अवगत करवाते हैं। वे इतिहासकार जिन्होंने मुसलमानों की ऐतिहासिक धरोहरों का उल्लेख किया है, उन्होंने मस्जिदों को इस्लामी संस्कृति का प्रतीक बताया है। मस्जिदों के निर्माण की शैलियों के बारे में बहुत शोध किये गए। मस्जिद ऐसी महत्वपूर्ण इमारत है जिसको बनाने में उच्च स्तर की संरचनाएं प्रयोग की गईं। इसका कारण यह था मस्जिदों को इसलिए बनाया जाता था कि इनमें लंबे समय तक उपासना की जाए इसलिए इसकी मज़बूती पर ध्यान दिया जाता था। अगर देखा जाए तो पता चलता है कि समय गुज़रने के साथ बहुत सी ग़ैर धार्मिक इमारतें गिर गईं या नष्ट हो गईं लेकिन लंबा समय गुज़र जाने के बाद बहुत सी मस्जिदें अब भी बाक़ी हैं। अध्ययन से पता चलता है कि पहली शताब्दी से लेकर चौथी शताब्दी हिजरी के बीच बनाई गई कई मस्जिदें शताब्दियों तक बाक़ी रहीं।
मस्जिद का आरंभिक रूप यह था कि उसे बहुत ही सादा शैली में बनाया जाता था। सामान्यतः आरंभिक मस्जिदों में एक आंगन होता था और कुछ स्थानों पर उसपर छत डाल दी जाती थी। पवित्र नगर मदीना में इस्लाम की पहली मस्जिद बनाई गई थी जो बहुत ही सादा थी। संसार की हर मस्जिद का रुख़ काबे की ओर होता है। यही वह विषय है जो मस्जिद के निर्माण को अन्य इमारतों से अलग करता है। मस्जिद के बनाने में क़िब्ले की ओर विशेष ध्यान रखा जाता है। जब मस्जिद बनाई जाती है तो सबसे पहले उसमें मेहराब बनायी जाती है जो क़िब्ले की दिशा को निर्धारित करती है। बाद में क़िब्ले को आधार बनाकर ही मस्जिद के अन्य भागों का निर्माण किया जाता है। मस्जिद में आने वाले इसी ओर मुंह करके नमाज़ पढ़ते हैं। किसी मस्जिद में मेहराब के अतिरिक्त मीनार, गुंबद, हौज़, हाल और अन्य चीज़ें बनाई जाती हैं।
इस्लाम के आरंभिक काल में मुसलमान शुक्रवार के दिन मस्जिद में जमा होते थे और सामूहिक रूप से नमाज़ पढ़ते थे जो साप्ताहिक नमाज़ होती थी। जुमे की नमाज़, अन्य नमाज़ों से अलग होती है और केवल शुक्रवार के दिन दोपहर के समय पढ़ी जाती है। जुमे की नमाज़ के लिए मस्जिद का बड़ा होना ज़रूरी है क्योंकि इस नमाज़ में अधिक संख्या में लोग एकत्रित होते हैं। शायद यही कारण है कि प्राचीनकाल से ही वास्तुकारों का यह प्रयास रहा है कि वे बड़ी मस्जिदें बनाएं ताकि अधिक से अधिक नमाज़ी उसमें आ सकें। इसीलिए मस्जिद में बड़े हाल का अस्तित्व सामने आया। बड़े हाल में अधिक नमाज़ी, छाया में रहकर नमाज़ पढ़ सकते हैं। इसीलिए मस्जिद बनाने में मेहराब के बाद हाल के बनाने का चलन शुरू हुआ। ईरान में ऐसी बहुत सी मस्जिदें हैं जिनमें एक नहीं बल्कि कई-कई हाल हैं। दूसरे शब्दों में यहां पर छोटी मस्जिदें भी हैं और बड़ी भी।
ईरानी मामलों के एक फ़्रांसीसी जानकार एंड्रे गोडार्ड ने ईरान मे चार हॉलों वाली मस्जिदों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि इस प्रकार की मस्जिदें, सासानी काल की शैली की मस्जिदें हैं। इन मस्जिदों के कोनों पर ताक़ बनी होती है। ख़ुरासान में ऐसी बहुत सी प्राचीन मस्जिदें हैं जिनके दो हॉल होते हैं। उस मस्जिद को जिसमें हौज़ भी बनाया जाता था, "रौज़े" कहा जाता था। इसका कारण यह है कि रौज़े से स्वर्ग की ओर संकेत है जहां पर फल हैं और हौज़े कौसर है। कुछ मस्जिदें एसी भी हैं जिनमें न केवल हौज़ होता है बल्कि वहां पर पतली- पतली पानी की नालियां बनाई जाती हैं जो पूरी मस्जिद में बहता है। इससे मस्जिद का वातावरण ठंडा रहता है। इस प्रकार की मस्जिदें सामान्यतः मरूस्थलीय क्षेत्रों में होती हैं जिनका पानी भूमिगत जल स्रोतों से जुड़ा होता है।
ईरान में प्राचीनकाल से ही उपासना स्थलों के निकट जल का प्रबंध किया जाता था ताकि उपासक पवित्र होकर उपासना स्थल में जा सकें। यही कारण है कि ईरान में बहुत सी मस्जिदों में वज़ुख़ाने बनाए जाते थे। यह वुज़ूख़ाने बाद में मस्जिदों का अटूट अंग बन गए। ईरान के बहुत से प्राचीन नगरों में ऐसी मस्जिदें आज भी मौजूद हैं।
ईरान में बनी मस्जिदों की एक अन्य विशेषता यह है कि उन्हें किसी अन्य इमारत से जोड़ा नहीं गया है। मस्जिदें सामान्यतः हर प्रकार की इमारत से अलग होती थीं। मस्जिदों के किनारे सड़कें, बाज़ार और सार्वजनिक स्थल पाए जाते थे। दुकानों को मस्जिद से थोड़ी दूरी पर बनाया जाता था। मस्जिद और दुकानों में थोड़ी सी दूरी होती थी। अति प्राचीन काल में ईरान में बनी मस्जिदों में एक विशेष स्थान होता था जहां पर मस्जिद में चेराग़ या दीप जलाने के लिए तेल रखा जाता था। इस स्थान के निकट जिसे, "साख़तमाने रौग़नकशी" कहते थे, स्नानग्रह या हमाम बनाया जाता था। इसके निकट मस्जिद की रखवाली करने वाले का कमरा होता था। कुछ स्थानों पर मस्जिदों के सामने पत्थर का चबूतरा बना होता था। इस स्थान पर लोग आराम करके हाथ-पैर धोकर मस्जिद में जाया करते थे।
मस्जिदों के भीतर न केवल नमाज़ पढ़ी जाती है बल्कि पढ़ने और पढ़ाने का काम भी यहां होता है। सामान्यतः मस्जिद में पवित्र क़ुरआन की शिक्षा दी जाती है। इसके अतिरिक्त प्रवचन भी मस्जिद में ही दिये जाते हैं। कुछ मस्जिदों में पुस्तकालय भी बनाए गए हैं। पुरानी मस्जिदों के निकट धर्मशालाएं भी बनाई जाती थीं और आधुनिक काल में इसके निकट अस्पताल और शिक्षा केन्द्र आदि भी बनाए जाते हैं। इससे पता चलता है कि मुस्लमान अपनी आध्यात्मिक एवं भौतिक आवश्यकताओं को मस्जिद से हासिल कर सकता है। मस्जिद केवल आध्यात्मिकता का केन्द्र न होकर दूसरी गतिविधियों का भी स्थल है।