May ०१, २०१६ ११:५५ Asia/Kolkata

धातु के काम की शाखाएं बहुत हैं जिनमें चाक़ू, पारंपरिक आभूषण, महापुरुषों के रौज़ों पर रखी जाने वाली ज़रीह और ताले के निर्माण, टैपेस्ट्री अर्थात चित्रयवनिका, मीनाकारी, गिलट बनाने और उकेरने का काम शामिल है।

 ईरान के हस्तकला उद्योग के कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि कम्पास और एस्ट्रोलैब का निर्माण भी ईरान के हस्तकला उद्योग की श्रेणी में आते हैं।

 

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  क़लम ज़नी या एचिंग का अर्थ है धातु पर नक़्क़ाशी करना ख़ास तौर पर तांबे, सोना, चांदी और कांस्य की धातु पर विशेष प्रकार की क़लम और हथौड़ी से चित्र बनाना, एचिंग कला कहलाती है। ईरान की संस्कृति व सभ्यता के महत्व को दर्शाने वाली यह कला शुरु में तक्षणकला या संगतराशी के रूप में थी जब पहाड़ की चट्टानों, राजाओं के महलों और ऐतिहासिक इमारतों के पत्थरों पर यहां तक कि पाषाण में यह कला प्रचलित थी। उसके बाद संगतराशी ने कंदकारी का रूप लिया और फिर एचिंग के रूप में विकसित हुयी और इस प्रकार इमारतों के पत्थरों और पहाड़ की चट्टानों पर बने सुदंर चित्र धातु पर उकेरे जाने लगे। 

 

 

ईरान में एचिंग कला का इतिहास बहुत स्पष्ट नहीं है और इस बात के कोई दस्तावेज़ नहीं हैं जिनसे पता चले कि वह पहला स्थान कहा है जहां सबसे पहले एचिंग कलाकृति बनायी गयी थी लेकिन इतिहास से पता चलता है कि ईरान और नियर ईस्ट में धातु ख़ास तौर पर तांबे का इस्तेमाल कई हज़ार वर्ष ईसापूर्व प्रचलित था। दूसरी ईसापूर्व सहस्त्राबदी के अंतिम और पहली ईसापूर्व सहस्त्राबदी के शुरु में ईरान के विभिन्न क्षेत्रों ख़ास तौर पर उत्तरी, पश्चिमोत्तरी ईरान और कैस्पियन सागर के दक्षिणी क्षेत्रों में धातु उद्योग व कला विकसित थी। इस युग की मौजूद महत्वपूर्ण चीज़ों में ‘हसनलू’ नामक सोने का प्याला है। इस प्याले के बारे में 1957 में पता चला कि यह किस युग का है। इस प्याले पर उभरे हुए चित्र हैं। यह पश्चिमोत्तरी ईरान में हसनलू नामक टीले से बरामद हुआ। ईरान के प्राचीन टीलों में इसकी गिनती होती है। हसनलू टीला लगभग 6000 साल ईसापूर्व पुराना है। हसनलू प्याला 3200 साल पुराना है और समझा जाता है कि इस प्याले का माद शासन काल में धातु उद्योग व कला के विकास में योगदान रहा है। ‘हसनलू’ प्याला 21 सेंटीमीटर लंबा है। इसका व्यास 25 सेंटीमीटर है जबकि वज़न 950 ग्राम है। इस प्याले पर उस युग की आस्था के अनुसार, तीन भगवान ज़मीन, पानी और सूर्य भगवान के चित्र उकेरे हुए हैं।

 

इसी प्रकार एक पहलवान का चित्र है जिसे एक दैत्य से लड़ते हुए चित्रित किया गया है। दो मेंढों पर सवार एक देवी, एक परिन्दे पर इंसान का बदन, इस प्याले पर उकेरे गए अन्य चित्र हैं। कहा जाता है कि ये चित्र वीरगाथाओं को बयान करते हैं। यह प्याला घात लगने से पिचक और टेढ़ा हो गया है। जिस समय खुदाई के समय हसनलू प्याला बरामद हुआ उस वक़्त इस प्याले के नीचे एक व्यक्ति का ढांचा भी बरामद हुआ। इस ढांचे के बारे में विशेषज्ञों का मानना है कि यह व्यक्ति हाथ में प्याला लेकर, आक्रमणकारी सिपाहियों के डर से फ़रार कर रहा था।

 

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      550 से 330 ईसापूर्व में हख़ामनेशी शासन काल की स्थापना से ईरान में धातु पर उकेर कर चित्र बनाने या एचिंग कला में और विकास हुआ और इस कला ने अपने बाद के युग पर अपना प्रभाव छोड़ा। हख़ामनेशी शासन काल में ढलाई और धातुओं पर हथौड़ा चलाने, उसे कूटने और साफ़ करने की कला बहुत विकसित हुयी। अलबत्ता ईरान पर सिकन्दर का हमला और तेख़्त जमशीद को आग लगाए जाने से बहुत सी चीज़ें मिट गयीं या सिकन्दर के आदेश से पिघलाकर सिक्का बना दी गयीं। हख़ामनेशी शासन की मौजूद चीज़ों में चांदी और सोने की दो तख़्तियां हैं जिनका वज़्न क्रमशः 4 और 5 किलो है। ये तख़्तियां ईरान में धातुकला के प्रचलन का पता देती हैं। 

 

 

250 ईसापूर्व में पार्त शासन काल के सत्ता में आने से उकेरने या एचिंग की कला हख़ामनेशी काल या थोड़े से बद्लाव के साथ जारी रही। सोने, चांदी और कांसे को पिघलाकर पुतलों का निर्माण, अश्कानी काल में प्रचलित था।

 

सासानी शासन काल में ईरान, यूनान और रोम के बीच व्यापारिक लेन-देन में विकास से यूनानी और रोमी कलाओं पर ईरानी कलाओं का प्रभाव पड़ा और अन्य देशों की कलाओं पर भी पारस्परिक रूप से बहुत प्रभाव पड़ा। सासानी शासन काल में धातु की वस्तुएं कई शैलियों में बनायी जाती थीं जैसे धातु की ठंडी चादर पर हथौड़े मार कर, ढलाई के ज़रिए और धातु को तराशने वाली चकरी के ज़रिए बर्तन बनाने की शैली उल्लेखनीय है।

ईरान में इस्लाम के आगमन की आरंभिक शताब्दियों में कलाकारों के इस्लाम की ओर रुझान और इस्लामी आस्था से, धातु की वस्तुओं के निर्माण में बहुत विकास हुआ। ईरान की पौराणिक कथाओं का पता देने वाले चित्रों की जगह पर अब धातुओं पर पवित्र क़ुरआन की आयतें और पैग़म्बरे इस्लाम तथा उनके पवित्र परिजनों के कथन, उकेरे जाने लगे। इन आयतों व कथनों को कूफ़ी लीपि में उकेरा जाता था। उस दौर में धातु के बर्तनों को सुंदर बनाने के लिए उन पर गुथी हुयी पट्टियों जैसे चित्र उकेरे जाते थे। उस दौर में धातुओं को सोने, चांदी और तांबे के तारों से सजाया जाता था। सलजूक़ी दौर में धातु को जालीदार बनाने की कला विकसित हुयी।

 

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दैलमी शासन काल में एचिंग कला के चित्रों में एक प्रकार की जटिलता दिखाई देती है। इस काल में ज़न्जीर के हल्क़े एक दूसरे में दाख़िल या अलग अलग दिखाई देते हैं। इन हल्क़ों में जानवरों और वनस्पतियों के चित्र बने हुए हैं। बाद के काल में एचिंग कला में ऐसे जानवरों के चित्र उकेरे जाते थे जो एक पेड़ के चारों ओर एक दूसरे के सामने मुंह किए या एक दूसरे से पीठ मिले दिखाई देते हैं। सफ़वी और क़ाजारी शासन काल में शाहनामे और नेज़ामी गंजवी की कहानियों और ऐतिहासिक इमारतों के चित्र उकेरना विकसित हुआ। इसी प्रकार इन दोनों दौर में धातु पर ग़ज़ल या चौपायी के पद इस्लामी लीपि में उकेरे जाते थे।

सोने, चांदी, तांबा, पीतल और स्पात जैसी धातुओं पर चित्र उकेरे जाते थे। एचिंग में चित्र उकेरने के लिए कलाकार लकड़ी के दस्ते वाली धातु की क़लम को इस्तेमाल करता है जिसकी नोक बहुत बारीक होती है।

 

 

आज के दौर में एचिंग के लिए पहले बर्तन या दृष्टिगत धातु की चीज़ को तारकोल और खड़िया से भरते हैं ताकि क़लम चलाते वक़्त ज़्यादा शोर न हो और बर्तन में सुराख़ न हो। उसके बाद बर्तन पर दृष्टिगत चित्र को रेखांकित करते हैं और उसके लिए उचित क़लम लेते हैं और फिर क़लम को धातु पर रख कर उस पर हथौड़ी मारते हैं ताकि चोट पड़ने से बर्तन पर चित्र का खांचा बन जाए। बर्तन में तारकोल को ठोस तरीक़े से भरते हैं। इसी प्रकार बर्तन पर चित्र को उतारने के लिए ज़रूरी है कि धातु की सतह चिकनी हो। उसके ऊपर डीज़ाइन को रखते हैं और फिर बारीक कपड़े के रूमाल में कोयले के पाउडर को डीज़ाइन के ऊपर फेरते हैं। कोयले का पाउडर डीज़ाइन के लिए बनाए गए छेद से होते हुए धातु की सतह पर पहुंच जाता है और इस प्रकार धातु पर डीज़ाइन बनती है। उसके बाद कलाकार क़लम और हथौड़ी लेकर बर्तन पर काम करना शुरु करता है। जब बर्तन पर डीज़ाइन बन जाती है तो बर्तन से तारकोल निकाल लेता है और फिर खांचों पर कोएले का पाउडर डालता है और बर्तन पर काले रंग की पॉलिश करता है। इस प्रकार एचिंग द्वारा बनाए गए चित्र साफ़ तौर पर उभर कर सामने आते हैं।

 

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ईरान में एचिंग या क़लम ज़नी की दो शैली प्रचलित है। एक तबरीज़ी और दूसरी इस्फ़हानी शैली। तबरीज़ी शैली में बर्तन पर क़लम चलाने में कलाई का इस्तेमाल बहुत होता है जबकि इस्फ़हानी शैली में हथौड़े की मार का इस्तेमाल ज़्यादा होता है। यही कारण है कि तबरीज़ की एचिंग कला के नमूने साफ़ होते हैं और क़लम को धातु पर ज़्यादा गड़ाया नहीं जाता जबकि इस्फ़हान के नमूनों में क़लम को धातु पर ज़्यादा गड़ाया जाता है।

  क़लम ज़नी या एचिंग की कई शैलियां प्रचलित हैं। 

एचिंग इस्फ़हान में प्राचीन समय से प्रचलित रही है और इस शहर में विभिन्न दौर की चीज़ें इस्फ़हान स्थित दुनिया के अनेक शहरों में म्यूज़ियमों की शोभा बढ़ा रही हैं। आज भी ईरान में एचिंग की कलाकृतियां दुकानों पर मिलती हैं। आम तौर पर सीनी, गुलदान, नमकदान, तस्वीर के फ़्रेम और प्लेटों पर एचिंग की हुयी चीज़े मिलती हैं। ये चीज़ें तांबे और पीतल की धातु की होती हैं।

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