ईरानी संस्कृति और कला- 31
इस्लामी देशों में मस्जिदों के निर्माण में विभिन्न प्रकार की शैलियों, मसालों और तकनीक के इस्तेमाल के अलावा, मस्जिद की वास्तुकला में एक संयुक्त बिन्दु मस्जिद में आंगन का वजूद है।
केन्द्रीय आंगन यद्यपि इस्लाम से पहले की वास्तुकला में मौजूद था लेकिन इस्लामी विचारधारा में इसे विशेष अहमियत हासिल हो गया।
आंगन की अहमयित को समझने के लिए इस बात का उल्लेख ज़रूरी है कि ईरान में खुली जगह में धार्मिक रीति रिवाजों का चलन हज़ारों साल पुराना है। हैरोडट ने इस बिन्दु की ओर इशारा किया कि पारसी लोग, धार्मिक समारोह ऊंची जगह पर खुले स्थान पर अंजाम देते थे। इस तरह की जगह को स्थानीय भाषा में पावी कहते थे। यह जगह आयताकार होती थी और धार्मिक संस्कार से पहले उसे पानी से धुलते थे। खुली जगह में धार्मिक समारोह का आयोजन इस्लाम में भी प्रचलित था। हज के अवसर पर मक्का शहर में मुसलमान हर साल सामूहिक रूप से सबसे बड़ा जमावड़ा करते हैं। काबे की परिक्रमा और अरफ़ात के संस्कार खुले आसमान के नीचे होते हैं। इसी तरह ईद और बक़रीईद की नमाज़ भी खुली जगह में पढ़ी जाती है।
इस्लामी शहरों के इतिहास की समीक्षा से पता चलता है कि धार्मिक स्थलों में खुले आसमान वाली जगहें होती हैं, जो बता रही हैं कि इन स्थलों की आध्यात्मिकता का संबंध असीम आसमान से है।
मस्जिद में आंगन के निर्माण के लिए कई तरह के मॉडल का अनुसरण किया जाता है जिनका संक्षेप में हम उल्लेख करेंगे। मस्जिदों में आंगन को मदीने में पैग़म्बरे इस्लाम द्वारा बनवायी गयी पहली मस्जिद का अनुसरण है और इस्लाम के आरंभिक काल में ज़्यादातर मस्जिदों में आंगन होते थे। आंगन के एक दो या तीन तरफ़ बरामदा बनाते थे और इस तरह खुली हुयी जगह घिर जाती थी और एक बरामदा क़िबले की ओर बनाते थे।
केन्द्रीय आंगन के साथ मस्जिदें इस्लामी जगत में मस्जिदों के निर्माण के दूसरे नमूने हैं। इस शैली में आंगन बीचों बीच में और उसके चारों ओर छतदार भाग होता है जिसे शबिस्तान कहते हैं। यह चौकोर आंगन स्थिरता का प्रतीक है। यज़्द की जामा मस्जिद इस शैली में बनायी गयी है।
इस्लामी ईरान में मस्जिद निर्माण की तीसरी शैली में मस्जिद का निर्माण चार ऐवान के आधार पर किया जाता है। ऐवान किसी इमारत के उस छतदार हिस्से को कहते हैं जो सामने से खुला होता है, उसमें दरवाज़े और खिड़की नहीं होती और उसके सामने आंगन होता है। इस तरह की मस्जिदों में ऐवान की हैसियत आंगन को जोड़ने वाले स्थान की तरह होती है और वह आंगन को मस्जिद के मुख्य हॉल से जोड़ता है लेकिन आंगन मस्जिद के केन्द्र में होता है। इन ऐवानों में कभी क्लासें लगती थी, कभी कभी लोग वहां बैठ कर वार्ता करते थे। ज़्यादातर समय अगर कोई व्यक्ति व्यक्तिगत रूप से नमाज़ पढ़ना चाहता था तो ऐवान में पढ़ता था।
चार ऐवान आंगन के चारों ओर बनाए जाते थे और जो ऐवान क़िबले की ओर होता था वह उसे अधिक बड़ा और ऊंचा बनाया जाता था। चार ऐवानों पर आधारित वास्तुकला अस्ल में ईरानी वास्तुकला है जिनके नमूने प्राचीन ईरान में अश्कानी शासन काल के महलों में देखे जा सकते हैं। यह वास्तुकला सल्जूक़ी शासन काल में मस्जिद के निर्माण में प्रचलित हो गयी और उसके बाद यही शैली भारत और मध्य एशिया में भी प्रचलित हुयी। ज़व्वारे जामा मस्जिद इस शैली में बची हुयी आख़िरी मस्जिद है।
धार्मिक व सामाजिक समारोह के आयोजन की नज़र से मस्जिद के आंगन की बहुत अहमियत रही है। स्वीज़रलैंड के पूर्वविद् एडम मेट्ज़ ग्यारहवीं ईसवी की मस्जिद की व्याख्या में मस्जिद के आंगन को आम मैदानों के समान बताया है। उन्होंने मध्ययुगीन शताब्दियों में मुसलमानों के जीवन के बारे में अपनी किताब में लिखा हैः उस दौर की मस्जिदों में बीचो बीच में बड़े बड़े आंगन होते थे जिसमें पानी का हौज़, कुंआ या चश्मा होता था। मस्जिद के चारों ओर बरामदा बनाते थे जहां से ऐवानों में जाने का रास्ता होता था। मस्जिद के कुछ ऐवान इतने बड़े व विशाल होते थे कि एक साथ हज़ारों आदमी उसमें आसानी से नमाज़ पढ़ सकते थे। कुछ हॉल छात्रों के पढ़ने के लिए विशेष होते थे और कुछ धार्मिक जश्न और निकाह जैसे मुसलमानों के दूसरे संस्कारों के अंजाम देने के लिए विशेष होते थे। इस दौर की मस्जिदों के द्वार दिन रात चौबीस घंटे खुले रहते थे। मस्जिदें धार्मिक गतिविधियों के साथ साथ सामाजिक गतिविधियों के लिए भी बहुत अहमियत रखती थीं।
मस्जिदों में आंगन की डीज़ाइन प्रायः मस्जिद के समग्र रूप के अनुसार की जाती है। आंगन आयताकार या चौकोर बनाया जाता है। ईरान के ज़्यादातर क्षेत्रों में क़िबला दक्षिण-पूर्व में पड़ता है। यही वजह है कि ज़्यादातर घर उत्तर से दक्षिण क़िबले की ओर बनाए जाते हैं। मस्जिदों का निर्माण भी इस तरह किया जाता है कि मेहराब और हॉल क़िबले की ओर हो और मस्जिद की पूरी इमारत, बाहर से आस पास की इमारतों से समन्वित हो।
ईरान की सुंदर व ऐतिहासिक मस्जिदों में एक इस्फ़हान शहर में स्थित लुत्फ़ुल्लाह मस्जिद है। इस मस्जिद का निर्माण सत्रहवीं ईसवी में हुआ है। शैख़ लुत्फ़ुल्लाह मस्जिद वास्तुकला और टाइल के काम का उत्कष्ट नमूना समझी जाती है। पुरातनविदों ने इस मस्जिद की बड़ी प्रशंसा की है।
लुत्फ़ुल्लाह मस्जिद, इस्फ़हान सहित ईरान के दूसरे शहरों की मस्जिदों से कई आयाम से अलग है। इस मस्जिद में आंगन और मीनार नहीं है। इस मस्जिद का गुंबद दो ख़ोल वाला गुंबद है। इस मस्जिद में क़िबले की दिशा का निर्धारण हैरत करने वाली बात है क्योंकि मस्जिद का प्रवेश द्वार और क़िबले की दिशा में अंतर है। इसे सुनिश्चित करने में ईरानी वास्तुकारों की कलाकारी का पता चलता है। क्योंकि यह मस्जिद इस्फ़हान के नक़्शे जहान नामक मैदान चौराहे के पूर्वी भाग में स्थित है इसलिए न चाहते हुए इसका प्रवेश द्वार मैदान के पूर्वी भाग में है। लेकिन अगर मस्जिद को इसी भौगोलिक दिशा में बनाते तो क़िबले की दिशा दूसरी मस्जिदों के हॉल के मॉडल से समन्वित न होती। इस मुश्किल को हल करने के लिए मस्जिद के प्रवेश द्वार के गलियारे को नब्बे अंश पर बनाया गया है जो थोड़े से मोड़ के साथ मस्जिद के मुख्य हॉल तक पहुंचता है। इसलिए मस्जिद का मुख्य हॉल क़िबले की दिशा में है। वास्तुकला की यह कलाकारी मस्जिद के बाह्य रूप और गुंबद से दिखाई नहीं देती मैदान में मौजूद दूसरी इमारतों से बहुत ही सुदंर रूप में समन्वित है। मस्जिद का हॉल चतुर्भुजीय है जिसका ऊपरी भाग अष्टकोणीय हो गया है और अंत में उसके ऊपर गुंबद बना है।
इस मस्जिद की दीवारें बहुत मोटी हैं ताकि भार व दबाव सहन कर सकें। मस्जिद के मुख्य भाग की दीवारें दो मीटर चौड़ी हैं। मस्जिद लुत्फ़ुल्लाह के फ़र्श की सतह मैदान नक़्शे जहान की सतह से ऊपर है।
प्रवेश द्वार और उसके दोनों ओर प्लेटफ़ार्म संगे मरमर के बने हैं जिन्हें विभिन्न रंगों की टाइलें से सजाया गया है। प्रवेश द्वार पर ज्यामितीय चित्र और नस्तालीक़ लीपीत में शिलालेख लगे हुए हैं। मस्जिद के प्रवेश द्वार के ऊपरी भाग में दो शिलालेख बहुत ही सुदंर लीपि में लगे हुए हैं। बड़े बड़े शिलालेख गुंबद के भीतर गोलाई में लगे हुए हैं। ये शिलालेख उस्ताद लीपिकार अली रज़ा अब्बासी के हाथों लिखे गए हैं।
मस्जिद के गुंबद पर रंग बिरंगी टाइलों से बनाए गए चित्र को ईरानी वास्तुकला में टाइल के सबसे सुदंर कामों में से गिना जाता है। हॉल में रौशनी गुंबद में बनी जालियों से छन छन कर आती है।
मशहूर अमरीकी ईरानविद् आर्थर पोप ने इस मस्जिद के बारे में कहा हैः इस इमारत में कहीं कोई छोटी सी भी कमी नज़र नहीं आती। हर चीज़ का आकार बहुत की उचित और डीज़ाइन बहुत सुंदर है। कुल मिलाकर शोर शराबे और शांति व सुकून के बीच एक तरह का समन्वय और सौंदर्यशास्त्र का अद्भुत नमूना है। इस बात में शक नहीं कि वास्तुकला के इस उत्कृष्ट नमूने का श्रेय इस्लामी कला व धार्मिक आस्था को जाता है।