इस्लाम में बाल अधिकार- 9
इस्लामी किताबों व स्रोतों में भ्रूण के जीवन चक्र के ख़त्म होने और बच्चे के जन्म लेने से पहले गर्भाधारण और भ्रूण शब्दावली का इस्तेमाल मिलता है।
भ्रूण व गर्भाधारण औरत के गर्भ में बच्चे के ठहरने और बच्चे के पैदा होने से पहले तक के समय को कहते हैं। इस कार्यक्रम में इस्लामी शिक्षा और अंतर्राष्ट्रीय दस्तावेज़ों में बच्चे की पैदाइश से पहले अधिकार के बारे में समीक्षा करेंगे। इन आदेशों का वर्णन इस्लाम में बाल अधिकार व्यवस्था की व्यापकता का पता चलता है जिसमें गर्भ के ठहरने के क्षण से उसके स्वास्थ्य व विकास के बारे में आदेश मौजूद हैं।
जीने का अधिकार इंसान के मूल अधिकार में है लेकिन बाल अधिकार से संबंधित दस्तावेज़ों में इस विषय पर साफ़ तौर पर कुछ नहीं कहा गया है। पिछले कुछ कार्यक्रमों में हमने इस बात की ओर इशारा किया कि बाल अधिकार कन्वेन्शन के पहले अनुच्छेद को इस तरह संकलित किया गया है कि उसमें इस बात का उल्लेख नहीं है कि बचपन की शुरुआत कबसे होती है। बाल अधिकार कन्वेन्शन को लागू कराने में मार्गदर्शन करने वाली किताब में आया हैः "जिन लोगों ने पहला अनुच्छेद संकलित किया है, गर्भपात और बच्चे की पैदाइश से पहले से संबंधित मामलों के बारे में किसी प्रकार का दृष्टिकोण नहीं अपनाया है क्योंकि इस बात की संभावना थी कि इस कन्वेन्शन को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर समर्थन न मिले।" इस कन्वेन्शन में बचपन की शुरुआत के समय के निर्धारण से बचना यह दर्शाता है कि यह कन्वेन्शन इस बारे में लचीले हल का समर्थक है और देश के आतंरिक व राष्ट्रीय नियम को यह छूट देता है कि वे ख़ुद बचपन की शुरुआत का समय निर्धारित करें।
मिसाल के तौर पर अर्जन्टीना की सरकार ने इस कन्वेन्शन के पहले अनुच्छेद के बारे में साफ़ तौर पर कहा है कि इस अनुच्छेद की इस प्रकार व्याख्या हो कि बचपन का अर्थ इंसान के पैदा होने से 18 साल की उम्र तक लागू हो। यह दृष्टिकोण अर्जन्टीना के नागरिक अधिकार की प्रतिक्रिया लगता है जिसमें आया हैः "इंसान का वजूद और उसका जीवन औरत के गर्भ में बच्चे के ठहरने के समय से शुरु होता है और हर व्यक्ति दुनिया में आने से पहले उसी तरह निर्धारित अधिकार का स्वामी हो सकता है जिस तरह उसे पैदा होने के बाद अधिकार मिलता है।"
अलबत्ता बाल अधिकार कन्वेन्शन की धारा एक अनुच्छेद 6 में आया हैः "सदस्य सरकारें बच्चों के सभी मूल अधिकार को आधिकारिक रूप से पहचानती हैं।" कन्वेन्शन की धारा एक के बारे में जिसमें बचपन की शुरुआत के बारे में लचीला रवैया है, यह कहा जा सकता है कि अधिकार संस्थाएं जो बपचन की शुरुआत को पैदाइश से पहले मानती हैं, पैदाइश से पहले बच्चे के जीवन के मूल अधिकार को मानय्ता दे और विभिन्न उपायों से इस मूल अधिकार का समर्थन करे। साथ ही बाल अधिकार के अंतर्राष्ट्रीय घोषणापत्र की प्रस्तावना में बच्चे का पैदाइश से पहले से अधिकार पर बल देते हुए आया हैः "इस बात के मद्देनज़र कि बच्चे को पैदाइश से पहले और बाद शारीरिक व वैचारिक विकास न होने के कारण, उचित क़ानूनी समर्थन की ज़रूरत है।"
इस बात का उल्लेख भी ज़रूरी है कि दूसरे दस्तावेज़ों में बच्चे के समर्थन में उसके पैदा होने से पहले और उसकी मुर्दा पैदाइश को रोकने के लिए बहस हुयी है। आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकार के अंतर्राष्ट्रीय प्रतिज्ञापत्र के दसवें और बारहवें अनुच्छेद में इस विषय की ओर इशारा है लेकिन पैदाइश से पहले बच्चे के जीवन के अधिकार के समर्थन का स्पष्ट रूप से वर्णन नहीं हुआ है।
ईश्वर ने मोमेनून सूरे की आयत नंबर 13 और 14 में गर्भ में ठहरने वाले भ्रूण के विकास के पांच चरण का उल्लेख किया है जो इस प्रकार हैः पहले द्रव्य, दूसरे ख़ून का लोथड़ा, तीसरे क़ीमा की तरह नज़र आने वाला मांस, चौथे हड्डी का बनना और पांचवे उस पर मांस चढ़ना है। हालांकि इन पांचों चरण की अहमियत है और हर चरण आश्चर्य से भरा है लेकिन सबसे अहम चरण छठा है जो नई पैदाइश का चरण है और इस चरण में ईश्वर ने ख़ुद अपनी सराहना की है। पवित्र क़ुरआन के अधिकांश व्याख्याकर्ताओं का मानना है कि यह वह चरण है जब भ्रूण में जान आती है।
खेद की बात है कि आज कल मां बाप द्वारा अपने बच्चे को जान से मारने की घटनाएं आम हो गयी हैं। दूसरे शब्दों में जैसे ही बच्चा मां के पेट में ठहरता है उसे विभिन्न शैलियों से गिरा दिया जाता है। जिन कारणों से मां बाप गर्भपात जैसे पाप अंजाम देते हैं उनमें परिवार की आर्थिक मुश्किल, बच्चे की आर्थिक मुश्किल स्थिति और संतान का अंजाम सही न होना शामिल है।
इस बारे में ईश्वर पवित्र क़ुरआन के अनाय सूरे की आयत नंबर 137 में फ़रमाता हैः "और इस तरह उन के शरीकों ने बहुत से अनेकेश्वरवादियों के लिए संतान के क़त्ल को भी अच्छा दिखाया ताकि उन्हें तबाह कर दें और उनके धर्म संदिग्ध बना दें। अगर अल्लाह चाहता तो ये ऐसा न करते, इसलिए उन्हें झूठ गढ़ने की हालत में छोड़ दें और परेशान न हो।"
यह ऐसी हालत में है कि किसी की जान बूझ कर हत्या का कोई औचित्य नहीं दर्शाया जा सकता और इसे सभी ईश्वरीय धर्मों में महापाप कहा गया है। जैसा कि इस बारे में ईश्वर मुमतेहना सूरे की आयत नंबर 12 में कह रहा हैः "हे पैग़म्बर! जब आपके पास ईमानवाली स्त्रियां आकर आपसे इस बात पर बैअत करें कि ईश्वर के साथ किसी चीज़ा को साझा नहीं ठहराएंगी, न चोरी करेंगी, न व्याभिचार करेंगी, न अपनी औलाद की हत्या करेंगी, न अपने हाथों और पैरों के बीच कोई आरोप गढ़ कर लाएंगी, न किसी भले काम में तुम्हारी अवज्ञा करेंगी, तो उनसे बैअत ले लो और उनके लिए ईश्वर से क्षमा की प्रार्थना करो। निश्चिय ही ईश्वर अत्यंत क्षमाशील व अत्यंत दयावान है।"
इस आयत में ईश्वर सीधे तौर पर आदेश दे रहा है कि मोमिन औरतें और जो लोग ईमान लाए हैं, अपनी संतान की हत्या न करें, लेकिन खेद की बात है कि इन दिनों ऐसी माएं बहुत हैं जो ईश्वर की इच्छा को नज़रअंदाज़ करते हुए, गर्भपात कराकर अपनी संतान की हत्या करती हैं।
इस्लामी शिक्षाओं के अनुसार, गर्भ में बच्चा ठहरने के समय से ही भ्रूण को जीने का अधिकार हासिल है और किसी को इस संबंध में किसी तरह की अवज्ञा का अधिकार नहीं है। धर्मशास्त्र की नज़र में इस बात में शक नहीं कि गर्भापात वर्जित और महापाप है। धर्मशास्त्रियों ने गर्भापात के वर्जित होने के बारे में दो तरह की हदीसों अर्थात पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों के कथनों को पेश किया है। पहला गुट उन पुष्ट हदीसों का है जिनमें किसी जीव की हत्या को हराम अर्थात वर्जित कहा गया है। हत्या को वर्जित क़रार देने वाली हदीसें भ्रूण के जीवन पर भी लागू होती हैं। दूसरा गुट उन हदीसों का है जिनमें गर्भापात से रोका गया है। शिया धर्मशास्त्रियों ने कहा है कि जैसे ही औरत को गर्भ धारण होता है उसी समय से भ्रुण से एक अधिकार विशेष है और वह यह कि गर्भ धारण का पता चलते ही अगर कोई औरत गर्भापात कराती है तो ऐसी स्थिति में भ्रूण के लिए दियत अर्थात हर्जाना निर्धारित किया गया है। इस्लाम में बहुत अहम वर्जित चीज़ों के बारे में एक समकालीन धर्मशास्त्री कहते हैः “हर मुसलमान बल्कि हर उस व्यक्ति का ख़ून बहाना वर्जित है जिसकी जान की रक्षा पर बल दिया गया है, इसी तरह उसे मारना पीटना भी वर्जित है। उस समय भी गर्भपात कराना वर्जित है जब भ्रूण में जान न हो।”
पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों के कथन में गर्भापात को हत्या की संज्ञा दी गयी है। गर्भापात के बारे में एक रवायत आपकी सेवा में पेश है। इस्हाक़ बिन अम्मार कहते हैं कि मैने इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम से पूछा कि उस औरत के बारे में क्या आदेश है जिसने गर्भवति होने के डरझ दवा खा ली और जो कुछ उसके गर्भ में था वह गिर गया? इमाम ने फ़रमायाः “इजाज़त नहीं है।” मैंने कहा कि यह तो सिर्फ़ एक द्रव्य है। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि पहली चीज़ जो पैदा होती है वह द्रव्य है। यह इस बात की ओर इशारा है कि इंसान के जीवन की शुरुआत नुत्फ़े के ठहरने के समय से है।
जैसा कि आपने देखा कि इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने उस इंसान के बारे में जिसे गर्भवति होने का विश्वास न हो फ़रमाते हैः “दवा खाने की इजाज़त नहीं है।” जब गर्भवती होने का यक़ीन हो तो उक्त कर्म का वर्जित होने में किसी तरह की शक की गुंजाइश नहीं रह जाती। इस आधार पर गर्भपात सामान्य हालत में वर्जित है। इस दृष्टि से फ़र्क नहीं है कि भ्रूण में जान पड़ी है या नहीं।
जीने का अधिकार हर इंसान का मौलिक अधिकार है जिसका मानवाधिकार से संबंधित कुछ अहम दस्तावेज़ों में वर्णन मिलता है। हालांकि इस्लामी शब्दावली में “जीने का अधिकार” जैसी शब्दावली नहीं मिलती लेकिन इंसान की हत्या के वर्जित होने, जीने के अधिकार को पहचानने और इंसान का साथ देने पर बल दिया गया है। पवित्र क़ुरआन में हर हालत में बाल हत्या से मना किया सका है जिससे पता चलता है कि यह कृत्य कितना घृणित है।