Mar ११, २०२० २०:२४ Asia/Kolkata
  • क़ुरआनी क़िस्सेः वह बड़ी घटना जिसके बाद इस्लाम में शराब और जुए को हराम घोषित कर दिया गया!

जिन चीज़ों के प्रयोग को इस्लाम में हराम बताया गया है उनमें से एक, शराब भी है। शराब के अतिरिक्त भी कई चीज़ें हराम हैं किंतु यहां पर हम बात शराब और जुए के हराम होने के बारे में करेंगे। 

शराब एसी चीज़ है जिसे न केवल इस्लाम में बल्कि अन्य धर्मों में भी बुरा बताया गया है।  लगभग सारे ही धर्मों और समाजों में शराब को बुरी नज़र से देखा जाता है।  बहुत से राष्ट्रों में शराब को एक सामाजिक बुराई के रूप में देखा जाता है।  शराब पीने के नुक़सान कभी-कभी केवल पीने वाले को ही नहीं बल्कि समाज को भी अपने चपेट में लेते हैं।  शराब के प्रयोग से जहां स्वास्थ्य ख़राब होता है वहीं बहुत से अवसरों पर इसका पीने वाला मानसिक समस्याओं से भी ग्रस्त दिखाई देता है।  शराब की ही भांति जुए को भी इस्लाम में हराम किया गया है जो एक अन्य सामाजिक बुराई है।

 

 सूरे बक़रा की आयत संखया 219 के पहले भाग में शराब और जुए के बारे में ईश्वर कहता है कि (हे पैग़म्बर!) वे तुमसे शराब और जुए के बारे में पूछते हैं। कह दो कि इन दोनों में बड़ा पाप है और लोगों के लिए (यद्यपि) कुछ भौतिक लाभ भी हैं परन्तु इनका पाप, इनके लाभ से कही बढ़कर है। एक बार कुछ मुसलमानों ने पैग़म्बरे इस्लाम से यह जानना चाहा कि शराब के बारे में इस्लाम का क्या आदेश है।  पैग़म्बरे इस्लाम ने ईश्वरीय सन्देश "वहि" के आधार पर उनका उत्तर देते हुए सूरे बक़रा की इस आयत को पढ़कर सुनाया।

इस्लाम से पूर्व अरबों की बुरी आदत शराब पीना और जुआ खेलना थी,  इसी कारण कुछ मुसलमानों ने शराब व जुए के बारे में पैग़म्बर से प्रश्न किया।  पैग़म्बर ने ईश्वरीय संदेश के आधार पर उत्तर दिया कि यद्यपि अंगूर लगाने तथा उससे शराब बनाकर बेचने में तुममें से कुछ लोगों के लिए आर्थिक लाभ है या जुए में एक पक्ष को काफ़ी पैसा मिल जाता है, परन्तु इन दोनों की बुराई इनके विदित फ़ायदों से कहीं बढ़कर है अतः तुम इन्हें छोड़ दो।  इसीलिए कहा गया है कि किसी कार्य का चयन करते समय मनुष्य को अपनी आत्मा तथा मन के लिए हानिकारक कार्य को किसी भी स्थिति में नहीं चुनना चाहिए चाहे उसमें कितनी ही अधिक आय क्यों न हो। जैसाकि शराब बनाने और बेचने तथा जुए में अधिक आय होती है परन्तु पवित्र क़ुरआन ने इससे रोका है।  ईश्वर ने बुद्धि को नष्ट करने वाली शराब और आर्थिक अशांति तथा द्वेष और अपराधों का कारण बनने वाले जुए को हराम कर दिया है।

इस्लाम धर्म ऐसे वातावरण और समाज में आया जिसमें शराब, जुए और मूर्ति पूजा का अत्यधिक प्रचलन था।  अरब जगत में इस्लाम के आने से पहले कुछ लोग शराब पिया करते थे।  जिस समय इस्लाम आया उस समय भी बहुत से लोग शराब का सेवन करते थे।  इस्लाम के उदयकाल के आरंभिक समय में शराब और जुए के बारे में कोई आयत नाज़िल नहीं हुई थी।  कुछ लोग इस बारे में ईश्वरीय आदेश जानने के उत्सुक थे।  एक बार "अब्दुर्रहमान बिन औफ" ने अपने दोस्तों को रात के खाने की दावत दी।  उस दावत में शराब भी परोसी गई और जुआ भी खेला गया।  यह घटना इस्लाम के उदयकाल के आरंभिक समय से संबन्धित है।  बिन औफ के मेहमानों ने इतनी ज़्यादा शराब पी ली कि वे मदहोश हो गए।  उनमे से कुछ लोग जुआ भी खेलते रहे।  इसी बीच नमाज़ का समय आ गया और वे लोग नमाज़ पढ़ना भूल गए।  इस दौरान किसी ने उन्हें नमाज़ की याद दिलाई।  उपस्थित लोगों ने वुज़ू किया और वे नशे की हालत में ही नमाज़ के लिए खड़े हो गए।  यह सारे लोग अब्दुर्रहमान बिन औफ़ के पीछे जमात से नमाज़ पढ़ने लगे।

बिन औफ़ ने कुछ ज़्यादा ही पी रखी थी।  उसने पहले सूरे हम्द पढ़ा और फिर सूरे काफ़ेरून पढ़ना शुरू किया।  सूरा आरंभ करने के बाद बिन औफ़ उसका अगला भाग भूल गए।  जमात से नमाज़ पढ़ने वालों में से एक ने उस आयत को पढ़ना आरंभ किया जिसे औफ़ पढ़ना भूल गए थे।  नशे की वजह से आयत को ठीक से न समझने के कारण उन्होंने जिस प्रकार से आयत पढ़ना शुरू किया उससे आयत का अर्थ उल्टा हो रहा था।  उन्होंने दो बार आयत पढ़ने में ग़लती की और दोनो बार उसका अर्थ बदल गया।  बहरहाल किसी तरह से नमाज़ ख़त्म हुई। 

इस घटना के बाद वहां पर उपस्थित लोगों में एक-दूसरे से नज़र मिलाने का साहस नहीं था।  बाद में उन लोगों ने यह तै किया कि इस घटना की ख़बर किसी दूसरे को न होने पाए इसलिए इस बारे में किसी से कोई बात न की जाए क्योंकि जो कुछ हुआ वह बहुत ही ग़लत हुआ।  लाख छिपाने के बावजूद यह ख़बर हर तरफ़ फैल गई।  जब यह ख़बर आम हुई तो मुसलमानों ने इन लोगों का मज़ाक़ उड़ाना शुरू किया और ताने भी दिये।  जब अब्दुर्रहमान बिन औफ और उसके साथी मुसलमानों के तानों को सहन नहीं कर पाए तो वे मजबूर होकर पैग़म्बरे इस्लाम की सेवा में उपस्थित हुए।  वहां पहुंचकर इन लोगों ने अपनी ग़लती स्वीकार की और क्षमा मांगी साथ ही कहा कि आप शराब पीने के बारे में ईश्वर के आदेश से हमें अवगत करवाइए।

उनके जवाब में पैग़म्बरे इस्लाम ने सूरे नेसा की आयत संख्या 43 के आरंभिक भाग की तिलावत की जिसमें ईश्वर कहता हैः हे ईमान वालो! नशे और मस्ती की हालत में नमाज़ के निकट न जाओ यहां तक कि तुम्हें पता रहे कि तुम क्या बोल रहे हो और जब नापाक व अपवित्र स्थिति में हो तो मस्जिद में न जाओ जबतक कि स्नान न कर लो।  अगर ध्यान दिया जाए तो पता चलेगा कि नमाज़ वास्तव में एक प्रकार से ईश्वर और उसके बंदे के बीच की वार्ता है। स्वभाविक सी बात है कि नशे की हालत में यह काम किसी भी स्थिति में उचित नहीं है क्योंकि नशे में होश नियंत्रण में नहीं रहते।  इसलिए नमाज़ पढ़ने के लिए सामान्य स्थिति में होना आवश्यक है। सूरे निसा की इस आयत के आने के बाद बहुत से एसे लोगों ने जो शराब पिया करते थे उसका पीना हमेशा के लिए छोड़ दिया।

इस्लाम के उदयकाल में कुछ लोग शराब का सेवन करते थे जिनके बारे में एक घटना कुछ एतिहासिक पुस्तकों में मिलती है।  इस घटना के बारे में बताया गया है कि एक बार मदीना नगर के मूल निवासियों में से एक के घर पर कुछ लोग मेहमान थे।  इन लोगों ने खाना खाने के बाद इतनी अधिक शराब पी ली कि वे मस्त हो गए।  नशे की हालत में वे एक-दूसरे से लड़ने लगे।  वहां पर मौजूद एक व्यक्ति ने ऊंट के जबड़े की हड्डी से अब्दुर्रहमान बिन औफ़ पर हमला कर दिया जिससे औफ़ का सिर फट गया।  उसके बाद उन्होंने कुफ़्फ़ारे क़ुरैश के वे शेर पढ़ने आरंभ कर दिये जो उन्होंने "बद्र" नामक युद्ध में अपने पूर्वजों की प्रशंसा में पढ़े थे।

जब यह बात पैग़म्बरे इस्लाम को पता चली तो वे बहुत ही नाराज़ हुए।  इसको सुनते ही वे उस स्थान पर स्वयं पहुंचे जहां पर एसा हुआ था।  उसके बाद उन्होंने वहां पर उपस्थित लोगों को उनके अनुचित काम के कारण उन्हे उपदेश देते हुए नसीहत की।  बाद में उन्होंने सूरे बक़रा की आयत संख्या 219 को पढ़ा जिसका अनुवाद इस प्रकार हैः (हे पैग़म्बर!) वे तुमसे शराब और जुए के बारे में पूछते हैं। कह दो कि इन दोनों में बड़ा पाप है और लोगों के लिए (यद्यपि) कुछ भौतिक लाभ भी हैं परन्तु इनका पाप, इनके लाभ से कही बढ़कर है। इस आयत में कहा गया है कि शराब और जुए दोनों में बड़ा पाप है किंतु कुछ भौतिक लाभ भी हैं किंतु इनका पाप इनके भौतिक लाभों से कहीं बढ़कर है।  हालांकि शराब बनाकर बेचने में लोगों को कुछ आर्थिक लाभ हो सकता है या जुए में जीतकर एक पक्ष को काफ़ी पैसा मिल सकता है परन्तु इन दोनों की सामाजिक, नैतिक, शारीरिक और अन्य बुराईयां इनके विदित फ़ायदे से कहीं बढ़कर हैं अतः दोनों को छोड़ देना ही बेहतर है।

एक बार अब्बासी ख़लीफ़ा मेहदी ने इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम से पूछा कि क्या ईश्वर की किताब में शराब को हराम बताया गया है।  उसने कहा कि सूरे बक़रा की आयत संख्या 219 से यह तो समझ में आता है कि शराब नहीं पीनी चाहिए किंतु इसमें यह नहीं कहा गया है कि शराब का पीना हराम है।  इसके जवाब में इमाम मूसा काज़िम ने मेहदी से कहा कि ईश्वर की किताब में शराब को हराम बताया गया है।  उन्होंने कहा कि इस आयत में एक शब्द "इस्म" का प्रयोग हुआ है जिसका अर्थ होता है पाप।  यह पाप एक महापाप है जो हराम है।  ईश्वर ने इसे बुरा काम भी बताया है।  इमाम ने पहले सूरे माएदा की आयत संख्या 90 की तिलावत की जिसका अर्थ हैः हे ईमान वालो! निःसन्देह, शराब, जुआ, मूर्तियां और पांसे ये सब शैतान के गंदे कर्म हैं तो इनसे दूर रहो ताकि तुम सफल हो सको।  बक़रा की आयत संख्या 219 के दूसरे हिस्से में ईश्वर कहता हैः और वे तुमसे पूछते हैं कि (भलाई के मार्ग में) क्या ख़र्च करें? कह दो कि जो तुम्हारी आवश्यकता से अधिक हो। इस प्रकार ईश्वर तुम्हारे लिए अपनी आयतें स्पष्ट करता है ताकि शायद तुम संसार और प्रलय के बारे में सोच विचार करो।

पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम से किया जाने वाला एक अन्य प्रश्न अनाथों की देखभाल के संबन्ध में था, क्योंकि कुछ मुसलमानों ने इस भय से कि कहीं अनाथों का माल उनके माल से मिल न जाए, उनके भोजन और बर्तन तक को अलग कर दिया था और इस कारण उन्हें काफ़ी कठिनाई हो रही थी।  पैग़म्बर ने इस प्रश्न के उत्तर में भी ईश्वरीय संदेश के आधार पर कहा कि जो बात महत्वपूर्ण है वह अनाथों के काम में अच्छाई और सुधार है, उसकी इस प्रकार देखभाल की जाए कि जिसमें उसका फ़ायदा हो न यह कि अनाथों का माल अपने माल से मिल जाने के भय से तुम उनकी देखभाल का दायित्व ही स्वीकार न करो या उन्हें अकेला छोड़ दो। उनके जीवन और तुम्हारे जीवन के मिलने में उस समय तक कोई रुकावट नहीं है जब तक उनका माल बर्बाद न हो, या तुम उनके माल से अनुचित लाभ न उठाओ। जान लो कि ईश्वर तुम्हारे कर्मों को देख रहा है और भला चाहने वाले तथा बुरा चाहने वाले को अलग-अलग पहचानता है। ईश्वर नहीं चाहता कि तुम कठिनाई में पड़ो इसलिए उसने अनाथों के माल को अपने माल से अलग रखने का आदेश नहीं दिया है अतः तुम लोग स्वयं इसका ध्यान रखो।

जहां पवित्र क़ुरआन लोगों को अपने और पैग़म्बरे इस्लाम (स) के अनुसरण का आदेश देता है वहीं इसके साथ ही वह यह नहीं चाहता कि यह अनुसरण अंधा हो।  अंधे अनुसरण का कोई लाभ नहीं होता बल्कि इससे हानि होती है। अर्थात बग़ैर सोचे समझे इस्लामी शिक्षाओं का अनुपालन न किया जाए।  इस्लाम का कहना है कि इस्लामी शिक्षाओं को व्यवहारिक बनाने के लिए बुद्धि का उचित ढंग से प्रयोग किया जाए ताकि वास्तविकता को उचित ढंग से समझा जा सके।  एसा न हो कि बग़ैर सोचे-समझे केवल आदत के तौर पर आदेश का पालन किया जाए।

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