Feb ०८, २०२० १८:२८ Asia/Kolkata
  • नया सवेराः अमरीकी महिला Emily Creek कहती हैं मुसलमान होने के बाद मुझको यह बात समझ में आई कि वास्तविक शांति, ईश्वर की निकटता में है और सांसारिक खुशी क्षणिक होती है

एक ताज़ा अमरीकी मुसलमान महिला Emily Creek एमिली क्रीक का कहना है कि निश्चित रूप से परिपूर्ण होने के लिए लंबा रास्ता तै करना पड़ता है।

 वे कहती हैं कि मुसलमान होने के बाद मुझको यह बात समझ में आई कि वास्तविक शांति, ईश्वर की निकटता में है और सांसारिक खुशी क्षणिक होती है।

एमिली क्रीक

प्रत्येक व्यक्ति के भीतर यह भावना या प्रवृत्ति पाई जाती है कि सृष्टि का अवश्य ही कोई रचयिता है।  कुछ लोग एसे होते हैं जो अपने भीतर की इस आवाज़ को सुनकर उसका सकारात्मक जवाब देते हैं।  वे लोग एकेश्वर पर भरोसा करके उसकी उपासना करते हैं।  इसके विपरीत कुछ लोग एसे भी होते हैं जो अपने भीतर की आवाज़ को नहीं सुनते और मुख्य मार्ग से भटक जाते हैं।  एक गुट उन लोगों का है जो इस बात को स्वीकार ही नहीं करते कि सृष्टि का कोई रचयिता भी है। वे समझते हैं कि  इस संसार का संचालन स्वयं ही होता है।  उनका यह भी मानना है कि इस संसार के बाद कोई संसार नहीं है और जो कुछ है वह सब यहीं पर है। अमरीकी महिला Emily Creek एमिली क्रीक उन लोगों में से हैं जिन्होंने अपने भीतर की आवाज़ को सुनकर उसका सकारात्मक जवाब दिया।

अपनी नास्तिकता या ईश्वर को न मानने के बारे में Emily Creek एमिली क्रीक कहती हैं कि मेरा जन्म तो एक कैथोलिक परिवार में हुआ था।  औपचारिक रूप में तो मैं कैथोलिक थी। मेरे माता-पिता धार्मिक नहीं थे।  मुझको "बपतिस्मा" अर्थात इसाई धर्म में कराया जाने वाला विशेष प्रकार का स्नान नहीं कराया गया था।  कहते हैं कि जिसे बपतिस्मा न कराया जाए वह औपचािरक रूप में इसाई नहीं कहलाता।  इस प्रकार कहा जा सकता है कि इस्लाम धर्म अपनाने से पहले तक मैं नास्तिक थी आस्तिक नहीं।  दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि एमिली क्रीक के माता-पिता के अधर्मी होने के कारण वह भी ईश्वर पर विश्वास पैदा नहीं कर सकी।  यह विषय सिद्ध करता है कि माता-पिता का व्यवहार किस सीमा तक उनकी संतान को प्रभावित करता है।

एमिली क्रीक के मन में भी कुछ एसे प्रश्न थे जिनके जवाब के लिए वह परेशान रहती थी। यह वे प्रश्न थे जिनके उत्तर उन लोगों के पास नहीं होते जो नास्तिक होते हैं।  इस बारे में वे कहती हैं कि वास्तविकता यह है कि मैं कोई धर्म अपनाना नहीं चाहती थी।  मैं यह सोचती थी कि मुझको किसी धर्म की कोई आवश्यकता है ही नहीं।  लेकिन कुछ बातें मुझको परेशान किया करती थीं जिनके जवाब पाने के लिए मैं बहुत उत्सुक थी।  मेरे सवाल इस प्रकार थे कि हम क्यों इस दुनिया में हैं?  जीवन का लक्ष्य क्या है?  जब हम मर जाएंगे तो क्या होगा?

 

इस्लाम इस प्रकार के बहुत से प्रश्नों के बहुत ही तार्किक उत्तर देता है।  एमिली क्रीक के पास अपने प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए समय भी था और अवसर भी।  इस संबन्ध में उनका कहना है कि उस समय मेरा इसाई धर्म से कोई संबन्ध नहीं था।  इसलिए मैंने सोचा क्यों न इस्लाम के मानने वालों से इस बारे में कुछ पूछा जाए।  वे कहती हैं कि मैने इस्लामी किताबों को पढ़ना शुरू किया।  कुछ इस्लामी किताबें पढ़ने के बाद से मुझको अपने सवालों के जवाब मिलने शुरू हो गए।  उनका कहना है कि जैसे-जैसे मुझको अपने पश्नों के उत्तर मिल रहे थे मरी जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी।  एमिली क्रीक का कहना था कि मुझको यह लगा कि इस्लाम, मेरे सवालों के जवाब देने में सक्षम है।

Emily Creek अपने मुसलमान होने के बारे में बताती हैं कि इसकी शुरूआत उस समय हुई जब मैं हाई स्कूल में थी।  वे कहती हैं कि जब मैं हाई स्कूल में थी तो उसी दौरान मेरी मुलाक़ात एक लड़की से हुई जो मुसलमान थी।  मैंने सोचा कि अपनी मुसलमान सहेली से इस्लाम के बारे में कुछ पूछूं।  उस समय तक मुझको यह मालूम था कि मुसलमान, शराब नहीं पीते और सुअर का गोश्त नहीं खाते तथा मुस्लिम महिलाएं पर्दा करती हैं।  बाद में अपनी सहपाठी के साथ मैं एक इस्लामी बुक सेंटर गई जहां से मैंने इस्लाम के बारे में एक किताब ख़रीदी।  इस किताब को पढ़ने के बाद मैंने यू-ट्यूब पर इस्लाम के बारे कुछ वीडियोज़ देखे।  फिर मैंने मुसलमानों द्वारा आयोजित की जाने वाली साप्ताहिक भेंट में भाग लेना आरंभ किया।

इस्लामोफ़ोबिया

 

यहां पर इस बात का उल्लेख आवश्यक है कि वह इंसान जो ईश्वर को ही नहीं मानता उसके लिए किसी भी धर्म का स्वीकार करना बहुत कठिन है।  वह भी अमरीका जैसे देश में जहां पर इस्लाम विरोधी दुष्प्रचार चरम पर है।  दूसरी बात यह है कि अमरीका एसा देश है जहां पर इसाई बहुसंख्यक हैं और मुसलमानों की संख्या कम है।  यही कारण है कि एमिली क्रीक ने दो से तीन वर्षों तक इस्लाम के बारे में खोज-बीन की।  एमिली क्रीक को सफलता इसलिए मिली क्योंकि इस्लाम स्वयं लोगों को इस धर्म और ईश्वर के बारे में सोच-विचार का निमंत्रण देता है।  इस्लाम पढ़ने और सोच-विचार करने को बहुत महत्व देता है और अपने मानने वालों से भी यही कहता है कि वे इस मार्ग में क़दम बढ़ाते रहें।

श्रीमती क्रीक को अब अपनी प्रवृत्ति की आवाज़ साफ-साफ सुनाई देने लगी थी।  इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि इस्लाम, मनुष्य की प्रवृत्ति के अनुरूप है।  जिस समय एमिली क्रीक, इस्लाम के बारे में खोजबीन कर रही थीं उस दौर के बारे में वे कहती हैं कि मुझको एसा लगने लगा था कि इस्लाम अपनाकर मुझको शांति मिली है।उनका कहना है कि जब मैंने इस्लाम को पढ़ना शुरू किया उस समय तक मैंने सोचा भी नहीं था कि मेरे साथ एसा होगा किंतु विचित्र ढंग से इस्लाम ने मेरे मन में स्थान बना लिया। उन्होंने पवित्र क़ुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम की जीवनी को भी पढ़ना शुरू किया।  इनको पढ़ने के बाद वे इस नतीजे पर पहुंचीं कि क़ुरआन बहुत ही महान है।  पैग़म्बरे इस्लाम का जीवन पढ़कर भी मुझको यही विश्वास हुआ।  मेरा मानना है कि हज़रत मुहम्मद, उससे भी अधिक महान हैं जितना मैं सोचती थी।  अब मुझको यक़ीन हो चला था कि इस्लाम अपनाकर मैं एक अच्छी इंसान बन सकती हूं।

किसी भी ग़ैर मुसलमान के मुसलमान होने का क्षण बहुत ही महत्वपूर्ण और रोमांचक होता है।  अपने जीवन के इस क्षण के बारे में वे कहती हैं कि मेरे घर से थोड़ी दूर पर एक मस्जिद थी।  उस मस्जिद के जो इमाम थे वे मेरे पिता के दोस्त थे।  मैं उसी मस्जिद में गई। उस क्षण का बखान मेरे लिए बहुत कठिन है।  वहां पर बहुत से लोग खड़े हुए थे जो मेरे मुंह से कलमा सुनना चाहते थे।  हालांकि मुझको पता था कि कलमें में मुझको क्या कहना है किंतु मेरी स्थिति बहुत ही विचित्र थी।  जिस समय मैं कलमा पढ़कर मुसलमान हुई उस समय मुझको एसा लगा कि मानो मेरे कांधे से बहुत बड़ा बोझ हट गया।  कलमा पढ़ने के बाद वहां पर मौजूद औरतों ने मुझको गले लगा लिया।  उस समय हम सबकी आखों में खुशी के आंसू थे।

 

इस्लाम पर गहरी आस्था के कारण मनुष्य, स्वेच्छा से उसके नियमों को मानता है और उनका पालन करता है।  इसका मुख्य कारण यह है कि उसको पता रहता है कि यह नियम ईश्वर की ओर से हैं जो निश्चित रूप से उसके लिए लाभदायक सिद्ध होंगे।  मुसलमान होने से पहले एमिली क्रीक हर वह काम करती थी जिसे वह पसंद करती थी किंतु मुसलमान होने के बाद अब वह केवल वही काम करना चाहती हैं जो ईश्वर को पसंद हो।  

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