Jul ०७, २०१९ १६:०२ Asia/Kolkata

ईरान के खिलाफ सद्दाम सरकार द्वारा छेड़ा गया युद्ध जो आठ वर्षों तक जारी रहा, कई आयामों से महत्वपूर्ण है और यह युद्ध अपने भीतर, ईरानी जियालों की वीरता व साहस की अनगिनत कहांनियां समेटे है।

हम ने सद्दाम की सेना के सामने छोटे से नगर " हुवैज़ा" की जनता के संघर्ष का उल्लेख किया था और बताया था कि सैयद हुसैन अलमुलहुदा और उनके 120 साथियों ने किस प्रकार से अंतिम गोली और अपने खून की अंतिम बूंद तक मोर्चे पर वीरता का प्रदर्शन किया था। हुवैज़ा युद्ध, ईरान पर थोपे गये 8 वर्षींय युद्ध का एक अत्याधिक महत्वपूर्ण अध्याय है और कोई एसा ईरानी नहीं है जिसने हुवैज़ा युद्ध का नाम न सुना हो, हुवैज़ा, ईरान की हर पीढ़ी के लिए एक चित परिचित नाम है। हुवैज़ा वह जगह है जहां के बारे में वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनई ने 11 दिसंबर सन 1996 में इस क्षेत्र के शहीदों की याद में आयोजित एक कार्यक्रम में कहा था कि " आज, शहीदों के मज़ार, उन पर बना गुंबद और इन शहीदों का अध्यात्मिक प्रभाव, ईश्वर की अनन्त शक्ति पर ध्यान देने का साधन है। वरिष्ठ नेता ने हुवैज़ा युद्ध  के बारे में कहा कि युद्ध की पूरी अवधि, रात को उपासना करने और दिन में शेरों की तरह लड़ने वालों की वीर गाथाओं से भरी है और हुवैज़ा के वीरों की कहानी उनमें मुख्य है।

 

हुवैज़ा आप्रेशन विफल हो गया था और हुसैन अलमुलहुदा और सौ से अधिक उनके साथियों की शहादत के बाद यह शहर, दुश्मन के हाथ में चला गया लेकिन यह विफलता, सद्दाम सेना के मुक़ाबले के लिए तकनीकी लिहाज़ से लाभदायक सिद्ध हुई और ईरानी जियालों ने सद्दाम की सेना से मुकाबले की रणनीत बदल ली। हुवैज़ा अभियान वास्तव में, ईरान व इराक़  की क्लासिक सेना के मध्य एक जैसी रणनीति के साथ किंतु असमान युद्ध था। यह युद्ध दो बक्तरबंद सेनाओं के मध्य टकराव से आरंभ हुआ और फिर यह, मिस्र और इस्राईल के मध्य अक्तूबर युद्ध के बाद, टैंकों का सब से बड़ा युद्ध बन गया।

 

हुवैज़ा युद्ध  और इस नगर पर इराक़ी सेना के अधिकार तथा सूसनगर्द नगर पर क़ब्ज़े में दुश्मन की विफलता के बाद, ईरान इराक युद्ध के मोर्चे पर ठहराव छा गया क्योंकि किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि अब क्या किया जाए?  युद्ध के दौरान बक्तरबंद गाड़ियों से हमला और दो पारंपिक सेनाओं के युद्ध का कोई नतीजा नहीं निकला था। बक्तरबंद युद्ध में विफलता, भारी संख्या में जानी नुक़सान और ईरान के पास संसाधनों की कमी की वजह से थी। इस्लामी गणतंत्र ईरान पर प्रतिबंध लागू था और उसे किसी भी देश की ओर से हथियार नहीं बेचे जाते थे जिसकी वजह से ईरान के लिए युद्ध में तबाह होने वाले साधनों के स्थान को भरना संभव नहीं था जबकि सद्दाम सरकार के लिए एसी कोई समस्या नहीं थी, इराक़, बिना किसी आर्थिक व राजनीतिक सीमा के अत्याधुनिक हथियार खरीदता और उन्हें ईरान के खिलाफ प्रयोग करता था। इन हालात में दो सेनाओं के मध्य पारंपरिक युद्ध और बक्तरबंद वाहनों के प्रयोग को दोहराने का अर्थ, इराक़ की वरीयता को स्वीकार करना और पराजय के लिए तैयार होना था।

हुवैज़ा युद्ध ने युद्ध में ईरान की रणनीति में मूल परिवर्तन पैदा किये और ईरान के सामने हथियारों के अभाव की समस्या के समाधान के लिए नया रास्ता मिल गया। इस युद्ध के बाद क्रांतिकारी बल, धीरे धीरे, आईआरजीसी और स्वंय सेवी बल का रूप धारण करने लगे, आवश्यक ट्रेनिंग ली और युद्ध के खट्टे मीठे अनुभवों से लाभ उठाया। आस्था व ईश्वरीय मदद पर भरोसा और  जनता द्वारा युद्ध का मोर्चा संभालने के बाद, साधनों की कमी की समस्या का काफी हद तक निवारण हो गया। क्रांति संरक्षक बल को अपना रास्ता मिल गया था और उन्होंने अनुभवों से लाभ उठाते हुए, अपनी इस संस्था को व्यापक बनाना आरंभ कर दिया। इस अथक प्रयास का पहला फल, दो महीने बाद, सूसनगर्द में एक सीमित आप्रेशन के रूप में सामने आया। इस आप्रेशन का नाम हज़रत मेहदी था। इस सीमित आप्रेशन से यह विश्वास पैदा हुआ कि क्रांति संरक्षक बल, युद्ध के राजनीतिक व सैनिक असमंजस को खत्म कर सकता है और अपनी भिन्न प्रकार की शैली और रणनीति से दुश्मन के दांत खट्टे कर सकता है। ईरान में अधिकारी इस निष्कर्ष पर पहुंच गये थे कि युद्ध की समस्याओं का निवारण, केवल क्रांतिकारी शैलियों द्वारा ही हो सकता है और इन समस्याओं को पारपंरिक युद्ध शैली से खत्म करना ईरान के लिए संभव नहीं है। इसप्रकार से ईरान पर थोपे गये युद्ध में एक नया चरण आरंभ हुआ जिसके दौरान जन सेना और क्रांति संरक्षक बल ने क्रांतिकारी भावना के अंतर्गत युद्ध के मोर्चे पर अधिक भारी ज़िम्मेदारी संभाल ली।

 

क्रांति संरक्षक बल आईआरजीसी व्यापक होता चला गया और बलिदानी छात्रों ने जिनमें से अधिकांश के पास, शाही सरकार के खिलाफ संघर्ष का अनुभव था, आईआरजीसी से जुड़ते चले गये। इन छात्रों ने उच्च शिक्षा और अनुभव की वजह से इस क्षेत्र में नयी नयी पहल की और अनोखी शैलियां अपनायीं। इन पढ़े लिखे छात्रों ने आईआरजीसी की कमान संभाली हालांकि वह सैन्य संस्था में पढ़े नहीं थे और न ही उनके पास युद्ध का कोई अनुभव था मगर उन्हों ने एक दूसरे से बहुत कुछ सीखा और चूंकि वह बेहद पढ़े लिखे थे इस लिए सीखने की गति भी काफी तेज़ थे। अलबत्ता इस तेज़ी में उनकी शिक्षा के साथ साथ , उनकी भावना और देश व धर्म प्रेम भी प्रभावी था।

 

हुवैज़ा युद्ध के बाद से सेना और जन सेना के मध्य संपर्क अधिक मज़बूत हुआ। हुवैज़ा युद्ध में क्रांतिकारी बल के अनुभव ने युद्ध में उनकी उपयोगिता को सिद्ध कर दिया और इस प्रकार से इस सेना के विकास का माहौल तैयार हुआ और फिर इस बल को उसका सही स्थान मिल गया। आईआरजीसी के जवानों  ने बड़ी तेज़ी के साथ आवश्यक अनुभव प्राप्त किया और पहले सेना के साथ संयुक्त और फिर अकेले ही बड़े बड़े सैन्य अभियान की योजना बनायी और उन्हें सफल बनाया। ईरान में सेना और आईआरजीसी के मध्य मोर्चे पर सहयोग और संबंध भी हुवैज़ा युद्ध से प्रभावित बताया जाता है। बनी सद्र की कमान में और हुवैज़ा युद्ध  में सेना व आईआरजीसी के मध्य सहयोग के कटु अनुभव के बाद यह दोनों बल एक दूसरे से अलग हो गये और क्रांति संरक्षक बल, अकेले ही सैन्य अभियान तैयार करने और उसे लागू करने  पर ध्यान देने लगा। क्रांति संरक्षक बल के कमांडरों ने यह समझ लिया था कि हुवैज़ा युद्ध की भांति अभियान तैयार करना और बिना समन्वय के संयुक्त कार्यवाही के बहुत से नकारात्मक प्रभाव हैं। इस आधार पर आईआरजीसी ने साधन जुटाने आरंभ कर दिये ताकि वह स्वतंत्रता के साथ युद्ध में भाग ले सके। युद्ध के बाद के चरणों में भी सेना और क्रांति संरक्षक बल के मध्य सहयोग, साधरण रूप में नहीं था बल्कि ज़िम्मेदारियों के विभाजन व निर्धारण के रूप में था और सेना को या तो अलग ज़िम्मेदारी सौंपी जाती या फिर उसे क्रांति संरक्षक बल के अभियान के किसी एक हिस्से की कमान सौंप दी जाती थी। हुवैज़ा युद्ध  में पराजय की एक वजह, उसे पंपरागत रूप से लड़ना था।

हुवैज़ा युद्ध  ने ईरानी मोर्चे पर बड़े परिवर्तनों के अलावा दुश्मन के मोर्चे पर भी प्रभाव डाला था और दोनों देशों की सेनाओं ने अपनी अपनी गतिविधियों और अभियानों का जायज़ा लेना आरंभ कर दिया था। अभियान के आरंभ में इराक़ियों की पराजय ने, अधिकृत क्षेत्रों में इराक़ी सैनिकों की कमज़ोरी को पूरी तरह से स्पष्ट कर दिया था। हालांकि दूसरे दिन के हमले में इराक़ी सैनिक, ईरानी सैनिकों को पीछे ढकेलने में सफल रहे और जिन इलाक़ों पर ईरानी सैनिकों ने क़ब्ज़ा कर लिया था उन पर दोबारा क़ब्ज़ा करने में कामयाब रहे लेकिन उनमें अधिक आगे बढ़ने की क्षमता नहीं रही थी।

 

वास्तव में दोनों ओर की सेनाएं एक निष्कर्ष पर पहुंच चुकी थीं और उसे एक प्रकार से स्वीकार भी कर चुकी थीं। इराक़ी सेना इस निष्कर्ष पर पहुंच चुकी थी कि इस्लामी गणतंत्र ईरान, बुनियादी और आक्रामक सैन्य अभियान तैयार करने और उसे व्यवहारिक बनाने की क्षमता नहीं रखता। एक इराक़ी कमांडर इस बारे में कहता है कि हम यह समझते थे कि ईरानी सैनिक, व्यापक स्पर पर सैन्य हमले की तैयारी और योजना बनाने की क्षमता नहीं रखते और इसी लिए हम अपनी पोज़ीशन पर डटे हुए थे और हमारी यह सोच, हुवैज़ा युद्ध में ईरानी सैनिकों की पराजय से विकसित हुई थी।

 

इराक़ी कमांडर की इस बात के साथ यह एक वास्तविकता है कि इराक़ी सैनिकों में आगे बढ़ने की भी क्षमता नहीं थी भले ही इस चरण में वह रक्षात्मक पोज़ीशन में नहीं थे किंतु आक्रामक भी नहीं थे और कोई असाधारण कारनामा भी नहीं कर पाए इस अर्थ में कि इराक़ी सैनिक, अपनी आरंभिक विजय का दायरा, बड़ा नहीं कर पाए। इस प्रकार से सद्दाम की सरकार ने सीमित सैन्य कार्यवाहियों के साथ ही साथ, अपनी सफलताओं को, एक विजयी संधि में बदलने का प्रयास आरंभ कर दिया था किंतु इसके साथ ही उसने ईरान के साथ एक थका देने वाले दीर्घकालिक युद्ध और ईरान के अधिकृत क्षेत्रों पर क़ब्ज़ा बनाए रखने पर अपनी तत्परता की घोषणा कर दी और व्यवहारिक रूप से भी उसकी तैयारियां आंरभ कर दी थी।

इस तरह से हम देखते हैं कि हुवैज़ा युद्ध तीन आयामों से महत्वपूर्ण और प्रभावशाली रहा । इस युद्ध ने इस्लामी गणतंत्र ईरान की सेना में बड़ा बदलाव किया, राजनीतिक ढांचे पर प्रभाव डाला और मोर्चे पर उपस्थित इराकी सेना की रणनीति को प्रभावित कर दिया। हुवैज़ा युद्ध के परिणाम में क्लासिक और बक्तरबंद वाहनों द्वारा युद्ध की समस्याएं पूरी तरह से उजागर हो गयीं जिसके बाद जनता की शक्ति का प्रयोग करते हुए क्रांति संरक्षक बल शक्तिशाली हो गया और उसने अधिक लोगों की भरती करके और साधन जुटा कर एक स्वाधीन सेना होने की ओर महत्वपूर्ण क़दम बढ़ाया और ईरान इराक़ युद्ध में अधिक बड़ी ज़िम्मेदारियां निभाना आरंभ कर दिया। यह सब कुछ हुवैज़ा युद्ध के परिणाम में संभव हो सका। (Q.A.)

 

 

 

 

टैग्स