Jul १५, २०२१ १६:५९ Asia/Kolkata
  •  शौर्यगाथा 41ः फ़ाओ प्रायद्वीप किस तरह ईरानी फ़ोर्सेज़ के हाथ से निकल गया?

आईआरजीसी फ़ोर्स के तत्कालीन कमांडर मोहसिन रेज़ाई ने जब जंग ख़त्म होने में कुछ महीने बचे थे तो क्या कहा था?

फ़ाओ के पतन के कारण को अगर एक जुमले में कहना हो तो यह कहा जाएगा कि इराक़ की बासी सेना का मानव बल और सैन्य साज़ो सामान की नज़र से बहुत ज़्यादा मज़बूत होना, साथ में पूरब और पश्चिम की दो बड़ी शक्तियों की ओर से बहुआयामी समर्थन मिलना और इराक़ी सेना की रणनीति में रक्षात्मक रूप से आक्रामक रूप में बदलाव था।

ईरानी कमांडर, सद्दाम शासन की अपने फ़ौजियों को तादाद और सैन्य साज़ो सामान से मज़बूत बनाने की कोशिशों से अवगत थे लेकिन ज़रूरी सैन्य ऑप्रेशन की वजह से ईरानी सेना के एक भाग को पश्चिमोत्तर में तैनात करना पड़ा।

आईआरजीसी फ़ोर्स के तत्कालीन कमांडर मोहसिन रेज़ाई ने जब जंग ख़त्म होने में कुछ महीने बचे थे तो कहा थाः “मौजूदा स्थिति में जब रंगरूट की कमी है, बजट की मुश्किल, आईआरजीसी की डिफ़ेन्स लाइन की बुरी तरह नाकामी, सिपाह की ज़िम्मेदारियों का उसके संगठनात्मक रूप के अनुकूल न होने और अन्य तत्वों के मद्देनज़र डिफ़ेन्स लाइन के संतोषजनक हालत में पहुंचने में एक साल लगेगा और इस दौरान हम संभवतः दो से तीन भारी नुक़सान उठाएंगे।”

फ़ाओ के पतन की वजह से टीकाकार इस क्षेत्र में इराक़ की बासी सेना की श्रेष्ठता के कारण की समीक्षा में लग गए। इराक़ की बासी सेना के अचानक हमले से कुछ पश्चिमी अधिकारी और टीकाकार हैरत में थे। क्योंकि उस वक़्त तक उन्हें लग रहा था कि इराक़ अपनी रक्षात्मक मुद्रा में ही रहेगा। रणनीति में हुए इस बदलाव से पता चला कि अमरीका, पूर्व सोवियत संघ और फ़्रांस सलाहकार के तौर पर नहीं, बल्कि इराक़ के प्रेज़िडेन्शस गार्ड्स को दोबारा संगठित कर रहे थे जिनकी वजह से स्थिति में बदलाव आया था।

इराक़ की बासी सेना का फ़ाओ को फिर से अपने हाथ में लेना, इस सेना की रणनैतिक पोज़ीशन के बेहतर होने का कारण बना। इस स्थिति के पैदा होने से नए विचार सामने आए। इस अर्थ में कि मौजूदा संतुलन में जिसमें ईरान आक्रामक मुद्रा में और इराक़ रक्षात्मक व कमज़ोर मुद्रा में था, बदलाव आए। इसी तरह पिछली सोच भी ख़त्म हो गयी जिसमें इराक़ी सेना को ज़रूरी मनोबल व कौशल से ख़ाली माना जा रहा था। इसी विचार के आधार पर इराक़ के प्रेज़िडेन्शल गार्ड्स फ़ोर्स के पूर्व कमांडर ने कहा थाः “फ़ाओ शहर की आज़ादी से जंग का भविष्य बदल जाएगा।”                          

इराक़ के रक्षात्मक मुद्रा से आक्रामक मुद्रा में आने के मद्देनज़र ईरान की सैन्य रणनीति में बदलाव लाने के लिए वक़्त की ज़रूरत थी ताकि वह बासी सेना के एक के बाद एक हमले का मुक़ाबला कर सके। इसके अलावा फ़ाओ के पतन से ईरान को मानसिक नज़र से इतना भारी नुक़सान पहुंचा जिसकी भरपाई आसानी से मुमकिन नहीं थी। फ़ाओ के पतन के बाद जंग के मैदान और राजनैतिक मंच पर आए बदलाव के मद्देनज़र, जंग के मुख्य कमांडर श्री हाशेमी रफ़सन्जानी ने जंग की प्रक्रिया की समीक्षा में कहा थाः “अब आगे से वक़्त हमारे हित में नहीं होगा।”

भूतपूर्व अमरीकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर के ईरान के मामलों में सलाहकार गैरी सिक का ईरान के रवैये में बद्लाव और अमरीका के जंग को ख़त्म कराने के लिए तैयार होने के बारे में मानना थाः “अगर ईरान को लगेगा कि जंग का जारी रहना क्रान्ति के लक्ष्य और इस्लामी हुकूमत के बाक़ी रहने के लिए ख़तरनाक होगा तो वह किसी न किसी तरह इस हालत से निकलने की कोशिश करेगा।” ऐसी स्थिति में जब इराक़ी सेना के ईरानी फ़ोर्सेज़ के मोर्चों पर हमले जारी थे, ईरानी अधिकारियों के लिए सबसे अहम विषय इराक़ी सेना के हमले को रोकना था। इस बात की संभावना थी कि इराक़, जंग के आग़ाज़ की तरह फिर न हमले शुरू कर दे। दूसरी ओर ईरान, सैन्य हार के दुष्परिणाम को कंट्रोल करने की कोशिश में था।

उस वक़्त इस्लामी गणतंत्र ईरान के अधिकारियों के सामने यह बात ज़ाहिर हो चुकी थी कि ईरान की सैन्य ताक़त व आर्थिक क्षमता, जंग को सैन्य मार्ग से ख़त्म कराने के लिए काफ़ी नहीं है, बल्कि अगर राजनैतिक तरीक़े से इराक़ के सैन्य हमले को न रोका गया, मुमकिन है इराक़ अपनी शर्तें ईरान पर थोप दे।

दूसरी ओर तत्कालीन प्रधान मंत्री ने इस्लामी क्रान्ति के संस्थापक स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी रह .के नाम ख़त में लिखा था कि हम जंग का ख़र्च देने की पोज़ीशन में नहीं हैं। आईआरजीसी के कमांडर ने भी इमाम ख़ुमैनी के नाम ख़त में लिखा थाः अब जबकि अमरीका सामने आ गया है, अगर जंग को जारी रखना है तो बड़े पैमाने पर मदद की ज़रूरत है। आईआरजीसी के कमांडर का ख़त देश के अधिकारियों के लिए दस्तावेज़ साबित हुआ कि उनकी ज़बान से, जो जंग को निर्णायक जीत तक जारी रखना चाहते थे, जंग के मोर्चे की वास्तविकता को इमाम ख़ुमैनी के सामने पेश करें जो सभी फ़ोर्सेज़ के कमान्डर थे। ऐसी सच्चाई को साफ़ तौर पर बयान करने के लिए फ़ैसला लेने की ज़रूरत थी। बहरहाल उक्त ख़त बाक़ी ख़तों के साथ जिसे तत्कालीन सरकार के अधिकारियों ने देश की आर्थिक व सामाजिक क्षमता के बारे में लिखा था, इमाम ख़ुमैनी की सेवा में पहुंचाया गया।               

इससे पहले अमरीकी कुवैत के तेल टैंकरों को स्कॉर्ट करके और सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव 598 पारित करवा कर पहल को अपने हाथ में लेने और जंग को ख़त्म कराने की पृष्ठिभूमि बनाने की कोशिश में थे। अमरीका के सामने सबसे बड़ी चुनौती, ईरान का प्रतिरोध और उसके निंयत्रण में क़ब्ज़े वाले इलाक़े थे। इसी वरीयता की वजह से ईरान चाहता था कि सद्दाम शासन को हमलावर के तौर पर माना जाए लेकिन अमरीका इस मांग को मनवाने से पीछे हट गया। अमरीकियों ने इराक़ के पूर्व तानाशाह सद्दाम की पूरी तरह मदद करने और मैक्फ़ार्लिन प्रकरण के बाद, ईरान पर लगातार दबाव बनाया।

फ़ाओ के पतन से वास्तव में रास्ते में मौजूद रुकावटें कुछ हद तक कम हो गयीं। इसी वजह से अमरीकी उपविदेश मंत्री रिचर्ड मर्फ़ी ने फ़ाओ के पतन और जंग के ख़त्म होने की पृष्ठिभूमि मुहैया होने की ख़ुशी में कहा थाः “पिछले महीने फ़ाओ प्रायद्वीप पर इराक़ की जीत से कूटनैतिक चैनल से आगे बढ़ने की नई संभावना पैदा होगी।”

जॉर्ज टाउन यूनिवर्सिटी के अंतर्राष्ट्रीय व रणनैतिक अध्ययन सेंटर में प्रोफ़ेसर शिरीन हंटर ने वॉयस ऑफ़ अमरीका से इंटरव्यू में अमरीकी की नीति के बारे में कहा थाः “मैक्फ़ार्लिन प्रकरण के बाद, अमरीका ने पूरी तरह इराक़ का पक्ष लेने की नीति अपनायी है। उस वक़्त से अमरीका की नीति ईरान पर लगातार दबाव बढ़ाने की की रही है।”

ईरान नए हालात में एक ओर जंग की प्रक्रिया और अमरीका की हस्तक्षेपपूर्ण नीतियों की ओर से चिंतित था तो दूसरी ओर जंग को ख़त्म कराने के लिए इस सच्चाई को पहचनवाने की कोशिश में था कि इराक़ मुख्य रूप से हमलावर था और ईरान हमले का शिकार हुआ। अंतर्राष्ट्रीय हल्क़ों को इस सच्चाई को पहचनवाना ईरान के लिए बहुत अहम था। लेकिन अमरीकी रणनैतिककारों की नज़र में ऐसी किसी स्थिति का पैदा होना जिससे इराक़ की सरकार का पतन हो, फ़ार्स की खाड़ी में संतुलन बिगड़ जाएगा और क्षेत्र में अमरीका के दोस्त व घटकों के लिए ख़तरा होगा जिसके नतीजे में पश्चिम के रणनैतिक हित ख़तरे में पड़ जाएंगे।

फ़ाओ के पतन और जंग के मैदान में ईरान की वरीयता के हाथ से जाने के नतीजे में, सद्दाम शासन को हमलावर के तौर पर पहचनवाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ईरान के राजनैतिक हालात भी बदल गए। सैन्य व राजनैतिक मंच पर नई घटनाओं के मद्देनज़र, श्री हाशेमी रफ़सन्जानी ने इतालवी टीवी चैनल से इंटरव्यू में कहा थाः “अगर हमें लगेगा कि सुलह करना बेहतर है तो हम इस नीति को क़ुबूल करेंगे।”

ईरान के राजनैतिक व जंग के मैदान के बदलते हालात और जंग जारी रखने के लिए आर्थिक मुश्किलों के मद्देनज़र इस्लामी क्रान्ति के संस्थापक स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सैन्य मार्ग जंग की मुश्किल के हल का मुनासिब रास्ता नहीं है। इसी वजह से देश व क्रान्ति के हितों की रक्षा के लिए यूएन सुरक्षा परिषद का प्रस्ताव 598 क़ुबूल कर लिया।

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