Aug ०३, २०१९ १६:३५ Asia/Kolkata

हर देश में पुलिस अपने दायित्वों के आधार पर सार्वजिक क़ानून व्यवस्था बनाए रखने, नागरिकों की रक्षा और निरंकुशता से संघर्ष की ज़िम्मेदारी अदा करती है जबकि अमरीकी पुलिस स्वयं ही देश की क़ानून व्यवस्था को बिगाड़ने और समाज में भय व डर का वातावरण बनाने का कारण है।

अलबत्ता अमरीका में पुलिसकर्मियों के व्यवहार और उनके कुकर्मों के ऐतिहासिक दस्तावेज़ों और साक्ष्यों से पता चलता है कि इस देश में पुलिस की ओर से हिंसा का मामला कोई नया मामला नहीं है। इस देश में हमेशा ही कुछ पुलिसकर्मी, हिंसक बर्ताव करते हैं और क़ानून से हटकर कार्यवाही करते हैं। यह हालत ऐसी स्थिति में है कि आजकल दुनिया के हर व्यक्ति के पास स्मार्ट फ़ोन, कैमरे और डिजिटल डिवाइस होती है जिसे अमरीकी पुलिस का हिंसक बर्ताव लोगों के सामने पहले से अधिक ही गया है।

अमरीकी पुलिस के बर्ताव में हिंसा की जड़, अमरीकी समाज में पाई जाने वाली हिंसा और हिंसक प्रवृत्ति में देखी जा सकेती है। दूसरे शब्दों में समाज में हिंसा के बढ़ते हुए स्तर तथा अमरीकी नागरिकों के हथियारों से लैस होने की वजह से पुलिस भी संदिग्धों से निपटने तथा अपनी जान की सुरक्षा के लिए बहुत जल्द ही हथियार उठा लेती है और हर व्यक्ति को जैसे ही उसे ख़तरे का आभास होता है, गोली मार देती है या फ़ौरन ही मार पीट पर उतारू हो जाती है।

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि अमरीकी समाज हिंसा में पूरी तरह फंस चुका है वहां पर ग़ुडों की हिंसा के कारण पुलिस की हिंसा में वृद्धि होती है या पुलिस के हिंसक बर्ताव की वजह से ग़ुडें मवाली अपने बर्तावों को और अधिक हिंस कर लेते हैं। इस बीच कुछ आम लोग हैं जो कभी ग़ुडों व मवाली, मानसिक रोगियों और क्रोधित सशस्त्र लोगों और पुलिस के बर्ताव के कारण चक्की में पिसते रहते हैं और उनका जीवन कठिन से कठिन होता जाता है।

अमरीका में पुलिसिया हिंसा पर नज़र रखने वाले केन्द्र मैपिंग पुलिस वाइलेंस (Mapping Police Violence) ने जुलाई 2018 में अपनी रिपोर्ट में कहा था कि वर्ष 2017 में अमरीकी पुलिस ने 1147 लोगों को मौत के घाट उतार दिया। इस केन्द्र के अध्ययन के अनुसार 48 लोग वे अधिकारी थे जो वर्ष 2017 में इस देश के नागरिकों के विरुद्ध हिंसा में लिप्त पाए गए थे। इससे पहले उन्होंने कम से कम एक व्यक्ति की हत्या की थी। इनमें 12 लोग ऐसे थे जिनकी फ़ाइल में इस प्रकार की हत्या का मामला जुड़ा हुआ है।

 

अमरीका में पुलिस की हिंसा के विरुद्ध प्रदर्शनों का आहवान करने वाले अब्राहम मार्क्ज़ कहते हैं कि इस आंकड़े को देखने के बाद बहुत दुख होता है। वर्ष 2017 में पुलिसकर्मियों के प्रशिक्षण में गोली चलाने की ट्रेनिंग में सात गुना टाइम दिया गया। यह परिस्थिति, देश के हित में नहीं है, वे हमेशा लोगों का पीछा करते तथा मज़दूरों और श्रमिक वर्ग को परेशान करने तथा समाज के अल्पसंख्यकों को यातनाएं देने के प्रयास में रहते हैं किन्तु तनाव दूर करना ऐसा विषय नहीं है जिसके हल के लिए प्रयास किए जाएं। अलबत्ता वर्षों तक क़ानून को हाथ में लेने वाले पुलिसकर्मियों को आसानी से छोड़ देना और वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा उनके विरुद्ध सख़्त कार्यवाही न किया जाना ताकि पुलिस विभाग में काम करने वाले एक प्रकार से स्वयं को सुरक्षित समझ सकें और बिना अदालती झंझट और डर व ख़ौफ़ के समाज में हिंसा का माहौल गर्म रखें। कुछ विवादित मामलों में नागरिकों के साथ पुलिस के हिंसक बर्ताव से पता चलता है कि इनमें से कुछ पुलिसकर्मियों पर पहले सही मुक़द्दमे दर्ज थे और उनके विरुद्ध स्वयं थानों और पुलिस चौकियों में मामले विचाराधीन रहे हैं।

वर्ष 1990 में एक संस्था ने जिसके अधीन कई छोटे छोटे संगठन काम करते हैं, पुलिस के हिंसक बर्ताव पर नज़र रखने के लिए कॉप वॉच के नाम से कैलीफ़ोर्निया के ब्रोक्ली में एक केन्द्र बनाया है। इस संस्था ने अपनी गतिविधियों के दौरान पुलिस के कई हिंसक बर्ताव को दुनिया के सामने पेश किया।

पुलिस की हिंसक कार्यवाहियों में नवम्बर 2006 में जारी होने वाला वह वीडियो था जिसमें विलियम कार्डनेस नामक व्यक्ति पर पुलिस वाले ट्ट पड़े थे, उस युवक पर आरोप था कि उसने चोरी की है, हालिया वर्षों में आम नागरिकों के विरुद्ध पुलिस के हिंसक बर्ताव में बहुत अधिक वृद्धि हुई है जिसके बाद अमरीका के विभिन्न शहरों में व्यापक स्तर पर प्रदर्शन फूट पड़े और लोगों ने पुलिसिया कार्यवाही के विरुद्ध नारे लगाए औज्ञ प्रदर्शन किए। जनता के व्यापक और विस्तृत प्रदर्शनों के बावजूद पुलिस की हिंसक प्रवृत्ति में न तो कमी आई है और न ही अमरीकी पुलिस का हिंसक रवैया बदला है।

 

इसी के साथ अमरीका में नस्लभेद के इतिहास के दृष्टिगत, अब भी बहुत से गोरे और नस्लभेदी न्यायिक संस्थाएं पुलिस के हिंसक बर्ताव का औचित्य पेश करती हैं और उनके दृष्टिको श्यामवर्ण और अन्य वर्ण के लोगों से बिल्कुल ही अलग हैं।

वर्ष 2000 में होने वाले एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि अमरीका में बहुत से गोरे लोग, अल्पसंख्यकों के विरुद्ध पुलिस के हिंसक बर्ताव के बारे में सकारात्मक नज़रिया रखते हैं क्योंकि उनका मानना है कि देश के 48 प्रतिशत काले व्यक्तिगत रूप से अपराधी हैं।

इस तरह के गोरे लोग पुलिस की हिंसक कार्यवाही की हर प्रकार की आलोचना को देश के राष्ट्रीय हित के विरुद्ध समझते हैं। इसके मुक़ाबले में अमरीकी- अफ़्रीक़ी और अमरीकी मूल के स्पैनिश हैं जो अमरीकी पुलिस की हिंसा को देश पर गोरे लोगों के वर्चस्व जमाने या वर्गभेद बनाए रखने का साधन समझते हैं। यही कारण है कि सामान्य रूप से पुलिस की किसी भी हिंसक कार्यवाही में जब उनकी जाति का कोई बंदा मारा जाता है तो वे तुरंत प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं।

अलबत्ता अमरीका में पुलिस के अभद्र बर्ताव, अन्याय और हिंसा के बारे में अधिकतर मीडिया का ध्यान कालों की तरफ़ ही आता है जबकि देखा जाए कि इन हिंसा में अमरीका के अल्पसंख्यक, लैटिन मूल के अमरीकी नागरिक अधिकतर नुक़सान उठाते हैं और परेशानियों का सामना करते हैं।

प्रत्ये दशा में इस वास्तविकता की अनदेखी नहीं की जा सकती कि अमरीका में अधिकतर पुलिसिया हिंसा का शिकार काले ही जाता हैं। काले लोगों को पिछली शताब्दी में ज़बरदस्ती अफ़्रीक़ा से अमरीका लाया गया था। उन्हें दास के रूप में प्रयोग किया जाता था। गोरे लोगों के खेतों में उनको दासों की तरह इस्तेमाल किया जाता है। उनके पा जो कुछ होता है उन पर मालिकों का हक़ होता है। अमरीकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के काल में दास क़ानून को समाप्त किए जाने के बावजदू जो काले और गोरे लोगों के बीच लंबे संघर्ष का परिणाम है अभी इस संबंध में कोई ठोस कार्यवाही नहीं की गयी है।

28 अगस्त 1963 को अफ्रीकी-अमरीकियों के नागरिक अधिकारों के लिए हो रहे आंदोलन के दौरान मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने ऐतिहासिक 'आई हैव अ ड्रीम' भाषण दिया था. इस भाषण में उन्होंने कहा था कि वह ऐसे अमरीका का सपना देखते हैं, जिसमें इंसान-इंसान के बीच भेद न किया जाए।

मार्टिन लूथर किंग जूनियर - अफ्रीकी-अमरीकियों के साथ नस्ल के आधार पर होने वाले भेदभाव के ख़िलाफ़ अहिंसक आंदोलन का नेतृत्व करने वाली इस शख़्सियत के जन्मदिन पर अमरीका में हर साल 15 जनवरी को 'मार्टिन लूथर किंग जूनियर डे' मनाया जाता है।

अमरीका में नस्लवाद की शुरुआत औपनिवेशिक दौर से हुई थी। गोरे अमरीकियों के अलावा सभी के साथ भेदभाव होता रहा. 17वीं सदी की शुरुआत में अफ़्रीका से लोगों को ग़ुलाम बनाकर अमरीका लाने का सिलसिला शुरू हुआ और अगले लगभग दो सौ सालों तक वस्तुओं की तरह उनकी खरीद-फरोख्त हुई।

19वीं सदी के मध्य तक हवा बदलने लगी और गोरे लोग भी बड़ी संख्या में दास प्रथा के ख़िलाफ़ आवाज उठाने लगे। 1861 में गृहयुद्ध छिड़ने की यह भी वजह थी। 1865 में राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने युद्ध के दौरान ही दास प्रथा को ख़त्म किया।

 

इसके बाद फिर लगातार संविधान में संशोधन होते रहे और धीरे-धीरे अफ्रीकी-अमरीकियों को उनके अधिकार दिए गए, लेकिन 20वीं सदी तक संविधान के प्रावधानों की अनदेखी होती रही मगर इस बीच अफ्रीकी-अमरीकियों का संघर्ष भी जारी रहा।

यदि देखा जाए तो अमरीका में काले दूसरे दर्जे के नागरिक समझे जाते हैं। बीसवीं शताब्दी में 76 के दश्क में कालों के संघर्ष के कारण अमरीका के नागरिका क़ानून में परिवर्तन हुआ जिसके अंतर्गत कालों को मताधिकार, पलायन, नागरिकता और घर ख़रीदने जैसे मूल अधिकारों से वंचित रखा गया था, क़ानून तो बने ये किन्तु अब जब कि दुनिया 21वीं शताब्दी का दूसरा दश्क समाप्त होते देख रही है, अमरीका में कालों के विरुद्ध नस्ली भेदभाव और जातिवाद समाप्त नहीं हुआ बल्कि इसकी झलक अमरीकी पुलिस में भलिभांति दिखाई देती है।

कालों के साथ साथ अमरीका में लैटिन अमरीकी मूल के अमरीकी नागरिकों को भी भेदभाव का सामना रहा है और उनको पुलिस के व्यापक हिंसक बर्ताव का सामना करना पड़ा है। यह वही लोग हैं जो सामान्य रूप से अमरीका में अच्छी नौकरी और अच्छे जीवन की तलाश में इस देश का रुख़ करते हैं। इस स्थिति का परिणाम यह निकला कि अमरीकी समाज में निरंकुशता बढ़ती गयी और सामाजिक दूरियां बढ़ती चली गयीं।

बहरहाल श्यामवर्ण और अल्पसंख्यकों के साथ पुलिस का बर्बरतापूर्ण और हिंसक बर्ताव का विरोध तो होता रहता है किन्तु अमरीकी सरकार कान में तेल डाले सबकी अनसुनी करती रही है। क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तथा मानवाधिकार संस्थाओं की ओर से उठने वाली आवाज़ पर भी कोई कार्यवाही नहीं होती।

टैग्स