Sep ०२, २०१९ १४:५७ Asia/Kolkata

हमने बताया था कि तालिब आमुली लगभग 991 हिजरी क़मरी में आमुल में पैदा हुए और इसी शहर में उन्होंने अपने समय की शिक्षा व कलाएं सीखीं।

इसी तरह उन्होंने इसी शहर में रणकौशल और घुड़सवारी भी सीखी। तालिब आमुली ने 1010 हिजरी क़मरी में आमुल को अलविदा कहा और काशान चले गए। उन्होंने काशान और इस्फ़हान में चार साल गुज़ारे। कुछ समीक्षकों के अनुसार, तालिब की बाद की सफलताओं का श्रेय उस ज्ञान को जाता है जो उन्होंने इस दौरान हासिल किया था। इसके बाद तालिब भारत के सफ़र पर निकले। उन्होंने कुछ समय मर्व में बिताया और लगभग 25 साल की उम्र में भारत गए। उन्होंने कुछ समय भारत के कई शहरों में किसी संरक्षक की तलाश में गुज़ारे। अंततः बहुत उतार चढ़ाव के बाद वह मुग़ल बादशाह के मंत्री एतेमादुद्दौला का विश्वास जीतने और जहांगीर के दरबार में स्थान बनाने में सफल हुए और वहां उन्हें मलिकुश शोअरा अर्थात शायरों के बादशाह का ख़िताब मिला। तालिब आमुली अपने देहान्त के समय अर्थात 1036 हिजरी क़मरी तक मलिकुश शोअरा के पद पर आसीन रहे।

तालिब आमुली मुग़ल बादशाह जहांगीर की मौत से एक साल पहले वर्ष 1036 हिजरी में 45 साल की उम्र में इस संसार से चल बसे। जिस समय उनका देहान्त हुआ वे अपनी शायरी की चरम सीमा पर थे।

तालिब आमुली उन शायरों में है जिन्होंने सफ़वी शासन काल में प्रचलित शायरी की दो शैलियों के बीच जीवन गुज़ारा है। एक इस्फ़हानी शैली और दूसरी भारतीय शैली। तालिब की शैली इन दोनों शैलियों के बीच की है। तालिब आमुली की शायरी की अहमियत इस बात में है कि उनकी शायरी से दोनों शैलियों के शेर को समझने में मदद मिलती है।                

ईरान में दसवीं शताब्दी हिजरी के मशहूर शायर उर्फ़ी शीराज़ी शायरी में रूपक अलंकार का इस्तेमाल शुरु करने वाले शायर हैं, जिसे बाद में ज़हूरी तर्शीज़ी ने जारी रखा। तालिब आमुली की शायरी में इस शैली में और विविधता आयी। यहां तक कि भारतीय शैली में फ़ारसी ग़ज़ल की ज़बान को समीक्षकों ने तालिब आमुली की ग़ज़ल की ज़बान कहा है जो अधिक जटिल व काल्पनिक हो गयी है।

तालिब आमुली के शेर की विशेषताओं की भाषा और अर्थ दो दृष्टि से समीक्षा कर सकते हैं।

तालिब आमुली के शेरों की ज़बान आम लोगों की ज़बान है। वे किसी शब्द का बारंबार इस्तेमाल करते हैं। फ़ारसी ग़ज़लों में आम लोगों की ज़बान बाबा फ़ुग़ानी के दौर में व्यापक रूप से प्रचलित हुयी और भारतीय शैली में शेर कहने वाले शायरों ने काफ़ी हद तक इसे इस्तेमाल किया है। यह विशेषता भारतीय शैली के शेरों में इतना प्रबल रूप से दिखाई देती है कि इसे इस दौर की शायरी की मूल व आम पृष्ठिभूमि समझा जाता है। तालिब के दीवान के यादगार के तौर पर बचे शेरों को पढ़ने से पता चलता है कि वे अपने से पहले के शायरों की तुलना में गलियों व बाज़ारों की ज़बान में अधिक रूचि रखते थे। साहित्यकारों की नज़र में शेर की पहली पंक्ति में आम बोल चाल में प्रयोग होने वाले शब्दों का इस्तेमाल और कभी आम लोगों की बातों का आम अंदाज़ में शेर में इस्तेमाल यह दर्शाता है कि वह आम लोगों की ज़बान को विशेष रूप से अहमयित देते थे।

तालिब आमुली के शेरों में आम बोल चाल में इस्तेमाल होने वाले संयुक्त शब्द, क्रिया, रूपक और मुहावरे का इस्तेमाल मिलता है। तालिब की कोशिश रही है कि वह अपने शेर में ज़बान की उन सभी संभावनाओं का इस्तेमाल करें जिससे आम लोगों की संस्कृति का प्रतिबंबिन हो।

तालिब के शेरों की एक विशेषता कुछ शब्दों की बारंबार पुनरावृत्ति है। समीक्षकों ने बार बार आने वाले इन शब्दों को "विशेष शब्दों के मोटिफ़" कहा है। प्रधान विचार को व्यक्त करने वाले ये शाब्दिक मोटिफ़ तालिब के दौर की शायरी में मौजूद शून्य को भरने के लिए है। ये शून्य प्रायः मूल विचार के न होने के कारण हैं कि जिसके इर्द गिर्द कवि की विशेष भाषा और उसके बिखरे हुए विचार घूमते हैं। इन विशेष शब्दों से शायर की भाषा की शुद्धता और विशेष विचारधारा तय होती है और उसकी शैली का औचित्य पेश होता है।

तालिब के शेरों में प्रयुक्त मोटिफ़ सिर्फ़ शाब्दिक आयाम रखते हैं। ये मोटिफ़ वर्णन की दृष्टि से प्रभावी नहीं हैं।

तालिब के शेरों और ग़ज़लों में जिन शब्दों का बारंबार इस्तेमाल हुआ है उनमें से एक "शख़्स" शब्द का प्रयोग है। तालिब इस शब्द को दूसरे शब्दों के संयोग से जटिल अलंकार बनाते हैं।

व्यवसाय, रोना, पागलपन, घाव व मरहम और शिकवा शिकायत, तालिब आमुली की ग़ज़लों में बारंबार आने वाले मोटिफ़ हैं।         

तालिब ने कुछ प्रत्यय का विशेष रूप से इस्तेमाल किया है जिससे उनकी ग़ज़ल की शोभा बढ़ गयी है। कुछ प्रत्यय तो ऐसे हैं जिसे सिर्फ़ उन्होंने इस्तेमाल किए हैं। तालिब आमुली से पहले उर्फ़ी शीराज़ी ने "ज़ार", "नाक" और "गूने" प्रत्यय से मिलाकर शब्द बनाने शुरु किए लेकिन फ़ारसी भाषा के प्रत्यय से शब्द निर्माण तालिब के शेरों में बहुत मिलते हैं। मिसाल के तौर पर तालिब ने कुछ प्रत्यय से जो शब्द बनाने हैं जैसे ग़ज़ालाने, ग़मिस्तान, हसरतज़ार और करिश्मेसाज़ ने उनकी ज़बान को ताज़ा कर दिया है।

तालिब की ग़ज़लों में समास का बहुत अधिक इस्तेमाल है। उन्होंने, संयुक्त शब्दों, संबंधवाचक और विशेषणात्मक शब्दों का बहुत इस्तेमाल किया है।

फ़ारसी भाषा की समास बनाने में आश्चर्यजनक क्षमता की वजह से शायर शुरु से ही नए शब्द बनाने और चित्रण करने के लिए फ़ारसी की इस क्षमता का इस्तेमाल करते आए हैं। फ़ारसी शायरी में बदलाव की प्रक्रिया की समीक्षा में हम यह पाते हैं कि समास का इस्तेमाल बढ़ता रहा और ज़बान का यह रूप इस बात का कारण बना कि फ़ारसी शायरी में बदलाव की प्रक्रिया के दौरान विभिन्न तत्व वजूद में आए। जितना ज़्यादा फ़ारसी शायरी में भारतीय शैली के निकट होते हैं   उतना ही व्यापक अर्थ के लिए कम से कम शब्दों का इस्तेमाल बढ़ता जाता है। इसी तरह समुच्चय बोधक संरचना की जगह, संबंधवाचक संरचना ने ले ली है। यही चीज़ समीक्षकों की नज़र में तालिब आमुली जैसे शायर की शायरी को आकर्षक बनाती है।             

नए समास की रचना से नए शब्दों का एक परिवार वजूद में आता है। यह चीज़ ज़बान में समृद्धता लाती है। एक नए अर्थों के नेटवर्क के वजूद में आने और दूसरे नए चित्रण के नेटवर्क के वजूद में आने से। नए समास से नए अर्थ वजूद में आते हैं। तालिब आमुली की भाषा में समास का मूल्य उसके ताज़ा होने के साथ साथ उनकी पुनरावृत्ति में है।

 

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